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पर्यावरण संरक्षण की अद्भुत नजीर अजमेर का पदमपुरा गांव, 700 सालों से नीम ही नारायण, कभी नहीं चली कुल्हाड़ी - Special Report - SPECIAL REPORT

अजमेर जिले का पदमपुरा गांव, जहां 15 हजार से भी अधिक नीम के पेड़ है. यहां के लोग पिछले 700 सालों से नीम को काटना तो दूर, उसकी टहनी और पत्तियां तक नहीं तोड़ते. यहां नीम को नारायण माना जाता है. पर्यावरण संरक्षण की अद्भुत नजीर है अजमेर का पदमपुरा गांव. देखिए हमारी यह खास रिपोर्ट...

Villagers do not cut neem tree
अजमेर का पदमपुरा गांव (Photo : Etv Bharat)
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By ETV Bharat Rajasthan Team

Published : Jun 27, 2024, 8:42 AM IST

अजमेर का पदमपुरा गांव (Video : Etv Bharat)

अजमेर. ग्लोबल वार्मिंग को लेकर विश्व चिंता में डूबा हुआ है. पर्यावरण असंतुलन से होने वाले दुष्प्रभाव का असर भी प्राकृतिक आपदा के रूप में कभी-कभार देखने को मिल रहा है. ऐसे में पर्यावरण को संतुलित करने के लिए ज्यादा से ज्यादा पौधे लगाने और उन्हें संरक्षित करने के लिए सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर प्रयास किया जाता रहा है, लेकिन लोग इसको गंभीरता से नहीं लेते. ऐसे लोगों को अजमेर जिले के पदमपुरा गांव और यहां रहने वाले लोगों से सीख लेनी चाहिए. पदमपुरा गांव पर्यावरण के लिए नजीर है. 705 वर्षों से इस गांव में नीम के पेड़ को काटना गुनाह माना जाता रहा है. इस गांव का प्रत्येक व्यक्ति नीम को नारायण मानकर उसकी रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है.

ऐसे बना 'नीम वाला गांव' : अजमेर से 18 किलोमीटर दूर अरावली पहाड़ियों की गोद में बसा पदमपुरा गांव का इतिहास 705 वर्ष पुराना है. पहाड़ी की तलहटी पर बसे इस गांव में एक छोटा सा गढ़ है जो इसके प्राचीन इतिहास का गवाह है. इस गांव की चर्चा होती है तो लोग इसको नीम वाला गांव से भी जानते है. इसका कारण गांव में हजारों की संख्या में नीम के पेड़ का होना है. यह अपने आप में अद्भुत है. इस गांव में नीम के पेड़ को काटना तो दूर उसकी टहनी को भी तोड़ना अपराध माना जाता है. करीब 1200 व्यक्तियों की आबादी वाले पदमपुरा गांव में नीम का पेड़ उनकी आस्था ही नहीं है, बल्कि बुजुर्गों से मिली विरासत भी है, जिसको उतनी ही शिद्दत के साथ यहां सहेज कर रखा जाता है. गांव के प्राचीन और जर्जर हो रहे गढ़ से यदि गांव को देखते है तो दूर तक जहां भी नजर जाती है, वहा नीम के पेड़ ही नजर आते है. ऐसा नहीं है कि नीम के अलावा अन्य पेड़ नहीं है, लेकिन इस गांव और यहां रहने वाले लोगों के लिए नीम का पेड़ भगवान है.

पर्यावरण संरक्षण की अद्भुत नजीर : अजमेर में वरिष्ठ पत्रकार रोहिताश गुर्जर का पदमपुरा गांव से गहरा नाता रहा है. ननीहाल होने के कारण बचपन से गुर्जर पदमपुरा आते-जाते रहे हैं और यहां के इतिहास और विरासत से भली भांति परिचित भी है. ईटीवी भारत की टीम जब पदमपुरा पंहुची तब रोहिताश गुर्जर से मुलाकात हुई तो उन्होंने बताया कि पदमसिंह नाम के एक क्षत्रिय ने गांव को बसाया था. गांव के बीच पहाड़ी की तलहटी में एक ऊंचे टीले पर प्राचीन गढ़ आज भी मौजूद है. पदम सिंह ने जब गांव बसाया तब ग्रामीणों ने मिलकर प्रण लिया कि नीम के पेड़ को कभी नहीं काटा जाएगा और यह कानून ही बन गया. गांव में अधिकांश आबादी गुर्जर समाज की है. गुर्जर समाज के आराध्य देव देवनारायण है जो भगवान विष्णु के अवतार माने जाते हैं. ऐसे में यहां लोगों में नीम के पेड़ को भी देव नारायण मानकर लोग अपनी आस्था प्रकट करते हैं.

PADAMPURA VILLAGE OF AJMER
700 साल पहले पदमसिंह ने बनाया था यह गांव (Photo : Etv Bharat)

रोहिताश बताते हैं कि विगत वर्षों में प्रकृति में काफी बदलाव देखे गए हैं. खासकर मौसम में भी परिवर्तन आ गया है. इसके दुष्प्रभाव भी संसार भुगत रहा है. इसका कारण पेड़ों की अंधाधुंध कटाई है. वर्तमान में पर्यावरण को संतुलित करने के लिए सबसे ज्यादा आवश्यक है कि ज्यादा से ज्यादा पौधे लगाए और उनका संरक्षण करें. जबकि पदमपुरा गांव के लोग 700 बरस पहले से नीम के महत्व और गुणों को जान गए और उसे संरक्षित रखे हुए हैं.

इसे भी पढ़ें : कोचिंग सिटी कोटा में इस बार घटी छात्रों की संख्या, बने कोरोना जैसे हालात... हॉस्टल्स में लगे ताले - Less Students in Kota Coaching

पेड़ काटना तो दूर टहनी भी नहीं तोड़ते लोग : गांव में सरपंच पति जसराज गुर्जर बताते हैं कि बचपन से ही बड़े बुजर्गों से नीम को नारायण मानने की बाते सुनते आए हैं. ऐसे में कभी किसी को पेड़ काटना तो दूर टहनी काटते हुए भी नहीं देखा. यदि किसी के मकान या मार्ग में नीम का पेड़ बाधा बनता है तो गांव के लोग चौपाल पर जमा होकर निर्णय करते है और संबंधित व्यक्ति से मंदिर में दान और चिड़ियों और कबूतरों के लिए चुगा लिया जाता है. उन्होंने बताया कि गांव में कृषि के साथ लोग पशुपालन भी करते हैं. ज्यादातर लोग बकरी पालन करते हैं लोगों के घरों में 8 से 10 बकरियां होती है. इसके बावजूद बकरियों के लिए नीम की पत्तियां तोड़कर उन्हें नही खिलाई जाती. गांव के लोग स्वतः नीम की रक्षा का ध्यान रखते हैं. यदि नीम की टहनी भी यदि कोई तोड़ लेता है तो वह खुद ही गांव के लोगों के सामने आकर कबूल कर लेता है या फिर लोग खुद उसे पकड़ कर चौपाल पर लेकर आते हैं और गांव के बुजुर्ग उसे पर आर्थिक दंड का निर्णय लेते हैं जो उसे मान्य होता है. उन्होंने बताया कि नीम के पेड़ को सर्दियों में छांगा ( कटिंग ) की जाती है ताकि गर्मी में पेड़ घना हो जाएं. लेकिन गांव में पेड़ को छांगने की भी अनुमति नहीं है. सरपंच पति जसराज गुर्जर बताते हैं कि गांव के लिए नीम के पेड़ वरदान है. गांव की आबोहवा स्वच्छ है लोग स्वस्थ रहते हैं. कोरोना काल में भी गांव के एक भी व्यक्ति को कोरोना नहीं हुआ था.

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15 हजार से अधिक नीम के पेड़ : ग्रामीण शिवराज सिंह बताते है कि नीम के पेड़ से लोगों की आस्था जुड़ी हुई है. गांव में 15 हजार से भी अधिक नीम के पेड़ है. गांव में नीम के अधिक पेड़ होने से गर्मी के दिनों में अन्य जगहों की तुलना में गांव का तापमान कम रहता है. गांव में लाइट जाने पर लोग नीम की ठंडी छाव में वक़्त गुजारते है. गांव में बुजुर्ग ओम सिंह बताते हैं कि 700 बरस पहले बुजुर्गों ने नीम की रक्षा और उसे संरक्षित रखने का निर्णय लिया है, उसे पीढ़ी दर पीढ़ी निभा रहे हैं. गुपचुप तरीके से यदि कोई नीम की टहनी भी तोड़ देता है और इस बात को सार्वजनिक नहीं करता तो स्वंय देवनारायण उसको सजा देते हैं.

अजमेर का पदमपुरा गांव (Video : Etv Bharat)

अजमेर. ग्लोबल वार्मिंग को लेकर विश्व चिंता में डूबा हुआ है. पर्यावरण असंतुलन से होने वाले दुष्प्रभाव का असर भी प्राकृतिक आपदा के रूप में कभी-कभार देखने को मिल रहा है. ऐसे में पर्यावरण को संतुलित करने के लिए ज्यादा से ज्यादा पौधे लगाने और उन्हें संरक्षित करने के लिए सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर प्रयास किया जाता रहा है, लेकिन लोग इसको गंभीरता से नहीं लेते. ऐसे लोगों को अजमेर जिले के पदमपुरा गांव और यहां रहने वाले लोगों से सीख लेनी चाहिए. पदमपुरा गांव पर्यावरण के लिए नजीर है. 705 वर्षों से इस गांव में नीम के पेड़ को काटना गुनाह माना जाता रहा है. इस गांव का प्रत्येक व्यक्ति नीम को नारायण मानकर उसकी रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है.

ऐसे बना 'नीम वाला गांव' : अजमेर से 18 किलोमीटर दूर अरावली पहाड़ियों की गोद में बसा पदमपुरा गांव का इतिहास 705 वर्ष पुराना है. पहाड़ी की तलहटी पर बसे इस गांव में एक छोटा सा गढ़ है जो इसके प्राचीन इतिहास का गवाह है. इस गांव की चर्चा होती है तो लोग इसको नीम वाला गांव से भी जानते है. इसका कारण गांव में हजारों की संख्या में नीम के पेड़ का होना है. यह अपने आप में अद्भुत है. इस गांव में नीम के पेड़ को काटना तो दूर उसकी टहनी को भी तोड़ना अपराध माना जाता है. करीब 1200 व्यक्तियों की आबादी वाले पदमपुरा गांव में नीम का पेड़ उनकी आस्था ही नहीं है, बल्कि बुजुर्गों से मिली विरासत भी है, जिसको उतनी ही शिद्दत के साथ यहां सहेज कर रखा जाता है. गांव के प्राचीन और जर्जर हो रहे गढ़ से यदि गांव को देखते है तो दूर तक जहां भी नजर जाती है, वहा नीम के पेड़ ही नजर आते है. ऐसा नहीं है कि नीम के अलावा अन्य पेड़ नहीं है, लेकिन इस गांव और यहां रहने वाले लोगों के लिए नीम का पेड़ भगवान है.

पर्यावरण संरक्षण की अद्भुत नजीर : अजमेर में वरिष्ठ पत्रकार रोहिताश गुर्जर का पदमपुरा गांव से गहरा नाता रहा है. ननीहाल होने के कारण बचपन से गुर्जर पदमपुरा आते-जाते रहे हैं और यहां के इतिहास और विरासत से भली भांति परिचित भी है. ईटीवी भारत की टीम जब पदमपुरा पंहुची तब रोहिताश गुर्जर से मुलाकात हुई तो उन्होंने बताया कि पदमसिंह नाम के एक क्षत्रिय ने गांव को बसाया था. गांव के बीच पहाड़ी की तलहटी में एक ऊंचे टीले पर प्राचीन गढ़ आज भी मौजूद है. पदम सिंह ने जब गांव बसाया तब ग्रामीणों ने मिलकर प्रण लिया कि नीम के पेड़ को कभी नहीं काटा जाएगा और यह कानून ही बन गया. गांव में अधिकांश आबादी गुर्जर समाज की है. गुर्जर समाज के आराध्य देव देवनारायण है जो भगवान विष्णु के अवतार माने जाते हैं. ऐसे में यहां लोगों में नीम के पेड़ को भी देव नारायण मानकर लोग अपनी आस्था प्रकट करते हैं.

PADAMPURA VILLAGE OF AJMER
700 साल पहले पदमसिंह ने बनाया था यह गांव (Photo : Etv Bharat)

रोहिताश बताते हैं कि विगत वर्षों में प्रकृति में काफी बदलाव देखे गए हैं. खासकर मौसम में भी परिवर्तन आ गया है. इसके दुष्प्रभाव भी संसार भुगत रहा है. इसका कारण पेड़ों की अंधाधुंध कटाई है. वर्तमान में पर्यावरण को संतुलित करने के लिए सबसे ज्यादा आवश्यक है कि ज्यादा से ज्यादा पौधे लगाए और उनका संरक्षण करें. जबकि पदमपुरा गांव के लोग 700 बरस पहले से नीम के महत्व और गुणों को जान गए और उसे संरक्षित रखे हुए हैं.

इसे भी पढ़ें : कोचिंग सिटी कोटा में इस बार घटी छात्रों की संख्या, बने कोरोना जैसे हालात... हॉस्टल्स में लगे ताले - Less Students in Kota Coaching

पेड़ काटना तो दूर टहनी भी नहीं तोड़ते लोग : गांव में सरपंच पति जसराज गुर्जर बताते हैं कि बचपन से ही बड़े बुजर्गों से नीम को नारायण मानने की बाते सुनते आए हैं. ऐसे में कभी किसी को पेड़ काटना तो दूर टहनी काटते हुए भी नहीं देखा. यदि किसी के मकान या मार्ग में नीम का पेड़ बाधा बनता है तो गांव के लोग चौपाल पर जमा होकर निर्णय करते है और संबंधित व्यक्ति से मंदिर में दान और चिड़ियों और कबूतरों के लिए चुगा लिया जाता है. उन्होंने बताया कि गांव में कृषि के साथ लोग पशुपालन भी करते हैं. ज्यादातर लोग बकरी पालन करते हैं लोगों के घरों में 8 से 10 बकरियां होती है. इसके बावजूद बकरियों के लिए नीम की पत्तियां तोड़कर उन्हें नही खिलाई जाती. गांव के लोग स्वतः नीम की रक्षा का ध्यान रखते हैं. यदि नीम की टहनी भी यदि कोई तोड़ लेता है तो वह खुद ही गांव के लोगों के सामने आकर कबूल कर लेता है या फिर लोग खुद उसे पकड़ कर चौपाल पर लेकर आते हैं और गांव के बुजुर्ग उसे पर आर्थिक दंड का निर्णय लेते हैं जो उसे मान्य होता है. उन्होंने बताया कि नीम के पेड़ को सर्दियों में छांगा ( कटिंग ) की जाती है ताकि गर्मी में पेड़ घना हो जाएं. लेकिन गांव में पेड़ को छांगने की भी अनुमति नहीं है. सरपंच पति जसराज गुर्जर बताते हैं कि गांव के लिए नीम के पेड़ वरदान है. गांव की आबोहवा स्वच्छ है लोग स्वस्थ रहते हैं. कोरोना काल में भी गांव के एक भी व्यक्ति को कोरोना नहीं हुआ था.

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15 हजार से अधिक नीम के पेड़ : ग्रामीण शिवराज सिंह बताते है कि नीम के पेड़ से लोगों की आस्था जुड़ी हुई है. गांव में 15 हजार से भी अधिक नीम के पेड़ है. गांव में नीम के अधिक पेड़ होने से गर्मी के दिनों में अन्य जगहों की तुलना में गांव का तापमान कम रहता है. गांव में लाइट जाने पर लोग नीम की ठंडी छाव में वक़्त गुजारते है. गांव में बुजुर्ग ओम सिंह बताते हैं कि 700 बरस पहले बुजुर्गों ने नीम की रक्षा और उसे संरक्षित रखने का निर्णय लिया है, उसे पीढ़ी दर पीढ़ी निभा रहे हैं. गुपचुप तरीके से यदि कोई नीम की टहनी भी तोड़ देता है और इस बात को सार्वजनिक नहीं करता तो स्वंय देवनारायण उसको सजा देते हैं.

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