हजारीबाग: झारखंड की पहचान यहां के जंगलों की हरियाली और यहां के वातावरण से होती है. झारखंड का राजकीय वृक्ष सखुआ (साल) है, जो कई उपयोगिताओं के लिए खास माना जाता है. हजारीबाग के ग्रामीण क्षेत्रों में यह सखुआ (साल) का वृक्ष जीविकोपार्जन का साधन बन गया है. वन विभाग साल के वृक्ष को संरक्षित करने के लिए चिंतित है और ग्रामीणों से इसके संरक्षण की अपील भी कर रहा है.
साल के पौधे को नर्सरी में तैयार नहीं किया जा सकता है. यह खुद से जंगल में तैयार होते हैं. कहा जाए तो साल ही ऐसा वृक्ष है जिसके बीज को जर्मिनेट नहीं किया जा सकता है. बीज गिरने के 15 दिनों के अंदर ही नया पौधा तैयार हो जाता है.
हजारीबाग समेत आसपास के इलाकों में साल के छोटे-छोटे पौधों को ग्रामीण तोड़ लेते हैं और दातुन के रूप में बजार में बेच देते है. अब वन विभाग इस बात को लेकर चिंतित है कि कैसे साल के छोटे-छोटे पौधों को संरक्षित किया जाए.
वन विभाग के पदाधिकारी ग्रामीणों को जागरूक करने का काम कर रहे हैं. साथ ही अपील भी कर रहे हैं कि छोटे-छोटे पौधों को नहीं तोड़ें. वन विभाग के पदाधिकारियों का कहना है कि छोटे पौधे को तोड़ दिये जाते हैं और जब पौधा थोड़ा बड़ा होता है तो ग्रामीण अपने घरों में खूंटा के रूप में उपयोग करते हैं. इस कारण साल वृक्ष की संख्या क्षेत्र में कम हो रही है जो बेहद चिंता का विषय है.
पर्यावरणविद् मुरारी सिंह बताते हैं कि साल का वृक्ष झारखंड की पहचान है. ग्रामीणों की लापरवाही और गलत तरीके के कारण साल के पौधे संरक्षित नहीं रह पा रहे हैं. ग्रामीण जंगल में आग लगा देते हैं. जिससे बीज जल जाते हैं और नए पौधे अंकुरित (जर्मिनेट) नहीं हो पाते हैं. दूसरी ओर ग्रामीण छोटे-छोटे पौधे तोड़ रहे हैं और दतुवन के रूप में बेच रहे हैं. इस कारण भी पौधे संरक्षित नहीं हो पा रहे हैं.
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