बूंदी. अरावली पर्वत श्रृंखला की तलहटी में बसी छोटी काशी के नाम मशहूर बूंदी में रियासतकाल में गणगौर का पर्व बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता था, जो किसी भी मायने में जयपुर की गणगौर से कम नहीं था. बून्दी हाड़ाओं की गणगौर इतनी प्रसिद्ध थी कि जयपुर से पहले बूंदी का नाम आता था. लेकिन बूंदी रियासत में 17वीं शताब्दी में गणगौर समारोह के दौरान हुए हादसे के बाद यहां गणगौर की पूजा घरों तक ही सीमित रह गई है. इस हादसे के बाद बूंदी में आज तक गणगौर के सार्वजनिक उत्सव पर एक तरह से अघोषित रोक सी लग गई. हालांकि शहर के कुछ जगहों पर सालों से स्थापित गणगौर होने के चलते वहां पर लोग एकत्रित होते हैं और गणगौर महोत्सव को धूमधाम से मनाते हैं. लेकिन इनकी संख्या बेहद कम है.
क्या हुआ था 17 वीं शताब्दी में: 17वीं शताब्दी में बूंदी नरेश महाराव बुध सिंह के छोटे भाई की गणगौर उत्सव के दौरान हुए हादसे में मृत्यु हो जाने के बाद यहां गणगौर पर्व की ओक (आंट) पड़ गई. तब से राजपरिवार ने गणगौर का उत्सव मनाना बंद कर दिया. इंटेक के सचिव राजकुमार दाधीच ने बताया कि महाराव बुध सिंह के साल 1695 से 1740 के दौर में उनके छोटे भाई जोध सिंह जैतसागर में सरदार और रूपसियों के साथ गणगौर का दरीखाना लगाकर सैर कर रहे थे. इस दौरान नशे में मदमस्त एक हाथी ने पूरी नाव को जैतसागर में गणगौर सहित पलटा दिया, जिसमें राजा के छोटे भाई सहित कुछ जागीरदारों की मौत हो गई थी. तब से लेकर अब तक बूंदी में पूर्व राजपरिवार गणगौर महोत्सव में आंट रखे हुए है.
एक और किंवदंती जुड़ी है गणगौर के साथ: राजकुमार दाधीच के अनुसार बूंदी की गणगौर के विषय में एक दूसरी किवदंती भी है. जिसके अनुसार 13वीं सदी में बूंदी के राव राजा नापा को परास्त कर शेरगढ़ के महाराज हरराज सिंह ने गणगौर को छीन ले गए थे. जिसे कुछ वर्षों बाद नापा के पुत्र हम्माजी ने शेरगढ़ के महाराज हरराज सिंह को युद्ध में परास्त कर बून्दी की गणगौर को वापिस लेकर आए थे. उसके बाद से गणगौर पर्व पर शुरू हुई उत्सव मनाने की परंपरा 17वीं शताब्दी तक जैतसागर झील में हुए हादसा होने तक जारी रही.
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पूर्व राजपरिवार सदस्य मयूराक्षी सिंह के अनुसार बूंदी में भी 17वीं शताब्दी में तत्कालीन महाराव बुद्धसिंह जी के समय तक गणगौर का पर्व भव्यता से आयेजित किया रहा था. तत्कालीन महाराव बुद्धसिंह जी के समय हुई दुर्घटना में महाराव के भाई जोधसिंह सहित राजपरिवार के अन्य सदस्यों की मृत्यु होने के बाद से बूंदी रियासत में गणगौर पर्व की आंट (बाधा) पड़ गई. उस ओक (आंट) का आज तक भी यहां निर्वहन करते हुए पूर्व राजपरिवार सार्वजनिक तौर पर गणगौर पर्व नहीं मनाता.