रांची: 31 जनवरी 2024 की शाम मुख्यमंत्री रहते हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी ने झारखंड मुक्ति मोर्चा के सामने चुनौतियों का पहाड़ खड़ा कर दिया है. 80 साल के हो चुके पार्टी सुप्रीमो शिबू सोरेन अब उस स्थिति में नहीं है कि पार्टी को संभाल सकें. उनके मार्गदर्शन से पार्टी को सत्ता तक पहुंचाने में सफल रहे कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन लैंड स्कैम मामले में जेल में बंद हैं. पूरा सोरेन परिवार मुसीबतों में घिरा हुआ है. शिबू सोरेन से जुड़े आय से अधिक संपत्ति मामले में लोकपाल ने सीबीआई को तेज गति से जांच पूरा करने को कह दिया है. हॉर्स ट्रेडिंग मामले में गुरुजी की बहू सीता सोरेन के सामने भी मुसीबत खड़ी हो गयी है. छोटे पुत्र बसंत सोरेन मंत्री जरुर बन गये हैं लेकिन वह इस स्थिति में नहीं हैं कि पार्टी को संभाल सकें.
इधर, ईडी ने हेमंत सोरेन के खिलाफ जिस तरह से कानूनी शिकंजा कसा है, उससे नहीं लगता कि वह आने वाले कुछ महीनों में जेल से बाहर आ पाएंगे. कम से कम लोकसभा चुनाव तक तो संभावना नहीं के बराबर दिख रही है. पार्टी सूत्रों के मुताबिक नेताओं ने अनुमान लगा रखा है कि आगामी विधानसभा चुनाव तक हेमंत सोरेन जेल से बाहर आ जाते हैं तो पार्टी के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि होगी.
अब सवाल है कि झामुमो किसके नेतृत्व में चलेगा. क्या कल्पना सोरेन इस जिम्मेदारी को संभालने की क्षमता रखती हैं. वरिष्ठ पत्रकार मधुकर का कहना है कि सोरेन परिवार में कल्पना सोरेन के अलावा कोई विकल्प ही नहीं दिख रहा है. परिवार के ज्यादातर सदस्य कानूनी पेंच में फंसे हुए हैं. लिहाजा, हेमंत सोरेन आने वाली परिस्थितियों को अच्छी तरह भांप चुके थे. यही वजह है कि वह पिछले एक साल से कल्पना सोरेन को चुनौतियों से मुकाबला करने के लिए तैयार कर रहे थे. ताकि उनकी अनुपस्थिति में वह पार्टी को संभाल सकें.
दरअसल, चुनाव के वक्त हेमंत की गिरफ्तारी हुई है. झारखंड में अप्रत्यक्ष रुप से राजा वाला सिस्टम चलता है. इसका फायदा कल्पना सोरेन के जरिए मिल सकता है. उनके साथ लोगों की सहानुभूति जुड़ी है. इसकी झलक गिरिडीह में झामुमो के स्थापना दिवस कार्यक्रम में दिख चुकी है. बेशक, कल्पना सोरेन के सामने कई चुनौतियां हैं क्योंकि पार्टी में कई वरिष्ठ नेता मौजूद हैं. लेकिन कोई भी अलग लकीर खींचने की स्थिति में नहीं है, इस बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि कल्पना सोरेन को लालू प्रसाद और राहुल गांधी का पूरा सपोर्ट मिलेगा. क्योंकि हेमंत सोरेन ने केंद्र सरकार से टकराने की हिम्मत दिखाई है. लिहाजा, यह कहा जा सकता है कि एक मजबूत गठबंधन के साथ कल्पना सोरेन मौजूदा राजनीति में पार्टी को संभालते हुए खुद को इस्टेब्लिश कर लेंगी.
वरिष्ठ पत्रकार आनंद कुमार भी इससे इत्तेफाक रखते हैं कि झामुमो में नया अध्याय शुरु होने जा रहा है. उनके मुताबिक कल्पना सोरेन की इंट्री अचानक नहीं हुई है. जब से ईडी की कार्रवाई शुरु हुई, तभी से कल्पना सोरेन का नाम सीएम के तौर पर उभरने लगा था. क्योंकि हेमंत सोरेन खुद को स्वभाविक उत्तराधिकारी के रुप में स्थापित कर चुके हैं. गुरूजी की बड़ी बहू सीता सोरेन किनारे हैं. बसंत में क्षमता नहीं हैं. इसलिए पार्टी के सामने कल्पना सोरेन ही एकमात्र विकल्प हैं. उनके साथ सहानुभूति है. उनके पास भावनात्मक मुद्दे हैं. संभव है कि पार्टी उनको यात्राओं पर निकालेगी. झारखंड में इंडिया एलायंस के अभियान को कल्पना सोरेन ही लीड करेंगी.
वरिष्ठ पत्रकार आनंद कुमार का मानना है कि अगर कल्पना सोरेन की एंट्री नहीं होती तो सरकार का चलना मुश्किल हो जाता क्योंकि चंपाई सोरेन और बसंत सोरेन के रुप में दो पावर सेंटर डेवलप हो जाते. इधर, सीएम चंपाई भी गिरिडीह में कह चुके हैं कि कल्पना सोरेन में हेमंत बाबू के शुरूआती दिनों की झलक देखने को मिली है. जहां तक चुनौतियों की बात है तो वह भी कम नहीं दिख रही है. पार्टी के साथ कल्पना सोरेन को तालमेल बिठाना होगा. पार्टी के भीतर की राजनीति को समझना होगा. फंड मैनेजमेंट देखना होगा. टिकट बंटवारे के समय उठने वाले विवाद को संभालना आसान नहीं होगा. हालांकि पर्दे के पीछे से उनके साथ हेमंत की पूरी टीम है.
कल्पना सोरेन का प्लस प्वाइंट
मौजूदा हालात में कल्पना सोरेन के साथ कई प्लस प्वाइंट हैं. वह काफी पढ़ी लिखी हैं. राजनीति से अलग होते हुए भी राजनीति के गढ़ में रहीं हैं. ऐतबार और फरेब का फॉर्मूला अच्छी तरह समझती हैं. उनमें छिपे लीडरशीप की झलक गिरिडीह में आयोजित झामुमो के 51वें स्थापना दिवस सह आक्रोश दिवस समारोह में दिख चुकी है. मंच पर जब उनके आंसू छलके तो कार्यकर्ताओं में सहानुभूति की लहर दौड़ गई. उन्होंने दूसरे ही पल खुद को संभाला और हेमंत सोरेन जिंदाबाद के नारे लगाकर बता दिया कि लड़ाई लंबी चलने वाली है. उन्होंने अपने पहले सार्वजनिक संबोधन में कहा था कि दिल्ली वालों के अंदर दिल धड़कता ही नहीं है. आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक को दिल्ली वाले कीड़ा समझते हैं. उसकी वजह से इन्हें लगता है कि हम कुछ भी कर सकते हैं. लेकिन झारखंड नहीं झुकेगा.
कैसे पड़ी थी झारखंड मुक्ति मोर्ची की नींव
अलग झारखंड राज्य की मांग लंबे समय से चल रही थी. सबसे पहले 1950 में झारखंड फॉर्मेशन पार्टी ने इसकी मांग की थी. प्रोफेसर अमित प्रकाश ने अपनी पुस्तक The politics of Development and identity in the Jharkhand region of Bihar में इस बात का जिक्र किया है. इधर बिनोद बिहारी महतो सामाजिक सुधार के लिए शिवाजी समाज नाम से संगठन चला रहे थे. दूसरी तरफ शिबू सोरेन महाजनी प्रथा के खिलाफ जमीन के हक की लड़ाई लड़ रहे थे. इसी दौरान मार्क्सवादी चिंतक एके रॉय की पहल से 4 फरवरी 1973 को धनबाद के गोल्फ ग्राउंड में झामुमो गठन हुआ. तब बिनोद बिहारी महतो पार्टी के अध्यक्ष और शिबू सोरेन महासचिव बनाए गये. यहीं से झारखंड राज्य आंदोलन को नई धार मिली.
1980 में पार्टी ने पहली बार बिहार विधानसभा का चुनाव लड़ा और 12 सीटों पर जीत दर्ज की. लेकिन बाद में मतभेद बढ़ा और पार्टी दो गुट में बंट गयी. एक गुट की अध्यक्षता बिनोद बिहारी महतो करने लगे. महासचिव टेकलाल महतो बने. दूसरे गुट का नेतृत्व निर्मल महतो कर रहे थे और शिबू सोरेन महासचिव थे. लेकिन 1987 में निर्मल महतो की हत्या के बाद दोनों गुट एक हो गये. 1992 में फिर पार्टी में टूट हुआ. एक का नेतृत्व शिबू सोरेन करने लगे तो दूसरे गुट का नेतृत्व कृष्णा मार्डी के हाथ में चला गया. 1999 में फिर से पार्टी का एकीकरण हुआ. इसके बाद पार्टी पर शिबू सोरेन का दबदबा बढ़ता चला गया. मौजूदा हालात में पार्टी का नया अध्याय शुरु होने जा रहा है.
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