आगरा: शेरो-शायरी...नज्म...गजल की बात हो और गालिब का नाम ना आए, ऐसा हो नहीं सकता. आज भी मशहूर शायर मिर्जा गालिब की शायरी के लोग दीवाने हैं. मगर, आगरा में जन्मे मशहूर शायर मिर्जा गालिब अपने ही शहर के लोगों में गुमनाम और बेगाने हैं. अब ना तो उनकी जन्मस्थल का वजूद है और ना ही उन्हें याद करने वाला कोई है. मशहूर शायर मिर्जा गालिब के जन्मदिवस पर ईटीवी भारत ने वरिष्ठ इतिहासकार और प्रबुद्धजन से खास बातचीत की.
हर जुबां का वो आसरा...उसके दिल में धड़कता था आगरा... जी हां, आगरा में जन्मे शायर मिर्जा गालिब उर्फ मिर्जा असदुल्लाह बेग खां गालिब को पूरी दुनिया जानती है. मिर्जा गालिब का जन्म 27 दिसंबर 1797 को आगरा के कला महल क्षेत्र यानी काला महल क्षेत्र में हुआ था.
आगरा के वरिष्ठ इतिहासकार राजकिशोर 'राजे' बताते हैं कि पीपल मंडी के पास काला महल क्षेत्र में मिर्जा गालिब की ननिहाल थी. उनके पिता अब्दुल्ला बेग सेना में थे. उनकी मां इज़्ज़त-उत-निसा बेगम तब ननिहाल काला महल में रहती थी. तभी गालिब का जन्म हुआ था. अब वो हवेली नहीं हैं. जहां पर मिर्जा गालिब का जन्म हुआ था. वहां पर इंद्रभान गर्ल्स इंटर कॉलेज है.
मिर्जा गालिब का बपचन आगरा में बीता. जब मिर्जा गालिब महज चार साल के थे तो उनके पिता की मौत हो गई थी. उन्होंने आगरा के उस्तादों से तालीम हासिल की. महज 11 साल की उम्र में ही गालिब ने शेर और शायरी सुनना, पढ़ना और लिखना शुरू कर दिया था. 12 साल की उम्र में दिल्ली चले गए.
मिर्जा गालिब का 13 साल की उम्र में निकाह, 72 में निधन: इतिहासकार राजकिशोर 'राजे' बताते हैं कि महज 13 साल की उम्र में मिर्जा गालिब का विवाह नवाब ईलाही बख्श की बेटी उमराव बेगम से हुआ था. आगरा से जाने के बाद मिर्जा गालिब दिल्ली में रहे. 72 साल की उम्र में मिर्जा गालिब की 15 फरवरी, 1869 को दिल्ली में ब्रेन हेमरेज से मृत्यु हो गई. उन्हें हजरत निजामुद्दीन क्षेत्र में स्थित सुसराल पक्ष के लोगों के कब्रिस्तान में दफन किया गया था.
मिर्जा गालिब ने 1857 के विद्रोह पर भी लिखा: राजकिशोर 'राजे' बताते हैं कि मिर्जा गालिब ने अपनी आंखों के सामने ही 1857 का गदर देखा था. दिल्ली में कैसे विनाश किया गया, ये सब देखा. गदर में मिर्जा गालिब के कई परिचित और मित्रों की मौत हो गई थी, जिससे वे बेहद आहत रहे. आठ सितंबर 1858 को मिर्जा गालिब ने अपने मित्र हकीम अजहददौला नजफखा को एक खत लिखा था.
उसमें लिखा था कि वल्लाह, दुआ मांगता हूं कि अब इन अहिब्बा (प्रिय) में से कोई न मरे, क्या मानें के जब मैं मरूं तो मेरी याद करने वाला, मुझ पर रोने वाला भी तो कोई हो. ऐसे ही मिर्जा गालिब ने अपने दोस्त ज्याउद्दीन अहमद खां को पत्र लिखा था कि ‘जाने बिरादर! गालिब नामुराद के अश्क व आह यानी आब-व-हवाएं अकबराबाद आपके लिए साजगार हो. मेरे वतन आगरा में हैं, इसलिए मुझसे बहुत करीब हैं. मैं खुश हूं कि मेरे शौक दूर अंदेशी ने मेरे दीदह (आंख) व दिल को इस सफर में आपके साथ कर दिया. ताकि इस गुरबत (परदेश) में अपने वतन के दीदार की शादमानी (खुशी), दाद भी आपको दे सकूं...
आगरा से बेइंतहा मोहब्बत रही: राजकिशोर 'राजे' बताते हैं कि मिर्जा गालिब आगरा से बेइंतहा मोहब्ब्त करते थे. वे कई बार आगरा आए. इसके साथ ही आगरा के अपने बचपन के दोस्तों को पत्र लिखते थे. मिर्जा गालिब ने अपने एक बचपन के दोस्त को लिख था कि ‘आह मुझे वह जमाना याद आता है, जब यह पूरी कायनात यानी अकबराबाद मेरा वतन थी. हमदर्द दोस्तों की एक अंजुमन हर वक्त आरास्ता रहा करती थी.’
पत्र लेखन की सजीव कला थे मिर्जा गालिब: राजकिशोर 'राजे' बताते हैं कि मिर्जा गालिब के पत्र लेखन की एक प्रमुख विशेषता थी कि उनके सभी खत अपने में एक सजीव वातावरण बनाए रखते थे. एक खत में उन्होंने मित्र को लिखा था कि ' सुबह का वक्त है. जाड़ा खूब पड़ रहा है. अंगीठी सामने रखी हुई है. दो हर्फ लिखता हूं. आग तापता जाता हूं.' ऐसे ही दूसरे पत्र में गालिब लिखते हैं कि 'लो भाई अब तुम चाहे बैठे रहो या जाओ अपने घर. मैं तो रोटी खाने जाता हूं. अंदर बाहर सभी रोजेदार हैं. यहां तक कि बड़ा बेटा बकार अली भी. सिर्फ मैं और मेरा एक प्यारा बेटा हुसैन खां रोजाखार हैं.
आगरा की पतंगबाजी का पत्रों में जिक्र: राजकिशोर 'राजे' बताते हैं कि मिर्जा गालिब ने 19 अक्टूबर 1858 को आगरा निवासी मित्र मुंशी शिव नारायण को लिखे पत्र में अपने बचपन के दिनों को याद किया है. जिसमें उन्होंने बड़ी रोचकता के साथ आगरा के काला महल, खटिया वाली हवेली, कटरा गउरियान समेत अन्य जगहों का उल्लेख किया. इस पत्र में उन्होंने लिखा है कि कटरे की एक छत से वो तथा दूसरे कटरे की छत से बनारस के निष्कासित राजा चेत सिंह के पुत्र बलवान सिंह पतंग उड़ाते व पेंच लड़ाते थे.
गालिब का पेंशन से हुआ गुजारा: राजकिशोर 'राजे' बताते हैं कि मिर्जा गालिब के चाचा के निधन पर अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें पेंशन देना शुरू किया था. अंग्रेजी हुकूमत से मिर्जा गालिब को तब 67 रुपये 50 पैसे मासिक पेंशन मिलती थी. अंतिम मुगल बादशाह से बहादुर शाह जफर से भी तैमूरिया खानदान का इतिहास लिखने के लिए मासिक 50 रुपये मेहनताना मिलता था. सन 1850 में में शहंशाह बहादुर शाह जफर द्वितीय ने मिर्जा गालिब को दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद-दौला के खिताब से नवाजा था. इसके साथ ही उन्हें मिर्जा नोशा का खिताब भी मिला था. बहादुर शाह द्वितीय के पुत्र मिर्जा फखरु के शिक्षक भी रहे.
अपने ही शहर ने भुला दिया गालिब को: भले ही मिर्जा गालिब के शेर और शायरी की पूरी दुनिया दीवानी है. हर शायर की जुबां पर उनका कोई न कोई शेर या नज़्म रहती है. ऐसे महान शायर को अपने ही शहर आगरा से प्यार नहीं मिला. शहर में आज उनके बारे में जानते नहीं हैं. जहां पर मिर्जा गालिब का जन्म हुआ. वहां के लोग उन्हें जानते हैं और ना ही शहर में उनके नाम से शहर में कोई इमारत, पार्क, सड़क का नाम तक नहीं हैं. जिसे देखकर उन्हें याद किया जा सके.
वरिष्ठ पत्रकार ब्रज खंडेलवाल कहते हैं कि आगरा कला और साहित्य की शहर कहा जाता है. यहां से कई बड़े कवि साहित्यकार निकले. लेकिन इसी शहर आगरा में जन्मे मिर्जा गालिब के नाम से कुछ भी नहीं हैं. इस बारे में मैंने नगर आयुक्त को ज्ञापन दिया है. इसके साथ ही आगरा के विवि में मिर्जा गालिब चेयर, शायर के नाम से शोध पुस्तकालय और सभागार की मांग की जा रही है. जिससे उन्हें याद किया जा सके.
आगरा विवि में बने गालिब के नाम से चेयर: बैकुंठी देवी कन्या महाविद्यालय की उर्दू विभागाध्यक्ष प्रोफेसर डॉ. नसरीन बेगम ने जिस शायर की जन्म आगरा है. उसे दुनिया मान रही है. उनकी गजलों और शेर सुनकर लोग देश और दुनिया में मशहूर हो रहे हैं. उसी आगरा में ऐसे मशहूर शायर के लिए कोई ऐसी चीज नहीं हैं. जिससे उन्हें नई पीढी जान सकें. उनके बारे में पढ सके. जो इंकलाब गदर के शायर हैं. ऐसे बडा शायर, जो हरेक की पसंद हैं. जिसे दुनिया हाथों हाथ ले रही है. एक उर्दू की प्रोफेसर होने के नाते मेरी सरकार और विवि प्रशासन से मांग है कि मशहूर शायर मिर्जा गालिब के नाम से गालिब चेयर बने. जिससे उनके नाम पर शोध हो सके. हमारी युवा पीढी उन्हें जान और समझ सकें.
यूपी में बने गालिब अध्ययन केंद्र: काशी हिंदू विश्वविद्यालय के उर्द विभागाध्यक्ष प्रोफेसर आफताब अहमद अफ़ाकी बताते हैं कि मशहूर शायर गालिब आगरा में पैदा हुए. गालिब अकेले ऐसे शायर हैं, जिनके शेरों में खुशी, गम, इश्क है. कहें तो गालिब की लेखनी में चलती फिरती जिंदगी है. उन्होंने जिंदगी जीने का हुनर लिखा है. कहें तो गालिब ने जिंदगी से शायरी को गले मिलाया है. वे मॉर्डन सोच के शायर थे.
गालिब मिर्जा हमारी धरोहर हैं. ऐसे में उनकी यादों सहेजना जरूरी है. उनके नाम पर लाइब्रेरी या अध्ययन केंद्र बने. मेरा मानना है कि यूपी के किसी शहर में बने. मेरा मानना है कि गालिब आगरा में पैदा हुए तो आगरा में ही गालिब अध्ययन केंद्र बने. जहां पर गालिब पर लिखी तमाम किताबें हों. गालिब अध्ययन केंद्र में हिंदू, उर्दू, फारसी, अंग्रेजी समेत अन्य भाषाओं की किताबें हों. जिससे रिसर्च की जाए. वैसे ही पीएम मोदी की मंशा और पूरा जोर हमारी सांझी धरोहर सहेजने पर है.
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