मसूरी: उत्तराखंड अपने रीति-रिवाजों और परंपराओं के लिए प्रसिद्ध है. आज भी यहां कई ऐसी परंपराएं जिंदा हैं, जो देवभूमि को अलग बनाती हैं. इन्हीं में से एक मौण मेला है. इस मेले के तहत साल में एक बार अगलाड़ नदी में मछलियां पकड़ने का ऐतिहासिक त्यौहार मनाया जाता है. पहाड़ों की रानी मसूरी के नजदीक जौनपुर रेंज में उत्तराखंड सांस्कृतिक की धरोहर 'मौण' मेला आयोजित किया गया. ग्रामीण यहां मछलियों को पकड़ने के लिए अगलाड़ नदी में उतरे और ढोल नगाड़ों की थाप पर लोकनृत्य किया.
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दरअसल, मानसून की शुरूआत में अगलाड़ नदी में जून के अंतिम सप्ताह में मछली मारने के लिए मौण मेला मनाया जाता है. मौण को मौणकोट नामक स्थान से अगलाड़ नदी के पानी में मिलाया जाता है. इसके बाद हजारों की संख्या में बच्चे, युवा और वृद्ध नदी की धारा के साथ मछलियां पकड़ना शुरू कर देते हैं. यह सिलसिला लगभग चार किलोमीटर तक चलता है, जो नदी के मुहाने पर जाकर खत्म होता है.
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नदी में टिमरू के छाल से बनाया पाउडर डाला जाता है, जिससे मछलियां कुछ देर के लिए बेहोश हो जाती हैं. इसके बाद उन्हें पकड़ा जाता है. इस दौरान ग्रामीण मछलियों को अपने कुण्डियाड़ा, फटियाड़ा, जाल और हाथों से पकड़ते हैं, जो मछलियां पकड़ में नहीं आ पाती हैं, वह बाद में ताजे पानी में जीवित हो जाती हैं. इस बार ’प्रसिद्ध राजमौण’ में मौण या टिमूर पाउडर निकालने की बारी खैराड़, मरोड़,नैनगांव, भुटगांव, मुनोग, मातली और कैंथ के ग्रामीणों की थी.
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स्थानीय लोगों ने बताया कि मेले में सैकड़ों किलो मछलियां पकड़ी जाती हैं, जिसे ग्रामीण प्रसाद स्वरूप घर ले जाते हैं. घर में बनाकर मेहमानों को परोसते हैं. वहीं मेले में पारंपरिक लोक नृत्य भी किया जाता है. इसमें मेले में विदेशी पर्यटक भी पहुंचते हैं. यह भारत का अलग अनूठा मेला है, जिसका उद्देश्य नदी और पर्यावरण का संरक्षण करना होता है. इसका उद्देश्य नदी की सफाई करना भी होता है, ताकि मछलियों को प्रजनन के लिए साफ पानी मिले.
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जल वैज्ञानिकों का कहना है कि टिमरू का पाउडर जल पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाता है. इससे कुछ समय के लिए मछलियां बेहोश हो जाती हैं. वहीं, जो मछलियां पकड़ में नहीं आती हैं, वह बाद में ताजे पानी में जीवित हो जाती हैं. वहीं हजारों की संख्या में जब लोग नदी की धारा में चलते हैं, तो नदी के तल में जमी हुई काई और गंदगी साफ होकर पानी में बह जाती हैं. उन्होंने कहा कि इस ऐतिहासिक मेले का शुभारंभ 1866 में तत्कालीन टिहरी नरेश ने किया था. तब से जौनपुर में हर साल इस मेले का आयोजन किया जा रहा है.
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क्षेत्र के बुजुर्गों का कहना है कि इस मेले में टिहरी नरेश खुद अपनी रानी के साथ आते थे. मौण मेले में सुरक्षा की दृष्टि से राजा के प्रतिनिधि उपस्थित रहते थे, लेकिन सामंतशाही के पतन के बाद सुरक्षा का जिम्मा खुद ग्रामीणों ने उठा लिया. उन्होंने कहा कि जौनपुर, जौनसार और रंवाई इलाकों का जिक्र आते ही मानस पटल पर एक सांस्कृतिक छवि उभर आती है. यूं तो इन इलाकों के लोगों में भी अब परंपराओं को निभाने के लिए पहले जैसी गंभीरता नहीं है, लेकिन समूचे उत्तराखंड पर नजर डालें तो अन्य जनपदों की तुलना में आज भी इन इलाकों में परंपराएं जीवित हैं.
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