मनेन्द्रगढ़ चिरमिरी भरतपुर: छत्तीसगढ़ में महुआ चुनना एक त्यौहार से कम नहीं होता. इन दिनों महुआ पेड़ो से गिरना शुरू हो गया है. यही कारण है कि प्रदेश के आदिवासी समाज के लोग सुबह-सुबह खेतों में जाकर महुआ चुनते हैं. इसी महुए को सूखा कर, बेच कर ये आदिवासी परिवार चलाते हैं. इतना ही नहीं कई आदिवासी परिवार के सदस्य महुआ सीजन में बाहर शहर में काम के लिए गए हैं, तो वो भी घर आकर महुआ चुनते हैं. इसी महुए से उनका जीवन बसर होता है.
पूरा परिवार चुनने जाता है महुआ: दरअसल, छत्तीसगढ़ में इन दिनों महुआ गिरने लगा है. आदिवासी परिवार सुबह 5 बजे जंगल पहुंच जाते हैं. मनेन्द्रगढ़ के जंगलों में महुआ के छोटे बड़े लगभग लाखों पेड़ हैं. इन पेड़ों के नीचे सुबह-सुबह महुआ फूल पड़े रहते हैं. महुआ की खुशबू से इन दिनों पूरा जंगल महक रहा है.आदिवासी समुदाय के लिए महुआ सीजन किसी पर्व से कम नहीं होता है. महुआ जब टपकना शुरू होता है तो रोजगार के लिए बाहर गए लोग भी वापस घर लौट आते हैं. इस तरह से यह सीजन बिछड़े स्वजनों के मेल-मिलाप का भी कारण बनता है. आदिवासियों का पूरा कुनबा मिलकर महुआ फूल का संग्रहण करता है.
महुआ सीजन में लोग गुनगुनाते हैं ये गीत: महुआ सीजन में आदिवासियों के घरों में ताला लगा रहता है, क्योंकि सुबह से ही परिवार के सभी लोग टोकरी लेकर महुआ बीनने खेत और जंगलों में निकल जाते हैं. रात में 'बियारी करके इतै खेत में आ जात और रात में यदि न तकिए तो जंगली जानवर महुआ खा जात हैं' ये लोकगीत अक्सर सुनाई देने लगता है.
क्या कहते हैं ग्रामीण: इस बारे में मनेन्द्रगढ़ के एक ग्रामीणों का कहना है कि, " 5 से 8 क्विंटल सूखा महुआ हर साल मिल जाता है, जिसे 25 से 30 रुपये प्रति किलो की दर से व्यापारी खरीद लेते हैं. हमारी यह खेती पूरी तरह से प्राकृतिक और बिना लागत वाली है. एमसीबी जिले के जंगली और आदिवासी क्षेत्रों में देशी शराब निर्माण भी आजीविका का एक महत्वपूर्ण स्त्रोत महुआ है. कोरोना महामारी के समय इससे सेनिटाइजर का भी निर्माण किया गया, लेकिन किसानों के लिए तो यह बैलों, गायों और अन्य कृषि उपयोगी पशुओं को तंदुरुस्त बनाने वाली ये बेशकीमती दवा है. कई आदिवासी अंचलों में महुआ के लड्डू और कई अलग-अलग तरह की मिठाई तैयार की जाती है. कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रीय व्यंजन जैसे महुआ की खीर,पूड़ी और चीला ये आदिवासी संस्कृति के खास व्यंजन हैं."
हम लोग आदिवासी हैं. महुआ से 36 प्रकार का भोजन बनाते हैं. कभी महुआ का दारु बना लेते हैं. कभी भूंज कर खा लेते हैं. कभी लाई महुआ को मिक्स कर कढ़ाई में कुटकर खा लेते हैं. यह हमारा बरसात का असली खुराक है. महुआ हमारे आजीविका का प्रमुख साधन है.-बुद्धसेन सिंह, ग्रामीण
महुआ बेचकर चलाते हैं अपना खर्चा: महुआ की खेती के बारे में मनेन्द्रगढ़ के ग्रामीण सुंदर यादव बताते हैं कि सुबह जल्दी उठकर महुआ बीनने जाते हैं. दोपहर एक दो बजे तक महुआ बिनते हैं. इसके बाद घर में लाकर इसे सुखाते हैं, फिर बाजार में बेचते हैं. बेचकर अपना खर्चा पानी चलता है. इसी तरह बिन बटोरकर नमक तेल चलाते रहते हैं. नमक फ्री मिल रहा है. मोदी सरकार दें रहा हैं."
महुआ बिनते हैं. सुखवाते हैं.बेचते हैं. मिठाई भी बनाकर खा लेते हैं. हर दिन सुबह उठते हैं, फिर महुआ बीनने जाते है. -सुरेश कुमार, ग्रामीण बच्चा
महुआ खाकर जीते हैं आदिवासी: इस बारे में ग्राम पंचायत तोजा के उपसरपंच सुमेर राम बैगा ने कहा कि, " सुबह चार बजे हम अपने लड़के और पड़ोसी के बच्चों को उठा देते हैं. मेरे आस-पास के सभी लोग उठकर महुआ बीनने जाते है. सब जंगल जाते है. सब अपना खाना पीना वहीं पर बनाते हैं. इसके बाद हम लोग दोपहर तीन-चार बजे लौटते हैं. हमको पैसे की कमी होती है, तो हम दुकान में महुआ को लेकर जाते हैं. हम वनवासी आदमी हैं. वन फुल खाकर हमारे माता-पिता जिए हैं, उसी प्रकार से हम लोग जी रहे हैं."
बता दें छत्तीसगढ़ में महुआ बीनना एक त्यौहार के तरह है. महुआ को ग्रामीण क्षेत्रों में लोग चुनकर जमा करते हैं. फिर उसे सूखाकर ये बेचते हैं. महुआ से कई तरह की मिठाईयां और शराब भी बनता है. आदिवासी समाज महुआ को पौष्टिक मानते हैं. यही कारण है कि यहां महुआ कलेक्शन एक फेस्टिवल के तरह होता है.