भोपाल। क्या आम चुनाव में भी एक बार फिर आदिवासी वोटर ही निर्णायक होगा. क्या वजह है कि मध्य प्रदेश समेत देश में लोकसभा चुनाव के शंखनाद के लिए पीएम मोदी ने एमपी के आदिवासी इलाके झाबुआ को ही चुना. झाबुआ एमपी की वो लोकसभा सीट है, जो बीजेपी या गैर कांग्रेसी पार्टियों के लिए हमेशा ही चुनौती बनी रही. 2014 से जिस सीट की तासीर बदली. 2024 के आम चुनाव से पहले इसी सीट पर जनसभा के साथ पीएम मोदी चुनावी बिगुल फूंकेंगे. चार सौ सीटों का दम भर रही बीजेपी की निगाहें, इस बार दस करोड़ से ज्यादा आदिवासी वोटर पर है. पार्टी ने इस वोटर पर पकड़ के लिए संगठन के लिहाज से अपने ट्रस्टेड और टेस्टेड राज्य एमपी को चुना है, तो उसके पीछे भी खास वजह है.
2024 के चुनाव प्रचार की शुरुआत झाबुआ से ही क्यों
तो सवाल ये है कि क्या वजह है कि 2024 के आम चुनाव का बिगुल पहले एमपी और फिर एमपी के झाबुआ से ही पीएम मोदी फूंकेगे. इसमें दो राय नहीं कि लंबे समय से एमपी की गिनती बीजेपी संगठन के लिहाज से मजबूत राज्यों में होती रही है, लेकिन झाबुआ से ही चुनावी शंखनाद क्यों. असल में झाबुआ, रतलाम लोकसभा सीट एमपी का आदिवासी इलाका है. एमपी में आदिवासी आबादी करीब 21 प्रतिशत के लगभग है. इस हिसाब से एमपी का हर पांचवा व्यक्ति आदिवासी वर्ग का कहा जा सकता है. प्रदेश की 29 लोकसभा सीटों में से 6 सीटें आदिवासी आरक्षित है, लेकिन ये वो वोटर हैं 2014 के बाद से जिसने अपना जनादेश बदल लिया और बीजेपी के साथ हो गया.
वरना आजादी के बाद से अब तक आदिवासी कांग्रेस का सबसे मजबूत वोटर रहा था. जिस झाबुआ सीट पर पीएम मोदी जा रहे हैं. इस सीट पर भी साठ साल से ज्यादा समय तक हाथ का साथ ही मजबूत होता रहा है. 2014 से इस सीट की तासीर बदली है. लेकिन अब झाबुआ के सहारे बीजेपी की निगाह देश के दस करोड़ से ज्यादा आदिवासी वोटर पर है. ये वो कोर वोटर है जिसकी बदौलत कांग्रेस ने सत्तर साल इस देश पर राज किया.
11 फरवरी को झाबुआ से लोकसभा चुनाव का बिगुल फूंकेंगे मोदी
अब एमपी में पार्टी का पूरा फोकस झाबुआ पर है. झाबुआ में लोकसभा चुनाव कार्यालय खोल दिया गया है. पार्टी के नए लोकसभा प्रभारियों समेत पार्टी प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा झाबुआ पहुंचकर तैयारियों का जायजा ले रहे हैं. असल में 2023 के विधानसभा चुनाव से पहले भी पार्टी का पूरा जोर आदिवासी वोटर पर रहा और रेलवे स्टेशन से लेकर अलग-अलग स्थानों के नए नामकरण जिस तरह से आदिवासी नायक नायिकाओं के नाम पर किए गए. आदिवासियों को दी गई इस तरजीह को चुनाव नतीजे में देखा जा सकता है.
विधानसभा चुनाव में एमपी की 47 आदिवासी वर्ग के लिए रिजर्व सीटों में से 25 सीटों पर बीजेपी ने जीत दर्ज की. यानि आदिवासी का भरोसा जीतने में पार्टी कामयाब रही. अब उसी जमीन पर लोकसभा चुनाव की तैयारी में पार्टी जुटी है. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक प्रकाश भटनागर कहते हैं, आदिवासी वोटर की मजबूती ही थी जो कांग्रेस ने मध्यप्रदेश समेत देश में लंबा राज किया. असल में ये वोटर ही जीत का ट्रम्प कार्ड तो हैं ही. इसके जरिए बीजेपी संदेश भी कई दे रही है. आदिवासी को तो ये बताया ही जा रहा है कि उस वर्ग से आने वाली अब देश की राष्ट्रपति के पद तक पहुंची हैं.
दूसरी तरफ पार्टी ये जता भी रही है कि जो सबसे कमजोर तबका है. जो तरक्की से कटा हुआ है, उसे कैसे बीजेपी के केन्द्र की सत्ता में आने के बाद फ्रंट लाईन में लाया गया. कैसे उसे निर्णय के अधिकार दिए गए राष्ट्रीय सम्मानों में उनकी कला को सम्मानित करने से लेकर उनके भोजन मिलेट्स को दुनिया तक पहुंचाने में सरकार ने किस तरह से योगदान दिया है.
यहां पढ़ें... |
क्यों आदिवासी वोटर है सबसे मजबूत
अब आपका ये जानना जरुरी है कि आदिवासी क्यों सबसे बड़ी ताकत है तो इसकी वजह है ये है कि अकेले एमपी में ही विधानसभा की 47 सीटें हैं. इनके अलावा यही आंकड़ा देश में आरक्षित लोकसभा सीटों का है. 543 में से 47 सीटें एसटी वर्ग के लिए रिजर्व हैं. आदिवासी वोटर का प्रतिशत देश में करीब आठ फीसदी से ज्यादा है. पूरे देश में दस करोड़ से ज्यादा आदवासी हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव बाद से आदिवासी वोटर शिफ्ट हुआ है. पिछले आम चुनाव में 31 सीटें बीजेपी के खाते में आई थी. पार्टी अब इस आंकड़े को और बढ़ाना चाहती है.