रामनगर (उत्तराखंड): नैनीताल जिले के कालाढूंगी (छोटी हल्द्वानी) में उत्तर भारत की सबसे पहली आयरन फाउंड्री की साल 1856 में स्थापना की गई थी. आयरन फाउंड्री में सबसे ज्यादा लोहे का निर्माण होता था. 1876 में अधिक पेड़ों के कटान पर कुमाऊं कमिश्नर सर हेनरी रैमजे द्वारा रोक लगाने के बाद इसको बंद कर दिया गया. आज आयरन फाउंड्री के पास में पर्यटक लोहा बनाने वाले पत्थरों का दीदार करते हैं. आज भी मौके पर काले पत्थर मिलते हैं, जो सामान्य पत्थर से वजन में ज्यादा भारी होते हैं.
मशहूर पुस्तकों में आयरन फाउंड्री का जिक्र: बता दें कि उत्तर भारत की पहली आयरन फाउंड्री का जिक्र पर्यटन से जुड़ी कई मशहूर पुस्तकों में किया गया है. प्रसिद्ध शिकारी जिम कॉर्बेट ने भी अपनी किताब 'माई इंडिया' में इस आयरन फाउंड्री का जिक्र किया है. साथ ही लेखिका अंजली रवी भरतरी द्वारा भी लिखी गई किताब में इस आयरन फाउंड्री का जिक्र किया गया है. कॉर्बेट ग्राम विकास सामिति के प्रशिक्षित गाइडों के माध्यम से सैलानी यहां पहुंचते हैं. कालाढूंगी का नाम भी इसी आयरन फाउंड्री की वजह से पड़ा है, क्योंकि आसपास के क्षेत्र में भारी मात्रा में काला पत्थर पाया जाता था, जो आयरन फाउंड्री में लाया जाता था. कुमाऊंनी में काले पत्थर को ‘काल ढूंग’ कहा जाता है. इसी कारण इसका नाम कालाढूंगी पड़ गया.
1856 में स्थापित हुई थी आयरन फाउंड्री: ब्रिटिशकाल के दौरान 1856 में डेविड कंपनी ने नैनीताल जिले के कालाढूंगी (छोटी हल्द्वानी), कोटाबाग, खुरपाताल और रामगढ़ चारों जगह पर आयरन फाउंड्री की स्थापना की. इन भट्टियों में पहाड़ों में पाया जाने वाला काला पत्थर निकालकर गलाया जाता था और उससे कच्चे लोहे का निर्माण किया जाता था. इस लोहे से रेल लाइन और पुलों का निर्माण किया जाता था. कालाढूंगी से सटे पहाड़ों में भी काला पत्थर सबसे ज्यादा पाए जाने पर 1856 में कालाढूंगी में भी उत्तर भारत की सबसे बड़ी आयरन फाउंड्री की स्थापना की गई थी.
आयरन फाउंड्री से चौबीस घंटे बहती थी नहर: आयरन फाउंड्री से चौबीस घंटे बहने वाली सिंचाई नहर भी इसी आयरन फाउंड्री का एक हिस्सा है. इसमें पहाड़ों के स्रोतों से पानी एकत्र किया जाता था. पानी को फाउंड्री के लोहे को ठंडा करने के लिए उपयोग किया जाता था. बहरहाल नहर में पानी आज भी 24 घंटे बहता रहता है, जो अब कृषकों के लिए सिंचाई कार्य के काम आ रहा है.
1876 में आयरन फाउंड्री पर लगा प्रतिबंध: कॉर्बेट ग्राम विकास समिति के सचिव और वरिष्ठ नेचर गाइड मोहन पांडे ने बताया कि उस वक्त इस फाउंड्री की वजह से जंगलों में लकड़ियों का बेतहाशा कटान होना शुरू हो गया था. पेड़ों के लगातार हो रहे कटान और भट्टी से निकलने वाले धुंए से पर्यावरण पर भी प्रभाव पड़ रहा था, जिससे 1876 में तत्कालीन ब्रिटिश कमिश्नर सर हेनरी रैमजे ने इस फाउंड्री पर प्रतिबंध लगा दिया. उन्होंने बताया कि तब से इस धरोहर की कोई सुध लेने वाला नहीं था और यह धरोहर विलुप्त की कगार पर थी.
आयरन फाउंड्री देखने बड़ी संख्या में पहुंचते हैं लोग: मोहन पांडे ने बताया कि साल 2001 में पूर्व PCCF राजीव भरतरी द्वारा "समुदाय आधारित पर्यटन"(COMMUNITY BASE TOURISM) छोटी हल्द्वानी कालाढूंगी में शुरू किया गया था, तो ईको टूरिज्म के तहत कॉर्बेट ग्राम विकास समिति एवं वन विभाग द्वारा इस आयरन फाउंड्री की खोज की गई थी. इसके बाद स्थानीय सामिति द्वारा इस धरोहर को लेकर प्रशिक्षित नेचर गाइडों द्वारा इसको पर्यटकों को दिखाने का सिलसिला शुरू हुआ, जो आज भी जारी है.
2023 में रेनोवेशन के कार्य की मिली स्वीकृति: मोहन पांडे ने बताया कि आयरन फाउंड्री देखरेख के अभाव में क्षतिग्रस्त होती जा रही थी. जिसके जीर्णोद्धार को लेकर कालाढूंगी कॉर्बेट ग्राम विकास समिति के द्वारा एक पत्र क्षेत्रीय विधायक बंशीधर भगत को सौंपा गया कि इस फाउंड्री का संरक्षण और टूरिज्म के जरिए इसको विकसित किया जाए. जिसके बाद उत्तराखंड पर्यटन विभाग द्वारा इस फाउंड्री का रेनोवेशन के कार्य को 2023 में सरकार से अनुमति मिल गयी थी. अब रेनोवेशन और सौंदर्यीकरण का कार्य गतिमान है.
कुमाऊं का विकास आयरन फाउंड्री का था मकसद: वरिष्ठ पत्रकार और समाजसेवी गणेश रावत ने बताया कि यह उत्तर भारत की सबसे पहली और बड़ी आयरन फाउंड्री थी. इस फैक्ट्री का मुख्य मकसद कुमाऊं का विकास था. फैक्ट्री में कालाढूंगी के करीब 200 से 250 परिवारों को रोजगार भी मिला. उन्होंने कहा कि पेड़ों के अत्यधिक कटाव के कारण इस पर रोक लगा दी गई थी. इस आयरन फाउंड्री का दीदार करने वाले पर्यटक इसको देखकर और इसके बारे में जानकारी लेकर अत्यधिक रोमांचित हो जाते हैं.
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