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इस मेले में एक-दूसरे को लहूलुहान होने तक पत्थर मारते हैं लोग, जानिए क्यों होता है ऐसा

शिमला में धामी के हलोग में आज पत्थर मेला मनाया गया. ये मेला कई सौ सालों से मनाया जा रहा है.

धामी का पत्थर मेला
धामी का पत्थर मेला (ETV BHARAT)
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By ETV Bharat Himachal Pradesh Team

Published : 2 hours ago

Updated : 2 hours ago

शिमला: प्राकृतिक रूप से तो हिमाचल सुंदर है ही, लेकिन यहां के रीति रिवाज, परंपराएं, मेले, त्योहार इसकी सुंदरता के मोती हैं. कुल्लू का दशहरा, मंडी की शिवरात्रि देशभर में अलग पहचान रखते हैं, लेकिन रोमांच के नजरिए से देवभूमि हिमाचल का पत्थर मेला विलक्षण माना जा सकता है. राजधानी शिमला से 30 किलोमीटर दूर धामी के हलोग में ये परंपरा बरसों से आज भी निभाई जा रही है.

इस मेले में लोग एक-दूसरे पर तब तक पत्थर मारते हैं जब तक किसी शख्स को चोट लगने के बाद उसका खून नहीं बहता. खून बहने के साथ ही पत्थर मेला समाप्त हो जाता है. दो टोलियों में पत्थर का ये खेल खेला जाता है. इसमें हार जीत कोई मायने नहीं रखती, मायने रखती है तो सिर्फ सदियों से चली आ रही परंपरा. इसका पालन कई सदियों से किया जा रहा है.

एक दूसरे पर बरसाए जाते हैं पत्थर

ये अपनी तरह का अद्भुत मेला है, जिसमें पत्थर बरसाएं जाते हैं. आज शुक्रवार को ये मेला मनाया गया. जमोगी खुंद के सुरेंद्र को पत्थर लगने के बाद उनका रक्त भद्रकाली मां को चढ़ाया गया और मेला समाप्त हो गया. दो गुटों के लोगों ने पत्थरबाजी कर इस इस परंपरा को निभाया. इस दौरान उस इलाके में मानो पत्थर की बारिश हो रही हो. लोग एक दूसरे की तरफ आसमान में पत्थर बरसा रहे थे.

खून बहने पर रुकती है पत्थरबाजी

इस पत्थरबाजी में किसी एक शख्स के घायल होने और खून निकलने पर ही ये पत्थरबाजी बंद होती है. लेखक एसआर हरनोट बताते हैं कि 'इस पत्थरबाजी में जैसे ही कोई घायल होता है तो तीन महिलाएं अपने दुपट्टे को लहराती हुई आती हैं, जो पत्थरबाजी को रोकने का संकेत है.'

क्यों होती है ये पत्थरबाजी

एस. आर. हरनोट के मुताबिक, 'इस परंपरा का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है, लेकिन मान्यता है कि राजाओं के दौर में धामी रियासत में स्थित भद्रकाली मंदिर में मानव बलि का रिवाज था. रियासत के राजा की मौत के बाद जब रानी ने सती होने का फैसला लिया तो उन्होंने यहां होने वाली मानव बलि पर रोक लगाने का आदेश दिया था, जिसके बाद एक भैंसे को लाकर उसका कान काटकर छोड़ दिया जाता था और माता भद्रकाली को सांकेतिक रूप से पशु बलि दी जाती थी. मान्यता है कि माता द्वारा पशु बलि स्वीकार ना करने पर इस पत्थर के खेल की शुरुआत हुई जो आज भी चला आ रहा है.'

रानी के आदेश के बाद हुई पत्थर मेले की शुरुआत

इस इलाके में ही रानी का एक सती स्मारक भी बना है. मान्यता है कि नरबलि पर रोक लगाने वाली रानी यहीं पर सती हुई थी. पत्थर मेले में घायल हुए व्यक्ति के लहू का तिलक इस स्मारक पर भी लगाया जाता है. रानी ने सती होने से पहले नरबलि को रोकने का जो आदेश दिया, उसके बाद से यहां ये पत्थर मेला होता है.

रानी को पसंद नहीं थी नरबलि

धामी राजपरिवार के प्रमुख जगदीप सिंह के मुताबिक, 'इस मेले का आयोजन धामी क्षेत्र की खुशहाली के लिए किया जाता है. माना जाता है कि प्राचीन समय में बुरी आत्माओं को भगाने और सुख समृद्धि के मानव बलि दी जाती थी, लेकिन 15वीं सदी में रानी ने सती होने के दौरान नरबलि को बंद करवा दिया था. उन्हें नरबलि पसंद नहीं थी. उन्होंने खुंद वंश के कटेड़ू, तुंनड़ू डगोई, जठोती को दो टोलियों में बांट दिया. नरबलि के स्थान पर दोनों टोलियों के बीच पत्थर के खेल की परंपरा शुरू हुई. इन दोनों टोलियों के बीच ही पत्थर का खेल होता है. आज तक इस खेल में कोई बड़ी गंभीर चोट किसी को नहीं लगी. खुंद वंश के अलावा अन्य लोग इस खेल में भाग नहीं लेते हैं. खुंद वंश के अलावा दूसरे लोगों के इस खेल में भाग लेने पर कोई मनाही नहीं है, लेकिन किसी भी तरह की चोट लगने की जिम्मेदारी उसकी अपनी होगी.'

खून निकलने को मानते हैं सौभाग्य

जगदीप सिंह के मुताबिक, 'मेले को देखने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं. आज तक इस मेले में हिस्सा लेने वाले लोग पत्थर से चोट लगने की परवाह नहीं करते. इस पत्थर मेले में खून निकलने को लोग अपना सौभाग्य समझते हैं. किसी व्यक्ति के खून निकलने पर उसका तिलक मंदिर में किया जाता है.'

एसआर हनोट कहते हैं कि, 'इस पत्थर मेले को देखकर या इसके बारे में सुनकर आज कई लोग इसपर सवाल उठा सकते हैं लेकिन दिवाली के अगले दिन होने वाली ये पत्थरबाजी धामी इलाके की परंपरा का हिस्सा है. हर साल इसका आयोजन होता है और बकायदा मेला लगता है. पुराने समय में हर घर से एक व्यक्ति का इस मेले में पहुंचना होता था, लेकिन समय के साथ-साथ अब इसकी बाध्यता नहीं है. इसके बावजूद भी यहां हजारों लोग पहुंचते हैं और नरबलि के खिलाफ एक रानी के दिए आदेश को आज भी निभाते हैं.'

ये भी पढ़ें: हिमाचल के इस मेले में जमकर चलते हैं पत्थर, घायल होने पर खुश होते हैं लोग

शिमला: प्राकृतिक रूप से तो हिमाचल सुंदर है ही, लेकिन यहां के रीति रिवाज, परंपराएं, मेले, त्योहार इसकी सुंदरता के मोती हैं. कुल्लू का दशहरा, मंडी की शिवरात्रि देशभर में अलग पहचान रखते हैं, लेकिन रोमांच के नजरिए से देवभूमि हिमाचल का पत्थर मेला विलक्षण माना जा सकता है. राजधानी शिमला से 30 किलोमीटर दूर धामी के हलोग में ये परंपरा बरसों से आज भी निभाई जा रही है.

इस मेले में लोग एक-दूसरे पर तब तक पत्थर मारते हैं जब तक किसी शख्स को चोट लगने के बाद उसका खून नहीं बहता. खून बहने के साथ ही पत्थर मेला समाप्त हो जाता है. दो टोलियों में पत्थर का ये खेल खेला जाता है. इसमें हार जीत कोई मायने नहीं रखती, मायने रखती है तो सिर्फ सदियों से चली आ रही परंपरा. इसका पालन कई सदियों से किया जा रहा है.

एक दूसरे पर बरसाए जाते हैं पत्थर

ये अपनी तरह का अद्भुत मेला है, जिसमें पत्थर बरसाएं जाते हैं. आज शुक्रवार को ये मेला मनाया गया. जमोगी खुंद के सुरेंद्र को पत्थर लगने के बाद उनका रक्त भद्रकाली मां को चढ़ाया गया और मेला समाप्त हो गया. दो गुटों के लोगों ने पत्थरबाजी कर इस इस परंपरा को निभाया. इस दौरान उस इलाके में मानो पत्थर की बारिश हो रही हो. लोग एक दूसरे की तरफ आसमान में पत्थर बरसा रहे थे.

खून बहने पर रुकती है पत्थरबाजी

इस पत्थरबाजी में किसी एक शख्स के घायल होने और खून निकलने पर ही ये पत्थरबाजी बंद होती है. लेखक एसआर हरनोट बताते हैं कि 'इस पत्थरबाजी में जैसे ही कोई घायल होता है तो तीन महिलाएं अपने दुपट्टे को लहराती हुई आती हैं, जो पत्थरबाजी को रोकने का संकेत है.'

क्यों होती है ये पत्थरबाजी

एस. आर. हरनोट के मुताबिक, 'इस परंपरा का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है, लेकिन मान्यता है कि राजाओं के दौर में धामी रियासत में स्थित भद्रकाली मंदिर में मानव बलि का रिवाज था. रियासत के राजा की मौत के बाद जब रानी ने सती होने का फैसला लिया तो उन्होंने यहां होने वाली मानव बलि पर रोक लगाने का आदेश दिया था, जिसके बाद एक भैंसे को लाकर उसका कान काटकर छोड़ दिया जाता था और माता भद्रकाली को सांकेतिक रूप से पशु बलि दी जाती थी. मान्यता है कि माता द्वारा पशु बलि स्वीकार ना करने पर इस पत्थर के खेल की शुरुआत हुई जो आज भी चला आ रहा है.'

रानी के आदेश के बाद हुई पत्थर मेले की शुरुआत

इस इलाके में ही रानी का एक सती स्मारक भी बना है. मान्यता है कि नरबलि पर रोक लगाने वाली रानी यहीं पर सती हुई थी. पत्थर मेले में घायल हुए व्यक्ति के लहू का तिलक इस स्मारक पर भी लगाया जाता है. रानी ने सती होने से पहले नरबलि को रोकने का जो आदेश दिया, उसके बाद से यहां ये पत्थर मेला होता है.

रानी को पसंद नहीं थी नरबलि

धामी राजपरिवार के प्रमुख जगदीप सिंह के मुताबिक, 'इस मेले का आयोजन धामी क्षेत्र की खुशहाली के लिए किया जाता है. माना जाता है कि प्राचीन समय में बुरी आत्माओं को भगाने और सुख समृद्धि के मानव बलि दी जाती थी, लेकिन 15वीं सदी में रानी ने सती होने के दौरान नरबलि को बंद करवा दिया था. उन्हें नरबलि पसंद नहीं थी. उन्होंने खुंद वंश के कटेड़ू, तुंनड़ू डगोई, जठोती को दो टोलियों में बांट दिया. नरबलि के स्थान पर दोनों टोलियों के बीच पत्थर के खेल की परंपरा शुरू हुई. इन दोनों टोलियों के बीच ही पत्थर का खेल होता है. आज तक इस खेल में कोई बड़ी गंभीर चोट किसी को नहीं लगी. खुंद वंश के अलावा अन्य लोग इस खेल में भाग नहीं लेते हैं. खुंद वंश के अलावा दूसरे लोगों के इस खेल में भाग लेने पर कोई मनाही नहीं है, लेकिन किसी भी तरह की चोट लगने की जिम्मेदारी उसकी अपनी होगी.'

खून निकलने को मानते हैं सौभाग्य

जगदीप सिंह के मुताबिक, 'मेले को देखने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं. आज तक इस मेले में हिस्सा लेने वाले लोग पत्थर से चोट लगने की परवाह नहीं करते. इस पत्थर मेले में खून निकलने को लोग अपना सौभाग्य समझते हैं. किसी व्यक्ति के खून निकलने पर उसका तिलक मंदिर में किया जाता है.'

एसआर हनोट कहते हैं कि, 'इस पत्थर मेले को देखकर या इसके बारे में सुनकर आज कई लोग इसपर सवाल उठा सकते हैं लेकिन दिवाली के अगले दिन होने वाली ये पत्थरबाजी धामी इलाके की परंपरा का हिस्सा है. हर साल इसका आयोजन होता है और बकायदा मेला लगता है. पुराने समय में हर घर से एक व्यक्ति का इस मेले में पहुंचना होता था, लेकिन समय के साथ-साथ अब इसकी बाध्यता नहीं है. इसके बावजूद भी यहां हजारों लोग पहुंचते हैं और नरबलि के खिलाफ एक रानी के दिए आदेश को आज भी निभाते हैं.'

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Last Updated : 2 hours ago
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