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छत्तीसगढ़ में दलबदलू नेताओं का इतिहास,जानिए कितनी पैदा करते हैं अपने दल की मुश्किलें - Lok Sabha Election 2024 - LOK SABHA ELECTION 2024

छत्तीसगढ़ में लोकसभा चुनाव को लेकर राजनीतिक दल अपना खेमा मजबूत करने में जुटे हैं.लेकिन इसी खेमे में कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो अपने हाथों में आरी लेकर तंबू के बंबू को काटने का काम करने में जुट जाते हैं.इनको बस तलाश है उस मौके की जो इन्हें इनकी पार्टी ने नहीं दिया.यदि वक्त रहते पार्टी ने ऐसे नेता और कार्यकर्ताओं को साध लिया तो सब ठीक,लेकिन यदि ऐसा नहीं हुआ तो अपनी ही पार्टी से दुखी ये नेता दल बदलने में जरा भी देर नहीं करते.

Lok Sabha Election 2024
छत्तीसगढ़ में दलबदलू नेताओं का इतिहास
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By ETV Bharat Chhattisgarh Team

Published : Apr 6, 2024, 7:20 PM IST

दलबदलू नेताओं से पार्टी को कितना नुकसान

बिलासपुर : छत्तीसगढ़ में लोकसभा चुनाव का आगाज होते ही दल बदलने का एक दौर शुरू हो गया है. कांग्रेस की सत्ता जाने के बाद कई कांग्रेसी नेता बीजेपी में प्रवेश कर रहे हैं. हाल ही में बिलासपुर लोकसभा के बेलतरा में हुए बीजेपी कार्यकर्ता सम्मेलन में सीएम विष्णुदेव साय के सामने कांग्रेस और अन्य दलों के लगभग 15 सौ कार्यकर्ता और पदाधिकारियों ने भगवा चोला ओढ़ लिया. इसी दिन रायपुर में बिलासपुर की पूर्व महापौर और कांग्रेस उपाध्यक्ष वाणी राव ने भी बीजेपी की सदस्यता ले ली. आपको बता दें पार्टी बदलने में छत्तीसगढ़ के नेताओं का पुराना इतिहास रहा है. केंद्रीय नेता हो या फिर राज्य के बड़े चेहरे कई लोगों ने अपने दलों से किनारा किया,लेकिन कुछ समय बाद जब नई पार्टी से मोह भंग हुआ तो वापस अपने खेमे में आ गए.आज कई नेता दोबारा अपनी पार्टियों में राजनीति कर रहे हैं,तो कई नेता ऐसा हैं जिनका कोई आधार नहीं बचा है.

कांग्रेस के लिए क्यों है खतरे की घंटी : लोकसभा चुनाव से पहले नेताओं और समर्थकों के दल बदलने के कारण पार्टियों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. लोकसभा चुनाव होने से पहले अब तक हजारों कांग्रेसी बीजेपी की सदस्यता ले चुके हैं.ऐसे में चुनाव में कांग्रेस को नुकसान उठाना पड़ सकता है.अब जनता के मन में भी सवाल उठने लगे हैं. ये चर्चाएं जोरों पर है कि लगातार टूट रही कांग्रेस के लिए आने वाला समय कैसा होगा.क्या सत्ता पक्ष विपक्ष को पूरी तरह से खत्म कर देगी.क्या लगातार बड़े नेताओं का पार्टी से जाना कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी है.इस सभी सवालों का जवाब जानने के लिए ईटीवी भारत ने राजनीति के जानकारों से राय ली. राजनीतिक जानकर इस तरह के मामलों में कहते हैं कि पार्टी छोड़ने वाले नेताओं में कई उदाहरण हैं. जिनमें पार्टी छोड़ने के बाद उनका राजनीतिक अस्तित्व ही खत्म हो गया.लेकिन कई नेता ऐसे हैं जिन्होंने दल बदला फिर भी हार का स्वाद नहीं चखा.


पार्टी बदलने पर नहीं मिला सम्मान : राजनीति के जानकार राजेश अग्रवाल का कहना है कि पार्टी बदलना अब साधारण सी बात हो गई है. छत्तीसगढ़ में भी दल बदल का बहुत लंबा इतिहास रहा है. राज्य बनने के बाद जैसा कि आप देखते हैं कि विद्या चरण शुक्ला पहले कांग्रेस में थे, फिर 2003 में उन्होंने कांग्रेस छोड़कर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में चले गए थे, फिर उन्हें कुछ ऐसा सुझा कि राज्य में बीजेपी की सरकार आ गई तो वो बीजेपी में शामिल हो गए. जब 2003 का चुनाव हुआ तो कांग्रेस हार गई. तब माना गया था कि विद्याचरण शुक्ल की एनसीपी ने 90 विधानसभाओं में अपने प्रत्याशी खड़े किए थे.इस वजह से कांग्रेस की हार हुई.इसके बाद विद्याचरण शुक्ल बीजेपी में चले गए.लेकिन लोकसभा चुनाव हारने के बाद वापस कांग्रेस ज्वाइन कर ली.

करुणा शुक्ला और नंदकुमार साय का भी हाल हुआ बुरा : इसके बाद यही हाल करुणा शुक्ला का भी रहा. वह वर्षों तक बीजेपी में रही. करुणा शुक्ला और विद्या चरण शुक्ला दोनों अपनी पार्टी में वर्षों तक रहकर बड़े-बड़े पद हासिल किए. नंदकुमार साय बीजेपी की सरकार में केंद्र में अच्छे पदों पर रहे. राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति के अध्यक्ष भी रहे. अब नंदकुमार साय ने कांग्रेस में जाकर वहां से भी इस्तीफा दे दिया. अभी बीजेपी ने उन्हें स्वीकार नहीं किया है. इसी तरह इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में रहे आदिवासी नेता अरविंद नेताम कांग्रेस छोड़ बसपा में गए और बसपा से फिर कांग्रेस में आ गए. अब अपनी एक पार्टी हमर राज पार्टी बनाई है. इस तरह से दल बदलने का बड़ा इतिहास रहा है.

''जब कोई नेता लंबे समय तक पार्टी में रहता है और विभिन्न पद और सम्मान उन्हें मिलते रहता है तो उनकी महत्वाकांक्षाएं और बढ़ जाती है और वह उन महत्वाकांक्षाओं में यह सोचने लगता है कि उसे पार्टी से और ज्यादा मिलने की सोचने लगते है.'' राजेश अग्रवाल, राजनीति के जानकार


अपनी पार्टी में ही मिलता है सम्मान : प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रवक्ता अभय नारायण राय का कहना है कि नेताओं की महत्वाकांक्षा यदि बढ़ जाती है तो वह और ज्यादा सम्मान की उम्मीद रखते हैं. बहुत ही कम ऐसे लोग हैं जो नई पार्टी में अर्जेस्ट हो पाते हैं. नहीं तो वह कुछ समय बिताने के बाद वापस हो जाते हैं. छत्तीसगढ़ में भी कई ऐसे बड़े नेता हैं जो पार्टी छोड़ने के बाद वापस घूम कर अपनी पार्टी में आ गए हैं. जितना सम्मान उन्हें अपनी पुरानी पार्टी में मिलता है उतना सम्मान नई पार्टी में नहीं मिलता. यही कारण है कि नेता दल तो बदल लेते हैं लेकिन जिसकी तलाश में वो जाते हैं वो उन्हें नहीं मिलता.

बीजेपी का दावा हर किसी का होता है सम्मान : वहीं भारतीय जनता पार्टी के बिलासपुर जिला अध्यक्ष रामदेव कुमावत का कहना है कि जितने भी कांग्रेस के नेता उनकी पार्टी में आए हैं उनका बराबर सम्मान किए हैं. जितना सम्मान उन्हें मिलना चाहिए वह सम्मान उन्हें दिया जाता है. अब कोई पार्टी में आने के बाद यदि वापस चला जाता है तो उसकी अपनी सूझबूझ पर निर्भर करता है. हो सकता है कि जनप्रतिनिधि जो महत्वाकांक्षा लेकर आया हो उसे ना मिले. यही वजह है कि पार्टी में नेताओं का आना-जाना लगा होता है, लेकिन पार्टी का सिद्धांत हमेशा एक जैसा ही रहता है.


क्या है दलबदलू नेताओं का इतिहास ?: दल बदलने के इतिहास की बात करें तो प्रदेश के सबसे बड़े नेता विद्याचरण शुक्ल ने सीएम ना बनाए जाने पर पार्टी बदली थी.ठीक इसी समय पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने बीजेपी के 13 विधायकों को कांग्रेस में शामिल किया था.इन 13 चेहरों में ऐसे कई नाम थे जो प्रदेश में बड़ा चेहरा थे.इन लोगों में रायगढ़ के विधायक शक्राजीत नायक, पालीतानाखार के विधायक रामदयाल उइके, रायपुर के महापौर तरुण चटर्जी, बिलासपुर जिले के मस्तूरी विधायक मदनलाल डहरिया जैसे नाम शामिल हैं. इसके बाद कई बड़े नेताओं ने पार्टी बदली जिनमें पूर्व केंद्रीय मंत्री अरविंद नेताम, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की भतीजी करुणा शुक्ला, पूर्व राष्ट्रीय जनजाति आयोग के अध्यक्ष नंदकुमार साय, बिलासपुर की पूर्व महापौर वाणी राव जैसे नाम शामिल हैं. इनमें कई ऐसे नेता भी हैं जो पार्टी बदलने के बाद भी अपनी जीत दर्ज करते रहे हैं. इनमें कांग्रेस सरकार में विधानसभा उपाध्यक्ष रहे धरमजीत सिंह हैं. जो कांग्रेस से पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी की पार्टी छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस जोगी में शामिल हुए. तब भी वो चुनाव जीते थे और इसके बाद वह पिछले विधानसभा चुनाव में जनता कांग्रेस छोड़कर धरमजीत बीजेपी में शामिल हुए.एक बार फिर धरमजीत तखतपुर से चुनाव जीते.

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दलबदलू नेताओं से पार्टी को कितना नुकसान

बिलासपुर : छत्तीसगढ़ में लोकसभा चुनाव का आगाज होते ही दल बदलने का एक दौर शुरू हो गया है. कांग्रेस की सत्ता जाने के बाद कई कांग्रेसी नेता बीजेपी में प्रवेश कर रहे हैं. हाल ही में बिलासपुर लोकसभा के बेलतरा में हुए बीजेपी कार्यकर्ता सम्मेलन में सीएम विष्णुदेव साय के सामने कांग्रेस और अन्य दलों के लगभग 15 सौ कार्यकर्ता और पदाधिकारियों ने भगवा चोला ओढ़ लिया. इसी दिन रायपुर में बिलासपुर की पूर्व महापौर और कांग्रेस उपाध्यक्ष वाणी राव ने भी बीजेपी की सदस्यता ले ली. आपको बता दें पार्टी बदलने में छत्तीसगढ़ के नेताओं का पुराना इतिहास रहा है. केंद्रीय नेता हो या फिर राज्य के बड़े चेहरे कई लोगों ने अपने दलों से किनारा किया,लेकिन कुछ समय बाद जब नई पार्टी से मोह भंग हुआ तो वापस अपने खेमे में आ गए.आज कई नेता दोबारा अपनी पार्टियों में राजनीति कर रहे हैं,तो कई नेता ऐसा हैं जिनका कोई आधार नहीं बचा है.

कांग्रेस के लिए क्यों है खतरे की घंटी : लोकसभा चुनाव से पहले नेताओं और समर्थकों के दल बदलने के कारण पार्टियों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. लोकसभा चुनाव होने से पहले अब तक हजारों कांग्रेसी बीजेपी की सदस्यता ले चुके हैं.ऐसे में चुनाव में कांग्रेस को नुकसान उठाना पड़ सकता है.अब जनता के मन में भी सवाल उठने लगे हैं. ये चर्चाएं जोरों पर है कि लगातार टूट रही कांग्रेस के लिए आने वाला समय कैसा होगा.क्या सत्ता पक्ष विपक्ष को पूरी तरह से खत्म कर देगी.क्या लगातार बड़े नेताओं का पार्टी से जाना कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी है.इस सभी सवालों का जवाब जानने के लिए ईटीवी भारत ने राजनीति के जानकारों से राय ली. राजनीतिक जानकर इस तरह के मामलों में कहते हैं कि पार्टी छोड़ने वाले नेताओं में कई उदाहरण हैं. जिनमें पार्टी छोड़ने के बाद उनका राजनीतिक अस्तित्व ही खत्म हो गया.लेकिन कई नेता ऐसे हैं जिन्होंने दल बदला फिर भी हार का स्वाद नहीं चखा.


पार्टी बदलने पर नहीं मिला सम्मान : राजनीति के जानकार राजेश अग्रवाल का कहना है कि पार्टी बदलना अब साधारण सी बात हो गई है. छत्तीसगढ़ में भी दल बदल का बहुत लंबा इतिहास रहा है. राज्य बनने के बाद जैसा कि आप देखते हैं कि विद्या चरण शुक्ला पहले कांग्रेस में थे, फिर 2003 में उन्होंने कांग्रेस छोड़कर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में चले गए थे, फिर उन्हें कुछ ऐसा सुझा कि राज्य में बीजेपी की सरकार आ गई तो वो बीजेपी में शामिल हो गए. जब 2003 का चुनाव हुआ तो कांग्रेस हार गई. तब माना गया था कि विद्याचरण शुक्ल की एनसीपी ने 90 विधानसभाओं में अपने प्रत्याशी खड़े किए थे.इस वजह से कांग्रेस की हार हुई.इसके बाद विद्याचरण शुक्ल बीजेपी में चले गए.लेकिन लोकसभा चुनाव हारने के बाद वापस कांग्रेस ज्वाइन कर ली.

करुणा शुक्ला और नंदकुमार साय का भी हाल हुआ बुरा : इसके बाद यही हाल करुणा शुक्ला का भी रहा. वह वर्षों तक बीजेपी में रही. करुणा शुक्ला और विद्या चरण शुक्ला दोनों अपनी पार्टी में वर्षों तक रहकर बड़े-बड़े पद हासिल किए. नंदकुमार साय बीजेपी की सरकार में केंद्र में अच्छे पदों पर रहे. राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति के अध्यक्ष भी रहे. अब नंदकुमार साय ने कांग्रेस में जाकर वहां से भी इस्तीफा दे दिया. अभी बीजेपी ने उन्हें स्वीकार नहीं किया है. इसी तरह इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में रहे आदिवासी नेता अरविंद नेताम कांग्रेस छोड़ बसपा में गए और बसपा से फिर कांग्रेस में आ गए. अब अपनी एक पार्टी हमर राज पार्टी बनाई है. इस तरह से दल बदलने का बड़ा इतिहास रहा है.

''जब कोई नेता लंबे समय तक पार्टी में रहता है और विभिन्न पद और सम्मान उन्हें मिलते रहता है तो उनकी महत्वाकांक्षाएं और बढ़ जाती है और वह उन महत्वाकांक्षाओं में यह सोचने लगता है कि उसे पार्टी से और ज्यादा मिलने की सोचने लगते है.'' राजेश अग्रवाल, राजनीति के जानकार


अपनी पार्टी में ही मिलता है सम्मान : प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रवक्ता अभय नारायण राय का कहना है कि नेताओं की महत्वाकांक्षा यदि बढ़ जाती है तो वह और ज्यादा सम्मान की उम्मीद रखते हैं. बहुत ही कम ऐसे लोग हैं जो नई पार्टी में अर्जेस्ट हो पाते हैं. नहीं तो वह कुछ समय बिताने के बाद वापस हो जाते हैं. छत्तीसगढ़ में भी कई ऐसे बड़े नेता हैं जो पार्टी छोड़ने के बाद वापस घूम कर अपनी पार्टी में आ गए हैं. जितना सम्मान उन्हें अपनी पुरानी पार्टी में मिलता है उतना सम्मान नई पार्टी में नहीं मिलता. यही कारण है कि नेता दल तो बदल लेते हैं लेकिन जिसकी तलाश में वो जाते हैं वो उन्हें नहीं मिलता.

बीजेपी का दावा हर किसी का होता है सम्मान : वहीं भारतीय जनता पार्टी के बिलासपुर जिला अध्यक्ष रामदेव कुमावत का कहना है कि जितने भी कांग्रेस के नेता उनकी पार्टी में आए हैं उनका बराबर सम्मान किए हैं. जितना सम्मान उन्हें मिलना चाहिए वह सम्मान उन्हें दिया जाता है. अब कोई पार्टी में आने के बाद यदि वापस चला जाता है तो उसकी अपनी सूझबूझ पर निर्भर करता है. हो सकता है कि जनप्रतिनिधि जो महत्वाकांक्षा लेकर आया हो उसे ना मिले. यही वजह है कि पार्टी में नेताओं का आना-जाना लगा होता है, लेकिन पार्टी का सिद्धांत हमेशा एक जैसा ही रहता है.


क्या है दलबदलू नेताओं का इतिहास ?: दल बदलने के इतिहास की बात करें तो प्रदेश के सबसे बड़े नेता विद्याचरण शुक्ल ने सीएम ना बनाए जाने पर पार्टी बदली थी.ठीक इसी समय पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने बीजेपी के 13 विधायकों को कांग्रेस में शामिल किया था.इन 13 चेहरों में ऐसे कई नाम थे जो प्रदेश में बड़ा चेहरा थे.इन लोगों में रायगढ़ के विधायक शक्राजीत नायक, पालीतानाखार के विधायक रामदयाल उइके, रायपुर के महापौर तरुण चटर्जी, बिलासपुर जिले के मस्तूरी विधायक मदनलाल डहरिया जैसे नाम शामिल हैं. इसके बाद कई बड़े नेताओं ने पार्टी बदली जिनमें पूर्व केंद्रीय मंत्री अरविंद नेताम, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की भतीजी करुणा शुक्ला, पूर्व राष्ट्रीय जनजाति आयोग के अध्यक्ष नंदकुमार साय, बिलासपुर की पूर्व महापौर वाणी राव जैसे नाम शामिल हैं. इनमें कई ऐसे नेता भी हैं जो पार्टी बदलने के बाद भी अपनी जीत दर्ज करते रहे हैं. इनमें कांग्रेस सरकार में विधानसभा उपाध्यक्ष रहे धरमजीत सिंह हैं. जो कांग्रेस से पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी की पार्टी छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस जोगी में शामिल हुए. तब भी वो चुनाव जीते थे और इसके बाद वह पिछले विधानसभा चुनाव में जनता कांग्रेस छोड़कर धरमजीत बीजेपी में शामिल हुए.एक बार फिर धरमजीत तखतपुर से चुनाव जीते.

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