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Rajasthan: अनूठी परंपरा: पूर्वजों का श्राद्ध एवं तर्पण कर गुर्जर समाज मनाता है दीपावली - UNIQUE TRADITION ON DIWALI

गुर्जर समाज दीपावली मनाने से पहले अपने पूर्वजों का श्राद्ध एवं तर्पण करता है. यह परंपरा समाज के लोग लम्बे समय से निभाते आए हैं.

Unique Tradition on Diwali
गुर्जरों की दीवाली की परंपरा (ETV Bharat Ajmer)
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By ETV Bharat Rajasthan Team

Published : Oct 31, 2024, 2:29 PM IST

अजमेर: समाज में एक ऐसा वर्ग भी है जो पूर्वजों का श्राद्ध एवं तर्पण कर दीपावली मनाता है. हम बात कर रहे हैं गुर्जर समाज की उस अनूठी परंपरा की जिससे समाज के लोग आज भी श्रद्धा के साथ निभा रहे हैं. जी हां, गुर्जर समाज दीपावली पर सामूहिक रूप से झील, नदी, तालाब, कुएं के पास अपने पूर्वजों का श्राद्ध एवं तर्पण कर काचरे की बेल भी लगाते हैं. मान्यता है कि इस बेल को छूने से उनके परिवार की वंशावली बेल भी भगवान देव नारायण और पूर्वजों के आशीर्वाद से बढ़ती रहेगी.

प्राचीन समय से ही गुर्जर समाज पशुपालन एवं दुग्ध व्यवसाय करता आया है. कई बार अकाल पडने पर गुर्जर समाज के लोग दूर अन्य राज्यों में भी अपने पशुओं को चराने चले जाते थे. दीपावली का ही एक ऐसा अवसर होता था, जब पशुपालक अपने घर लौटते थे. हिंदू धर्म के अनुसार 15 दिन के श्राद्ध पक्ष को गुर्जर समाज नहीं मना पाता था. लिहाजा गुर्जर समाज ने एक ही दिन पूर्वजों का श्राद्ध मनाना तय कर लिया. तब से यह परंपरा बन गई है.

पढ़ें: झुंझुनू के सत्यनारायण भगवान मंदिर में निभाई गई अनूठी परंपरा - Lord Krishna Chhathi

ऐसे शुरू हुई यह अनूठी परंपरा: राजस्थान गुर्जर महासभा के उपाध्यक्ष हरि सिंह गुर्जर ने बताया कि गुर्जर समाज उत्तर भारत में ही नहीं बल्कि दक्षिण तक फैला हुआ है. भगवान राम जब लंका विजय कर अयोध्या लौटे थे, तो सबसे पहले उन्होंने अपने पिता महाराजा दशरथ का श्राद्ध किया था. इस दौरान कई लोगों ने भगवान राम को अपने पिता का श्राद्ध करते हुए देखा था. इनमें पशुपालक गुर्जर समाज के लोग भी शामिल थे. तब से ही गुर्जर समाज ने दीपावली के पावन दिन को ही पूर्वजों के श्राद्ध के लिए निर्धारित कर लिया.

गुर्जर ने बताया कि जहां कहीं भी गुर्जर समाज के लोग रहते हैं, वे दीपावली के दिन खीर चूरमा का भोग बनाते हैं. थाली में भोग लेकर सभी परिवार के लोग झील तालाब, नदी किनारे या कुएं पर एकत्रित होते हैं. उसके बाद सभी की थाली से थोड़ा-थोड़ा भोग एक थाली में निकाल लिया जाता है. सभी लोग मिलकर अपने पूर्वजों को याद करते हैं. उसके बाद घास की एक बेल बनाई जाती है जिसे पानी में डाला जाता है और परिवार के लोग इस बेल को हाथों से छूते हैं.

पढ़ें: होली पर अनूठी परंपरा : यहां शोक दूर करने के लिए रात में गाते हैं होली के गीत - Unique Tradition

मान्यता है कि बेल को छूने से भगवान देवनारायण और पूर्वजों का उन्हें आशीर्वाद मिलता है. उन्होंने बताया कि नदी, तालाब नहीं होने पर खेत के कुएं से धोरे में पानी निकाल कर भी श्राद्ध मनाने की परंपरा का निर्वहन किया जाता है. पूर्वजों को भोग लगाने के बाद समाज के लोग आपस में मिलकर वहीं पर भोजन भी करते हैं. उन्होंने बताया कि एक जगह परिवार और रिश्तेदारों को एकत्रित होने का अवसर मिलता है. इससे परिवार में मेल-जोल बढ़ता है और समाज संगठित होता है.

पढ़ें: एक ऐसा मंदिर जहां आदिवासी लूट ले जाते हैं प्रभु का भोग, अनूठी है यह 350 साल पुरानी परंपरा

स्थानीय गुर्जर समाज से रोहिताश गुर्जर ने बताया कि पीढ़ी दर पीढ़ी दीपावली के दिन पूर्वजों का श्राद्ध एवं तर्पण किये जाने की परंपरा गुर्जर समाज में सदियों से है. अजमेर जिले में जहां भी गांव-ढाणी में गुर्जर समाज के लोग रहते हैं. वह दीपावली के दिन अपने पूर्वजों को याद करना और उनका श्राद्ध मनाना नहीं भूलते हैं. हमने अपने पिता और दादा के समय से ही परिवार में दीपावली के दिन पूर्वजों का श्राद्ध मनाने की परंपरा देखी है. इस दिन कुटुम्ब में जितने भी दादा, भाई, चाचा, ताऊ का परिवार है. वे सभी लोग एक जगह पर पूर्वजों का आशीर्वाद लेकर एक-दूसरे के घरों में बनाया हुआ भोजन आपस में मिलकर प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं. इससे आपस में प्रेम बढ़ता है. उन्होंने बताया कि इस दौरान काचरे की बेल भी लगाई जाती है. माना जाता है कि जिस प्रकार काचरे की बेल बढ़ती है, उसी प्रकार उनका वंश भी बढ़ता रहे.

अजमेर: समाज में एक ऐसा वर्ग भी है जो पूर्वजों का श्राद्ध एवं तर्पण कर दीपावली मनाता है. हम बात कर रहे हैं गुर्जर समाज की उस अनूठी परंपरा की जिससे समाज के लोग आज भी श्रद्धा के साथ निभा रहे हैं. जी हां, गुर्जर समाज दीपावली पर सामूहिक रूप से झील, नदी, तालाब, कुएं के पास अपने पूर्वजों का श्राद्ध एवं तर्पण कर काचरे की बेल भी लगाते हैं. मान्यता है कि इस बेल को छूने से उनके परिवार की वंशावली बेल भी भगवान देव नारायण और पूर्वजों के आशीर्वाद से बढ़ती रहेगी.

प्राचीन समय से ही गुर्जर समाज पशुपालन एवं दुग्ध व्यवसाय करता आया है. कई बार अकाल पडने पर गुर्जर समाज के लोग दूर अन्य राज्यों में भी अपने पशुओं को चराने चले जाते थे. दीपावली का ही एक ऐसा अवसर होता था, जब पशुपालक अपने घर लौटते थे. हिंदू धर्म के अनुसार 15 दिन के श्राद्ध पक्ष को गुर्जर समाज नहीं मना पाता था. लिहाजा गुर्जर समाज ने एक ही दिन पूर्वजों का श्राद्ध मनाना तय कर लिया. तब से यह परंपरा बन गई है.

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ऐसे शुरू हुई यह अनूठी परंपरा: राजस्थान गुर्जर महासभा के उपाध्यक्ष हरि सिंह गुर्जर ने बताया कि गुर्जर समाज उत्तर भारत में ही नहीं बल्कि दक्षिण तक फैला हुआ है. भगवान राम जब लंका विजय कर अयोध्या लौटे थे, तो सबसे पहले उन्होंने अपने पिता महाराजा दशरथ का श्राद्ध किया था. इस दौरान कई लोगों ने भगवान राम को अपने पिता का श्राद्ध करते हुए देखा था. इनमें पशुपालक गुर्जर समाज के लोग भी शामिल थे. तब से ही गुर्जर समाज ने दीपावली के पावन दिन को ही पूर्वजों के श्राद्ध के लिए निर्धारित कर लिया.

गुर्जर ने बताया कि जहां कहीं भी गुर्जर समाज के लोग रहते हैं, वे दीपावली के दिन खीर चूरमा का भोग बनाते हैं. थाली में भोग लेकर सभी परिवार के लोग झील तालाब, नदी किनारे या कुएं पर एकत्रित होते हैं. उसके बाद सभी की थाली से थोड़ा-थोड़ा भोग एक थाली में निकाल लिया जाता है. सभी लोग मिलकर अपने पूर्वजों को याद करते हैं. उसके बाद घास की एक बेल बनाई जाती है जिसे पानी में डाला जाता है और परिवार के लोग इस बेल को हाथों से छूते हैं.

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मान्यता है कि बेल को छूने से भगवान देवनारायण और पूर्वजों का उन्हें आशीर्वाद मिलता है. उन्होंने बताया कि नदी, तालाब नहीं होने पर खेत के कुएं से धोरे में पानी निकाल कर भी श्राद्ध मनाने की परंपरा का निर्वहन किया जाता है. पूर्वजों को भोग लगाने के बाद समाज के लोग आपस में मिलकर वहीं पर भोजन भी करते हैं. उन्होंने बताया कि एक जगह परिवार और रिश्तेदारों को एकत्रित होने का अवसर मिलता है. इससे परिवार में मेल-जोल बढ़ता है और समाज संगठित होता है.

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स्थानीय गुर्जर समाज से रोहिताश गुर्जर ने बताया कि पीढ़ी दर पीढ़ी दीपावली के दिन पूर्वजों का श्राद्ध एवं तर्पण किये जाने की परंपरा गुर्जर समाज में सदियों से है. अजमेर जिले में जहां भी गांव-ढाणी में गुर्जर समाज के लोग रहते हैं. वह दीपावली के दिन अपने पूर्वजों को याद करना और उनका श्राद्ध मनाना नहीं भूलते हैं. हमने अपने पिता और दादा के समय से ही परिवार में दीपावली के दिन पूर्वजों का श्राद्ध मनाने की परंपरा देखी है. इस दिन कुटुम्ब में जितने भी दादा, भाई, चाचा, ताऊ का परिवार है. वे सभी लोग एक जगह पर पूर्वजों का आशीर्वाद लेकर एक-दूसरे के घरों में बनाया हुआ भोजन आपस में मिलकर प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं. इससे आपस में प्रेम बढ़ता है. उन्होंने बताया कि इस दौरान काचरे की बेल भी लगाई जाती है. माना जाता है कि जिस प्रकार काचरे की बेल बढ़ती है, उसी प्रकार उनका वंश भी बढ़ता रहे.

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