नालंदा: वैसे तो होली का नाम लेते ही रंग गुलाल और हुड़दंग याद आता है लेकिन बिहार के नालंदा जिले के 5 गांवों में होली मनाने की परंपरा काफी अलग है. होली के दिन ग्रामीण रंग गुलाल और हुड़दंग नहीं बल्कि भक्ति में लीन रहते हैं. यहां होली के दिन चूल्हा भी नहीं जलता है. लोग शुद्ध शाकाहारी बासी खाना खाते हैं. मांस मदिरा पर पूर्ण प्रतिबंध होता है. गांव में फूहड़ गीत भी नहीं बजते हैं. ये सदर प्रखंड बिहार शरीफ से सटे पतुआना, बासवन बीघा, ढिबरापर, नकतपुरा और डेढ़धरा गांव हैं.
51 साल पुरानी है परंपरा: यहां के स्थानीय लोग बताते हैं कि यह परंपरा वर्षों पुरानी है, जो 51 साल से चली आ रही है. एक सिद्ध पुरुष संत बाबा उस जमाने में गांव में आए वो यहां झाड़फूंक करते थे. आज जिनके नाम से एक मंदिर गांव में है. जहां दूर दराज से श्रद्धालु आस्था के साथ मत्था टेकने पहुंचते हैं. उनकी 20 साल पहले मृत्यु हो गई. उन्होंने लोगों से कहा कि यह कैसा त्योहार है जिसमें लोग नशा करते हैं और फूहड़ गीत के साथ नशे में झूमते हैं. इससे बेहतर है कि त्योहार के दिन भगवान को याद किया जाए.
कैसे मनाई जाती है होली: संत ने कहा कि नशा करने से झगड़ा और फसाद होगा. इसलिए बढ़िया यह है कि आपसी सौहार्द और भाईचारा रखने के लिए अखंड पूजा की जाए. जिससे शांति और समृद्धी के साथ जीवन व्यतीत हो. उसके बाद से यह परंपरा अब तक चली आ रही है. इसमें खास बात यह है कि धार्मिक अनुष्ठान शुरू होने से पहले ग्रामीण घरों में मीठा व शुद्ध शाकाहारी भोजन बनाकर तैयार कर लेते हैं. जब तक अखंड का समापन नहीं होता घर में चूल्हा और धुआं निकलना वर्जित रहता है.
"होली के दिन लोग नशा और फूहड़ गीतों पर नहीं झूमते हैं. गांव के लोग नमक के इस्तेमाल से भी बचते हैं. भले ही हर जगह होली में रंगों की बौछार हो. नालंदा के इस्पात गांव में होली के दिन यह परंपरा पूर्वजों से चली आ रही है जो अब तक जारी है."-रणविजय यादव, ग्रामीण