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Rajasthan: अलवर के इस मोहल्ले का नाम क्यों पड़ा दारूकुटा, राजघराने से 40 साल रहा संबंध

अलवर में एक मोहल्ले का नाम दारूकुटा है. इसके पीछे राजघराने से वर्षों पुराना संबंध है. आइए जानते हैं इसके पीछे का राज...

Darukutta Mohalla In Alwar
अलवर का दारूकुटा मोहल्ला (ETV Bharat Alwar)
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By ETV Bharat Rajasthan Team

Published : 2 hours ago

अलवर: राजशाही जमाने में दीपावली का पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जाता था. इस पर्व पर राज परिवार की ओर से रंगीन आतिशबाजी की जाती थी. इसके लिए वर्तमान में शहर के बीच में स्थित दारूकुटा मोहल्ला सबसे चर्चित रहता था. कारण है कि राजपरिवार के लिए दारूकुटा मोहल्ले में आतिशबाजी तैयार की जाती थी. करीब 40 वर्षों तक राजघराने के लिए यहां आतिशबाजी बनाने का कार्य चलता रहा. हालांकि आज भी यह जगह दारूकुटा मोहल्ले के नाम से ही चर्चित है, जबकि आतिशबाजी बनाने का कार्य अब बंद हो गया है.

अलवर का दारूकुटा मोहल्ला राजघराने के समय से है चर्चित (ETV Bharat Alwar)

दारूकुटा मोहल्ला के स्थानीय निवासी नरेश कुमार ने बताया कि यह जगह राजा-महाराजाओं के समय से दारूकुटा मोहल्ले के नाम से चर्चित रही है. यहां पर राजशाही जमाने के समय में आतिशबाजी तैयार की जाती रही. साथ ही राजा-महाराजाओं का असला-बारूद भी इन्हीं लोगों द्वारा तैयार किया जाता था.

पढ़ें: Rajasthan: जैसलमेर में हटड़ी पूजन बिना अधूरा है दीपोत्सव, आज भी होता है परम्परा का निर्वहन

सामान बनाने परिवारों को बोला जाता था दारुकूटनिया: नरेश कुमार ने बताया कि राजा-महाराजाओं के लिए असला-बारूद व आतिशबाजी बनाने के लिए करीब 20 से 22 परिवार कार्य करते थे. उस समय सभी समान को पहले हाथों से कूटा जाता था, इसी के बाद सब तैयार होता था. इसके चलते इन परिवारों व लोगों का नाम दारूकुटनिया कहा जाता था. इसलिए इस जगह का नाम भी दारुकुटा पड़ गया. उन्होंने बताया कि बारूद से आतिशबाजी व असला बनाने का कार्य यहां पर करीब 40 सालों तक चला.

पढ़ें: Rajasthan: इस महालक्ष्मी मंदिर से जुड़ी है लोगों की अटूट आस्था, दीपावली पर लोग करते हैं दीपदान

नाम अब भी वही, काम हुआ बंद: इतिहासकार हरिशंकर गोयल ने बताया कि आज इस मोहल्ले में सभी वर्ग के लोग भाईचारे के साथ रहते हैं. लेकिन आज भी इस मोहल्ले को दारूकुटा मोहल्ला के नाम से जाना जाता है, जबकि दारू कूटने का कार्य (बारूद के सामान बनाने का कार्य) कई सालों पहले बंद हो गया है. आज भी उन परिवारों की पीढ़ी इस मोहल्ले में रहती है, लेकिन जीवनयापन के लिए अब वे भी अलग कार्य व व्यवसाय करते हैं.

पढ़ें: Rajasthan: ज्योतिषाचार्य बोले- पंचपर्वा की जगह षष्ठी को मनाएं दीपावली, व्यापारियों ने कही ये बात

इतिहासकार हरिशंकर गोयल ने बताया कि ऐतिहासिक समय में दीपावली पर्व पर राजा-महाराजाओं के पास प्रजा जाकर दीपोत्सव का त्योहार मनाती थी. उन्होंने बताया खासतौर पर जागीरदार, राजघराने के प्रमुख व्यक्ति व कर्मचारी दीपावली के समय अपनी राजा को बधाई देने मिठाई की टोकरी व फल लेकर के लिए जाते थे. साथ ही उस समय जो धनराशि चलती थी, उसका कुछ हिस्सा भेंट स्वरूप देते थे.

यह भी कहा जाता है कि राजा अपने प्रजा का उपहार को हाथ लगाकर उन्हें वापस लौटा देते थे. साथ ही अपनी तरफ से भी उपहार दिए जाते थे, यह परंपरा कई सालों तक अलवर में चली. हरिशंकर गोयल ने बताया जब महाराजाओं के पास ब्राह्मण जाते थे, तो उनका आदर सत्कार किया जाता था. साथ ही ब्राह्मणों द्वारा श्लोक भी महाराजाओं को सुनाए जाते थे. ब्राह्मणों द्वारा जब उन्हें आशीर्वाद दिया जाता था, तब राज परिवार की ओर से ब्राह्मणों को भेंट की तौर पर मिठाई व उस समय में चलने वाले चांदी के सिक्के दिए जाते थे.

अलवर: राजशाही जमाने में दीपावली का पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जाता था. इस पर्व पर राज परिवार की ओर से रंगीन आतिशबाजी की जाती थी. इसके लिए वर्तमान में शहर के बीच में स्थित दारूकुटा मोहल्ला सबसे चर्चित रहता था. कारण है कि राजपरिवार के लिए दारूकुटा मोहल्ले में आतिशबाजी तैयार की जाती थी. करीब 40 वर्षों तक राजघराने के लिए यहां आतिशबाजी बनाने का कार्य चलता रहा. हालांकि आज भी यह जगह दारूकुटा मोहल्ले के नाम से ही चर्चित है, जबकि आतिशबाजी बनाने का कार्य अब बंद हो गया है.

अलवर का दारूकुटा मोहल्ला राजघराने के समय से है चर्चित (ETV Bharat Alwar)

दारूकुटा मोहल्ला के स्थानीय निवासी नरेश कुमार ने बताया कि यह जगह राजा-महाराजाओं के समय से दारूकुटा मोहल्ले के नाम से चर्चित रही है. यहां पर राजशाही जमाने के समय में आतिशबाजी तैयार की जाती रही. साथ ही राजा-महाराजाओं का असला-बारूद भी इन्हीं लोगों द्वारा तैयार किया जाता था.

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सामान बनाने परिवारों को बोला जाता था दारुकूटनिया: नरेश कुमार ने बताया कि राजा-महाराजाओं के लिए असला-बारूद व आतिशबाजी बनाने के लिए करीब 20 से 22 परिवार कार्य करते थे. उस समय सभी समान को पहले हाथों से कूटा जाता था, इसी के बाद सब तैयार होता था. इसके चलते इन परिवारों व लोगों का नाम दारूकुटनिया कहा जाता था. इसलिए इस जगह का नाम भी दारुकुटा पड़ गया. उन्होंने बताया कि बारूद से आतिशबाजी व असला बनाने का कार्य यहां पर करीब 40 सालों तक चला.

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नाम अब भी वही, काम हुआ बंद: इतिहासकार हरिशंकर गोयल ने बताया कि आज इस मोहल्ले में सभी वर्ग के लोग भाईचारे के साथ रहते हैं. लेकिन आज भी इस मोहल्ले को दारूकुटा मोहल्ला के नाम से जाना जाता है, जबकि दारू कूटने का कार्य (बारूद के सामान बनाने का कार्य) कई सालों पहले बंद हो गया है. आज भी उन परिवारों की पीढ़ी इस मोहल्ले में रहती है, लेकिन जीवनयापन के लिए अब वे भी अलग कार्य व व्यवसाय करते हैं.

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इतिहासकार हरिशंकर गोयल ने बताया कि ऐतिहासिक समय में दीपावली पर्व पर राजा-महाराजाओं के पास प्रजा जाकर दीपोत्सव का त्योहार मनाती थी. उन्होंने बताया खासतौर पर जागीरदार, राजघराने के प्रमुख व्यक्ति व कर्मचारी दीपावली के समय अपनी राजा को बधाई देने मिठाई की टोकरी व फल लेकर के लिए जाते थे. साथ ही उस समय जो धनराशि चलती थी, उसका कुछ हिस्सा भेंट स्वरूप देते थे.

यह भी कहा जाता है कि राजा अपने प्रजा का उपहार को हाथ लगाकर उन्हें वापस लौटा देते थे. साथ ही अपनी तरफ से भी उपहार दिए जाते थे, यह परंपरा कई सालों तक अलवर में चली. हरिशंकर गोयल ने बताया जब महाराजाओं के पास ब्राह्मण जाते थे, तो उनका आदर सत्कार किया जाता था. साथ ही ब्राह्मणों द्वारा श्लोक भी महाराजाओं को सुनाए जाते थे. ब्राह्मणों द्वारा जब उन्हें आशीर्वाद दिया जाता था, तब राज परिवार की ओर से ब्राह्मणों को भेंट की तौर पर मिठाई व उस समय में चलने वाले चांदी के सिक्के दिए जाते थे.

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