देहरादून: इस वक्त पूरे देश में चुनाव का माहौल है. उत्तराखंड में भी हर तरफ चुनाव का शोर है. ऐसे में प्रदेश की परिस्थितियों, राजनीतिक समीकरणों के साथ ही चुनाव में होने वाले महत्वपूर्ण मुद्दों को लेकर ईटीवी भारत की टीम ने जाकर गायिका पद्मश्री बसंती बिष्ट से खास बातचीत की. इस दौरान बसंती बिष्ट ने उत्तराखंड के तमाम ज्वलंत मुद्दों के साथ ही प्रदेश की बेहतरीन के लिए राज्य सरकार को क्या कुछ कदम उठाने की जरूरत है, इस पर अपनी राय रखी.
सवाल- उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान बसंती बिष्ट ने अपनी गीतों के जरिए आंदोलनकारियो को मोटिवेट किया था?
जवाब- जब उत्तराखंड आंदोलन चल रहा था, उस दौरान हुए मुजफ्फरनगर कांड के बाद लोग अपने घरों में बैठ गए थे. ऐसे में उन्होंने लोगों को घरों से बाहर बुलाने और उनमें जोश भरने के लिए गीत गाया था.
गीत के बोल 'वीर नारी आगे बढ़ मरने से कभी न डर, धीर नारी आगे बढ़, याद है कुर्बानियां जो शहीद दे गए, कर चलो या मर चलो ये बात हमसे कह गए. ज्ञानियों को तूने अपना दूध पिलाया, दानियों को तूने अपना दूध पिलाया है, पापियों को तूने अपना दूध पिलाया है. वीर नारी आगे बढ़ मरने से कभी न डर..' इस गाने के बाद लोगों में उत्साह जगा था.
सवाल- आपका बचपन पहाड़ में बीता. आप पहाड़ की परिस्थितियों से भली भांति वाकिफ हैं. ऐसे में पहले और अब पहाड़ में कितना बदलाव आया है?
जवाब- पहले के मुकाबले आज अच्छे स्कूल, अस्पताल की सुविधा के साथ घर घर नल लग गया है. गरीब तबकों के लिए राशन भी उपलब्ध कराया जा रहा है. जबकि, पहले ओले पड़ने या फिर टिड्डियों के अटैक से फसलों को काफी नुकसान होता था. जिसके चलते लोगों को भूखे मरने की नौबत आ जाती थी.
यातायात के साधन नहीं थे, लेकिन अब ये चीजें ठीक हुई हैं. हालांकि, अभी भी तमाम चीजें हैं, जिस पर काम होना बाकी है. संस्कृति बहुत पीछे छूट गई है. लोक कलाकारों को आगे मौका नहीं मिल रहा है. क्योंकि, लगातार पलायन हो रहा है. जिसके चलते कलाकारों को काम नहीं मिल पा रहा है.
सवाल- संगीत और संस्कृति को पुनर्जीवित करने के लिए सरकार को क्या करने की जरूरत है?
जवाब- सबसे पहले सरकार को चाहिए कि लोकभाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाए. जब तक लोक भाषा को तवज्जो नहीं दिया जाएगा, तब तक हमारी लोक कलाकार और संस्कृति नहीं पनपेगी. हजारों ऐसे शब्द हैं, जो धीरे-धीरे लुप्त होते जा रहे हैं. जबकि, जो पहाड़ के हजारों शब्द और रीति रिवाज हैं, वो शब्दों के माध्यम से ही सजाया जा सकता है.
पहले कला संस्कृति और साहित्य का परिषद हुआ करता था. जिसके अध्यक्ष खुद मुख्यमंत्री होते थे. इसके अलावा उपाध्यक्ष किसी विद्वान को बनाया जाता था, लेकिन अब यह परिषद काम नहीं कर रहा है. जब इस परिषद का गठन हुआ था, उस दौरान थोड़ा बहुत काम हुआ था, लेकिन अब सब चीजें फिर से समाप्त हो गई हैं. ऐसे में सरकारों से अनुरोध है कि परिषद के माध्यम से बोली भाषा और यहां की संस्कृति को मजबूत बना लें. तभी विकास हो पाएगा.
सवाल- प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों में अभी भी चुनौतियां बरकरार हैं. ऐसे में पहाड़ और यहां की महिलाओं को सशक्त करने के लिए सरकार क्या कदम उठाने की जरूरत है?
जवाब- पहाड़ की महिलाएं इतनी बहादुर होती हैं कि वो समस्याओं से कभी भी नहीं डरती, लेकिन गर्भवती होने के दौरान महिलाओं को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. सड़कें खराब होने के चलते उन्हें पहाड़ी मार्गों से जाना पड़ता है. इतना ही नहीं पहले जंगलों में जब आग लगते थे तो उस दौरान स्थानीय निवासी जंगलों के आज को बुझाने का काम करते थे, लेकिन जब से प्रदेश के वन विभाग के हाथों में गया है, उसके बाद स्थानीय लोगों को तकलीफ होती है.
हालांकि, आज भी जंगलों में जब आग लगती है तो ग्रामीण सबसे पहले आग बुझाने जाते हैं. ऐसे में सबसे ज्यादा जरूरत है कि स्थानीय ग्रामीणों को वनों का अधिकार दिया जाए. पहले लकड़ियों की जरूरत को पूरा करने के लिए परिवारों को पेड़ चिन्हित कर दी जाती थी, जिसके चलते लोग फालतू जंगल नहीं काटते थे, लेकिन अब लकड़ी की तस्करी होने लगी है और अंधाधुंध जंगल कट रहे हैं. पहले पेड़ों के कटान के दौरान चौकीदार वहां मौजूद होता था. इसके साथ ही प्लास्टिक पर भी नियंत्रित करने की जरूरत है. पहले नदियों में प्लास्टिक फेंकना तो दूर लोग हाथ तक नहीं धोते थे.
सवाल- जब भी चुनाव होता है, उस दौरान राजनीतिक पार्टियां विकास के मुद्दे पर विशेष जोर देती हैं. ऐसे में आपको क्या लगता है कि प्रदेश की भौगोलिक परिस्थितियों को देखते हुए विकास के अलावा और क्या राजनीतिक मुद्दे होने चाहिए?
जवाब- प्रदेश के लिए सबसे बड़ा मुद्दा ये है कि लोक भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाए. दूसरा उत्तराखंड की संस्कृति को पुनर्जीवित और आगे बढ़ाने के लिए परिषद का गठन किया जाए. इसके अलावा तमाम तरह के मुद्दे चुनाव के दौरान तो जनता के बीच सामने आते रहते हैं, लेकिन उनके नजरिए में लोकभाषा और संगीत प्रमुख मुद्दा है. जिस पर सरकारों को ध्यान देने की जरूरत है.
सवाल- पिछले कुछ सालों से चुनाव में महिला मतदाताओं की भागीदारी पुरुष मतदाताओं से ज्यादा रह रही है. ऐसे में यह कह सकते हैं कि प्रदेश की महिलाएं अब जागरूक होकर अपने क्षेत्र के तमाम मुद्दों का समाधान चाहती हैं?
जवाब- कब तक महिलाओं को दबाएंगे, कभी ना कभी तो चिंगारी फूटेगी. ऐसे में जिस तरह से महिला मतदाताओं के मतदान फीसदी में इजाफा हो रहा है, वो एक अच्छे लक्षण हैं. क्योंकि, जब तक महिला आगे नहीं आएगी, तब तक विकास होने में कठिनाई रहेगी. वर्तमान समय में महिलाएं जागरूक हो रही हैं. लिहाजा, महिलाओं को राजनीति में भी आगे बढ़ना चाहिए. क्योंकि, बराबरी तभी आएगी, जब महिलाएं आगे आएंगी. महिलाएं 1 रुपए खर्च करने में 50 बार सोचती हैं. ऐसे में जब महिला के हाथ में सत्ता आता है तो वो ढंग से और नियंत्रण के साथ काम करती हैं.
सवाल- चुनाव के दौरान पर्वतीय क्षेत्र में लोक कलाकारों और नुक्कड़ नाटक के जरिए राजनीतिक पार्टियां मतदाताओं को लुभाती हैं, इसका कितना फर्क पड़ता है?
जवाब- राजनीतिक दलों को इसका फायदा मिलता होगा, जिसके चलते लोक कलाकारों और नुक्कड़ नाटक के जरिए मतदाताओं को रिझाते होंगे, लेकिन मैंने कभी भी किसी पार्टी के लिए समर्थन नहीं दिया है. पहले ऐसा नहीं होता था, लेकिन अब होने लगा है कि लोक कलाकार और नुक्कड़ नाटक के जरिए मतदाताओं को लुभाया जाने लगा है.
सवाल- उत्तराखंड की मौजूदा सरकार को किस तरह से देखती हैं?
जवाब- इस पर मैं ज्यादा नहीं कहना चाहती हूं, लेकिन पहले से काफी सुधार हुआ है. सब कुछ एकदम से ठीक तो नहीं हो सकता. क्योंकि, इसमें थोड़ा टाइम लगेगा. हालांकि, किसी में कुछ तो किसी में कुछ गुण हैं. यह संसार का नियम है, लेकिन पहले के मुकाबले काफी विकास हुआ है.
सवाल- प्रदेश की जनता को किस तरह के मुद्दे उठाने की जरूरत है?
जवाब- सब चीज का निचोड़ लोकभाषा ही है. क्योंकि, जब लोकभाषा पाठ्यक्रम में आएगा तो लोगों को हमारी संस्कृति के बारे में विस्तृत जानकारी मिल पाएगी. इस काम को जल्द से जल्द करना चाहिए. क्योंकि, बुजुर्ग आने वाले समय में धरती पर नहीं रहेंगे तो ऐसे में हमारी संस्कृति और तमाम जो तीज त्यौहार हैं, वो धीरे-धीरे समाप्त होता चला जाएगा.
सवाल- उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र लगातार खाली हो रहे हैं, ऐसे में पलायन पर लगाम लगाने को लेकर सरकार को किस तरह के कदम उठाने की जरूरत है?
जवाब- पलायन को रोकने के लिए जो काम सरकार कर रही है वो तो करें, लेकिन इसके अलावा एक और काम किया जा सकता है. जिसके तहत एक लंबे अरसे के बाद भी अभी तक जमीनों के बंदोबस्त की व्यवस्था नहीं हो पाया है. जिसके चलते युवाओं को यही नहीं पता कि उनकी संपत्ति कहां-कहां है? किसके पास है. ऐसे में अगर बंदोबस्त की व्यवस्था होती है तो उनको अपने जमीनों की जानकारी होगी, जिसके चलते वो वहीं रहेंगे और उसको आबाद करेंगे.
बाहरी संगीत पहले से ही विकसित है, लेकिन सरकार को स्थानीय लोक संगीत को विकसित करने की जरूरत है. न ही नरेंद्र सिंह नेगी और ना ही उनको किसी भी राज्य ने अपने स्थापना दिवस पर बुलाया. जबकि, उत्तराखंड राज्य स्थापना दिवस पर बाहरी राज्यों के संगीतकारों को बुलाया जाता है.
सवाल- प्रदेश के मतदाताओं को मतदान के प्रति जागरूक करने को लेकर क्या कहेंगी?
जवाब- 'जागो भुला वो किसान जय जय, तुम करा वोट दान जय जय. न जात पात न क्षेत्र वाद न रिश्ता न नाता, कुर्सी पर बिठाला हमरा ईमानदारा, कुर्सी पर बिठाला हमरा समझदारा'. समझदार लोगों को ही वोट दें. ये न देखें कि मेरा क्षेत्र है, मेरे भाषा का है या मेरा रिश्तेदार है. ऐसे में निष्पक्ष इंसान को वोट दें. मतदान सबसे बड़ा दान और अधिकार है. ऐसे में जनता को इस बार कोई लापरवाही नहीं बरतनी है, बल्कि सारे काम को छोड़कर वोट देने जाएं. 18 साल के बच्चों का हृदय अभी निर्मल है. वो भी आगे आकर वोट दें.
जागर गायिका पद्मश्री बसंती बिष्ट को जानिए: बता दें कि बसंती बिष्ट का जन्म 14 जनवरी 1952 को उत्तराखंड के सीमांत जिला चमोली के देवाल ब्लॉक के ल्वाणी गांव में हुआ था. बसंती कक्षा पांचवी पास है. जब बसंती मात्र 15 साल की थी, तभी उनकी शादी हो गई थी. पहली बार 45 साल की उम्र में बसंती को बड़ा प्लेटफॉर्म मिला, जिसके बाद उन्होंने जागर के साथ तमाम लोकगीत गाए.
साल 2017 में उत्तराखंडी जागरों, लोकगीतों और पोशाक को देश में बड़ी पहचान दिलाने के लिए भारत सरकार ने बसंती बिष्ट को पद्मश्री से नवाजा. इतना ही नहीं बसंती बिष्ट को मध्य प्रदेश सरकार ने राष्ट्रीय देवी अहिल्या बाई सम्मान साल 2016-17 और उत्तराखंड सरकार ने तीलू रौतेली सम्मान से भी सम्मानित किया है.
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