धमतरी: छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले में मां विंध्यवासिनी विराजमान हैं. मां विंध्यवासिनी को बिलाई माता भी कहा जाता है. इन दिनों माता के नए स्वरूप को देखने के लिए भक्तों का तांता लगा रहता है. क्योंकि 35 सालों के बाद मां का चोला निकाल दिया गया है. अब मां मोहनी रूप में भक्तों को दर्शन दे रही है. मां के मोहनी रूप को देखने के लिए इन दिनों भक्तों की भीड़ लगी रहती है.
गंगा में प्रवाहित किया जाएगा मां का चोला: मां विंध्यवासिनी मंदिर के पंडितों की मानें तो 35 वर्ष बाद माता का चोला बदला गया है. ये चोला लगभग 25 किलो का हो गया है, जिसे गंगा में प्रवाहित किया जाएगा. इससे पहले 60 साल पहले मां का चोला बदला गया था. पंडितों के द्वारा मां के चोला को पूरे विधिविधान के साथ गंगा जी में प्रवाहित किया जाएगा. माता के इस नए स्वरुप को देखकर मां के भक्त काफी खुश हैं. अब मां विंध्यवासिनी मूल स्वरूप में हैं. मां का नियमित श्रृंगार की जा रही है. दर्शन के लिए भक्त मंदिर पहुंच रहे हैं. हटे हुए चोला को विधिवत पूजा-अर्चना कर गंगा में विसर्जित किया गया. मां विंध्यवासिनी का चमत्कार और प्रसिद्धि किसी से छुपी नहीं है. भक्तों पर विशेष कृपा बरसाने वाली मां अब नए स्वरूप में दिख रही हैं.
दूर-दूर से आते हैं भक्त: यहां आने वाले एक भक्त ने कहा कि , "मां का ये स्वरूप काफी मनमोहक है. मां से मांगी गई हर मुराद पूरी होती है. रविवार की सुबह अचानक मां का चोला हटा और वह मूल रूप में आ गई. इसके बाद तुरंत समस्त पुजारियों ने पट बंद कर माता का श्रृंगार करना शुरू किया. अब मां नए स्वरूप में भक्तों को दर्शन दे रही हैं." वहीं, एक अन्य भक्त ने कहा कि, "माता विंध्यवासिनी सभी भक्तों की मुराद पूरी करती है. यहां दूर दूर से लोग दर्शन को पहुंचते है. उन्हें जब पता लगा तो माता के नए स्वरूप को देखते पहुंचे है जो काफी अच्छा लग रहा है."
12 मई की सुबह लगभग 10 बजे अचानक सूचना मिली की मां का चोला हट गया है. तुरंत सभी पुजारी इकट्ठे हुए और पट बंद कर लगभग 6 घंटे तक मां के चोला को और अच्छे से ठीक कर उसे नए स्वरूप में लाया गया.सप्ताह में दो से तीन दिन सिंदूर और घी से मां का लेप और श्रृंगार किया जाता है. यह सिंदूर धीरे-धीरे चढ़ता जाता है. लगभग 35 साल बाद रविवार को अचानक चोला हट गया. इसके बाद से पहले की भांति ही मां का श्रृंगार और सिंदूर लगाया जा रहा है. इस मंदिर की पूजा की परंपरा पिछले 6-7 पीढ़ियों से चली आ रही है. जो अब तक अनवरत जारी है. इसके पहले भी 60 साल पहले माता का चोला इसी प्रकार हट गया था. माता अब अपने भक्तों को मोहनी स्वरूप में दर्शन दे रही है. -नारायण दुबे, पुजारी
ये है पौराणिक कथा: इस मंदिर के इतिहास के बारे में यहां के पुजारियों द्वारा कहा जाता है कि मां स्वयंभू हैं. पुजारियों की मानें तो माता की उत्पत्ति के संबंध में मार्कण्डेय पुराण देवीमाहा में उल्लेख है. मंदिर के संदर्भ में दो जनश्रुति प्रचलित है. पहली जनश्रुति के अनुसार मूर्ति की उत्पत्ति धमतरी के गोड़ नरेश धुरूवा के काल की है. दूसरी कांकेर नरेश के शासनकाल उनके मांडलिक के समय की है. जहां देवी का मंदिर है, वहां कभी घना जंगल था. जंगल भ्रमण के दौरान राजा के घोड़ों ने एक स्थान से आगे बढ़ना छोड़ दिया. खोजबीन करने पर राजा को एक छोटे पत्थर के दोनों तरफ जंगली बिल्लियां बैठी दिखाई दीं, जो अत्यंत डरावनी थीं. राजा के आदेश पर पत्थर को निकालने का प्रयास किया गया, लेकिन पत्थर बाहर आने के बजाय वहां से जल की धारा फूट पड़ी. इसके बाद राजा को स्वप्न में देवी ने कहा कि उन्हें वहां से निकालने का प्रयास व्यर्थ है. उसी स्थान पर पूजा-अर्चना की जाए. राजा ने वहीं पर देवी की स्थापना करवाई. फिर इसे मंदिर का स्वरूप प्रदान दिया गया. प्रतिष्ठा के बाद देवी की मूर्ति स्वयं ऊपर उठीं और आज की स्थिति में आई. पहले निर्मित द्वार से सीधे देवी के दर्शन होते थे. उस समय मूर्ति पूर्ण रूप से बाहर नहीं आई थी. हालांकि जब पूर्ण रूप से मूर्ति बाहर आई तो चेहरा द्वार के बिल्कुल सामने नहीं आ पाया, थोड़ा तिरछा रह गया.