नई दिल्ली: मई का महीना शुरू होते ही राजधानी दिल्ली का तापमान लगातार बढ़ रहा है. तपीश बढ़ने से देसी फ्रिज यानी मिट्टी के मटकों की मांग में भी तेजी आ गई है. बदलते समय के साथ मिट्टी के मटकों के बनावट, रंग, आकार और डिजाइन में भी कई बदलाव आए हैं, जो ग्राहकों को काफी आकर्षित करते हैं. पश्चिमी दिल्ली के उत्तम नगर में स्थित कुम्हार कॉलोनी एशिया की सबसे बड़ी बस्ती हैं. यहां करीब 500 परिवार हैं, जो आजादी के पहले से मिट्टी के सामान बना रहे हैं. यहां का बना सामान न केवल देश बल्कि विदेशों में भी निर्यात किया जाता हैं.
मटके में रखा पानी शीतल होने के साथ स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है. कोरोना महामारी के दौरान डॉक्टरों ने मटके का पानी पीने की सलाह दी थी. इसके चलते मटकों की सेल में काफी बढ़त दर्ज हुई थी. वहीं, इस बार पिछले साल की तुलना में स्थिति ठीक हैं. 53 वर्षीय रौशनी ने बताया कि उनका जन्म इसकी कॉलोनी में हुआ. वह बचपन से ही मिट्टी के मटके बना रही हैं. मटके की आवश्यकता को कम करने के लिए कुछ लोगों ने अफवाह फैलाई कि मिट्टी के साथ सीमेंट का इस्तेमाल किया जाता है, जो गलत है.
वहीं, एक और गलत जानकारी लगातार यूट्यूब पर वायरल हो रही है कि मिट्टी के मटके में नमक भरने से पानी ज्यादा ठंडा होता है, यह भी झूठ है. वह आगे बताती है कि कोरोना के समय मटकों की सेल में काफी बढ़त दर्ज हुई. डॉक्टरों ने भी कहा था कि मटके का पानी पीना स्वस्थ के लिए फायदेमंद है. कई बार कहा-सुनी बेअर्थी बातों से सेल प्रभावित होती है. पिछले साल बहुत ही कम सेल हुई थी, लेकिन इस बार कुछ सुधार जरूर है. अभी आगे और सेल होने की उम्मीद है.
अपने पिता के साथ कुम्हार का काम करने वाले प्रवीण कुमार ने बताया कि मटका बनाने में काफी मेहनत लगती है. इसके लिए सबसे पहले मिट्टी को छाना जाता है. फिर गीला करके खूब रोंदा जाता है. पहले ये काम हाथ से होता था, लेकिन अब मशीनों के मदद से रौंदना आसान हो गया है और जल्दी भी हो जाता है. रौंदने के बाद मिट्टी को चाक पर आकार दिया जाता है. अब बिजली से चलने वाले चाक आ गए हैं. इसलिए एक दिन में दो कारीगर 90 से 100 मटके तैयार कर लेते हैं.
प्रवीण ने बताया कि मोल्डिंग के बाद मटकों को हल्की हवा और छांव में सुखाया जाता है. ऐसा तीन दिन तक किया जाता है. हल्का सूखने के बाद उन पर कलाकारी और रंग किये जाते हैं. फिर मटकों को भट्टी में पकाया जाता है. भट्टी को जलाने के किसी भी तरह का केमिकल का इस्तेमाल नहीं किया जाता है. भट्टी के आकार पर निर्भर करता है कि उसमें एक बार में कितने मटके आते हैं.
ये भी पढ़ें: दिल्ली की गर्मी ने बढ़ाई घड़ों की मांग
बचपन से ही कुम्हार का काम करने वाले महेंद्र ने बताया कि वह एक दिन में 50 से 60 मटकों को तैयार कर लेते हैं. इन मटकों को भट्टी में पकने में करीब 4 घंटे का समय लगता है. मटके बनाने के लिए साधारण खेत की मिट्टी का इस्तेमाल किया जाता है. फिलहाल, दिल्ली में बनाने वाले बर्तनों की मिट्टी हरियाणा से मंगवाई जाती है. उन्होंने बताया कि होली के बाद से मटकों को बनाने का काम शुरू कर देते हैं. मटकों का बाजार अप्रैल से जुलाई की बीच फलता-फूलता है.
साधारण मटके की कीमत
बाजार में अलग-अलग आकार के मटके मिलते हैं. मटका बेचने वाले महेंद्र ने बताया कि इस बार मटकों के दाम को 20 से 50 रुपये तक बढ़ा दिए गए हैं. पिछले साल जो मटका थोक रेट में 100 रुपये का मिल रहा था. वो इस बार 150 रुपये में बेच रहे हैं. उन्होंने बताया कि रिटेल दुकानदार अपने क्षेत्र के ग्राहकों की मांग के अनुसार ही मटकों को खरीद कर ले जाते हैं. इस समय सभी छोटे दुकानदार भंडारण करने में लगे हैं. दो साल से कोरोना की मार झेल रहे लोगों को अब घड़े का पानी काफी पसंद आ रहा है. कुम्हार कॉलोनी में करीब 500 परिवार रहते हैं और सब मिट्टी का सामान बनाते हैं. यहां मिटटी से बनने वाला हर समान मिलता है.
क्या है मटके का इतिहास
माना जाता है कि मिट्टी के बर्तनों की शुरुआत 5500 BC में सिंधु घाटी की सभ्यता से हुई थी. तब से आज तक मिट्टी के बर्तनों का इस्तेमाल कहीं न कहीं हमारे जीवन में देखने को मिल जाता है. हिंदू धर्म में मिट्टी से पवित्र वस्तु कुछ नहीं समझी जाती है. अपने आराध्य को मिट्टी के बर्तन में भोग लगाया जाता है. जन्म-मरण, पूजा-पाठ, शादी-विवाह और तीज-त्यौहार में मिट्टी के बर्तनों का इस्तेमाल खूब होता है.
ये भी पढ़ें : Pots Demand In Delhi: सूरज के तेवर चढ़ते ही दिल्ली में बढ़ गई मटकों की मांग