जयपुर. ढूंढाड़ राजवंश की आराध्य देवी शिला माता के दर्शन के लिए नवरात्र में आमेर महल में मेला सा लग जाता है. हजारों की संख्या में हर दिन श्रद्धालु आमेर पहुंचते हैं. महाष्टमी के दिन यहां निशा पूजन होता है. 1972 तक यहां पशु बलि भी दी जाती थी. यही नहीं जयपुर के पूर्व महाराजा मानसिंह द्वितीय का विमान हादसे में जब पैर टूटा था, तो डॉक्टर्स ने पैर ठीक होने की हर संभावना से इनकार कर दिया था. इसके बाद उनकी पत्नी ने माता को चांदी का पैर अर्पित किए और धीरे-धीरे डॉक्टर्स के इलाज से ही महाराजा मानसिंह का पैर ठीक हो गया. फिर यहां उनकी पत्नी ने चांदी का दरवाजा भी तैयार करवाया, जो आज आकर्षण का केंद्र है.
ये कहावत है प्रचलित : सांगानेर का सांगा बाबा. जयपुर का हनुमान. आमेर की शिला देवी. लायो राजा मान, ये कहावत आमेर रियासत काल से प्रचलित है. 1580 में बंगाल कूचबिहार के इलाके में आने वाले जसोर के राजा को हराकर मिर्जा राजा मानसिंह शिला देवी के विग्रह को वहां से लेकर आए थे. तभी से शिला देवी यहां की संस्कृति में समाहित हो गईं. नवरात्र में दुर्गापाठी लोग यहां दर्शन करने के लिए जुटते हैं.
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महिषासुर मर्दिनी का स्वरूप हैं : जयपुर के इतिहास को जानने वाले जितेंद्र सिंह शेखावत ने बताया कि ये महिषासुर मर्दिनी का स्वरूप हैं और ढूंढाड़ राजवंश की आराध्य देवी हैं. मिर्जा राजा मानसिंह ने मुगल सूबेदारी के समय बंगाल के जसोर पर जब विजय प्राप्त की, तब वहां से माता के इस विग्रह को आमेर राजमहल लेकर आए थे. इस प्रतिमा के साथ बंगाल के ही पुजारी को भी यहां लाकर बसाया गया. बताया जाता है कि बंगाल के पाल शासकों ने आठवीं शताब्दी में इसे बनवाया था.
अब पशु बलि पूरी तरह बंद : उन्होंने बताया कि पहले यहां भैंसों की बलि दी जाती थी. एक बार चर्चा हुई कि यहां नरबलि दी जाएगी, तब राजा के दरबार में बैठे चारण कवियों ने इसका विरोध करते हुए कहा था कि 'कलम के कसाई बहुत देखे हैं, बकरों के कसाई भी बहुत देखे हैं, लेकिन वो इंसानों का कसाई के रूप में जाने जाएंगे, इसीलिए इंसानों की बलि देने के इरादे को खत्म करें.' इसके बाद से केवल पशु बलि दी जाती रही और ये दौर 1972 तक चला. उस समय नाहरगढ़ और जयगढ़ से तोपों की सलामी भी दी जाती थी. हालांकि, अब पशु बलि पूरी तरह बंद हो गई है.
प्रतिमा को उत्तरमुखी कर दिया गया : उन्होंने बताया कि पहले शिला माता की प्रतिमा को दक्षिण मुखी रखा गया था, लेकिन सवाई जयसिंह द्वितीय ने जब जयपुर को बसाया तो विद्वानों की सलाह पर इस प्रतिमा को उत्तरमुखी कर दिया गया. किवदंती है कि माता के इस विग्रह के सामने विनाश और पीठ की तरफ विकास है. यही वजह है कि उनकी पीठ की तरफ जयपुर ने बहुत विकास किया, जबकि ऐसा विकास राजपूताना के अन्य किसी क्षेत्र में नहीं हुआ. शेखावत ने बताया कि यहां हिंगलाज माता का भी स्थान है, जो किसी को पता नहीं है.
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सवाई मानसिंह की शिला माता में थी विशेष आस्था : बताया जाता है कि सवाई मानसिंह की शिला माता में विशेष आस्था थी. वो नवरात्र में संध्या आरती में हमेशा शामिल होते थे. जयपुर से कहीं भी जाते हैं तो शिला माता के ढोक लगाकर के ही जाते थे और आकर फिर नतमस्तक होते थे. एक बार महाराजा मानसिंह द्वितीय विमान दुर्घटना में घायल हो गए थे और उनका पैर टूट गया था. सभी डॉक्टर ने कह दिया था कि इनका पैर ठीक नहीं हो सकता. तब महाराज की दूसरी पत्नी किशोर कंवर ने शिला माता को चांदी का पैर अर्पित किया था. बताया जाता है कि उसके बाद में डॉक्टरों का इलाज हुआ और महाराज का पैर भी ठीक हुआ. इस खुशी में किशोर कंवर ने चांदी का दरवाजा बनवाया. इस पर नवदुर्गा और माता की 10 विधाओं को उकेरा गया है. वहीं दरवाजे के ऊपर लाल पत्थर की भगवान गणेश की प्रतिमा भी स्थापित है. बाद में यहां विश्व के बड़े चित्रकारों में शुमार महेंद्र घोष ने दुर्गा के नौ स्वरूपों को भी चित्रित किया था.
बता दें कि आज भी ढूंढाड़ वासी शिला माता को मानते हैं. नवरात्र में माता के दर्शन करने के लिए पहुंचते हैं. यहां माता के मावे की गुजिया और नारियल का भोग लगाया जाता है. वहीं, महाष्टमी की मध्य रात्रि में निशा पूजन होता है. यही नहीं नवरात्र में छठ के मेले को लेकर जिला कलेक्टर की ओर से अवकाश भी घोषित किया जाता है, ताकि भक्त शक्ति की उपासना कर सकें.