वाराणसी: सड़कों पर दर-दर भटकने वाले भिखारी अब काशी में प्रभुजी बन गए हैं और बाकायदा आत्मनिर्भर बनने का गुण सीख रहे हैं. यही नहीं इस नए हुनर के जरिए वह अपना जीविकोपार्जन भी कर रहे हैं. धर्मनगरी काशी में अलग-अलग चौराहे पर जो भीख मांगकर अपने जीवन को बिताते थे, अब वह सम्मान के साथ में हुनर के जरिए अपनी नई पहचान बना रहे हैं. इसमें उनके साथ काशी के डॉक्टर निरंजन दे रहे हैं.
यदि नहीं बताते नहीं जाना चाहते, तो उन्हें यहीं रखा जाता है और उनके जीवन को बेहतर करने के लिए उनके कौशल विकास को बेहतर करने का प्रयास किया जाता है. इसके तहत ये लोग अगरबत्ती, साबुन, दोना पत्तल बनाने का काम करते हैं. यह बेहद बेहतरीन क्वालिटी के होते हैं.
उन्होंने बताया कि अगरबत्तियों में चार तरीके की अगरबत्ती बनाई जाती है जो की फूल और लकड़ी से तैयार की जाती है. इसमें रोज, बेलपत्र, सैंडल, केवड़ा शामिल है. इसके साथ ही जो साबुन बनाए जाते हैं, वह भी पूरी तरीके से प्राकृतिक होते हैं. इनमें ग्लिसरीन का बेस होता है उसमें हल्दी, नीम, गुलाब शामिल होता है. साथ ही घरों से हम लोग निष्प्रयोग अखबारों को लेकर के महिला प्रभु जी के जरिए पैकेट बनवाकर इनको दुकानों पर वितरित किया जाता है. हर दिन दोपहर 12 से 4 भी तक सभी लोग इस काम में लगे रहते हैं.
उन्होंने बताया कि हमारा उद्देश्य है कि कल यदि ये लोग अपने घर जाते हैं या अलग से अपना जीवन यापन करना चाहते हैं, तो उनके पास हुनर हो, जिसके जरिए यह अपने जीवन और अपने परिवार को बेहतर बना सके.
उन्होंने बताया कि इनके द्वारा बनाए गए सभी सामानों में भिखारी मुक्त शहर का संदेश भी दिया जाता है. हमारी लोगों से अपील है कि यदि आपको भिखारी दिखे, तो आप उसे भीख देने के बजाय उसे पका हुआ भोजन दें, क्योंकि यदि हम भीख देना बंद कर देंगे, तो धीरे-धीरे भिखारी समाप्त हो जाएंगे.
1700 से ज्यादा भिखारियों का किया है रेस्क्यू: उन्होंने बताया कि यहां साबुन और सामान को हम बेचते नहीं है, बल्कि सहयोग के लिए अधिकतम 30 और 25 रुपये में इसे सहायता के लिए लोगों को दिया जाता है. इसकी बाकायदा दान की रसीद बनाई जाती है. हमारे यहां 1700 से ज्यादा प्रभुजी हैं, जिनमें पुरुष महिलाएं शामिल है. 700 से ज्यादा लोगों को रेस्क्यू कर हम घरों तक पहुंचा चुके हैं.
आश्रम में रहकर आत्मनिर्भर बनने वाले प्रभु जी बताते हैं कि अब उनका जीवन पहले से बेहतर है. पहले वह ट्रेन में सड़कों पर घूम करके भीख मांगते थे और इधर-उधर अपना गुजारा कर लेते थे, लेकिन आश्रम में आने के बाद अब वह आत्मनिर्भर बन रहे हैं और बाकायदा नया हुनर सीख रहे हैं. इससे उनका काम में मन भी लगा रहता है और वह स्वस्थ हो रहे हैं.
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