अलीगढ़ : अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) अल्पससंख्यक दर्जे की हकदार है. आज सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुना दिया. कोर्ट की 7 जजों की बेंच ने 4-3 के बहुमत से यह फैसला सुनाया. सुप्रीम कोर्ट का कहना है, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी भारत के संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक दर्जे की हकदार है. खास बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने 57 साल पहले 1967 में दिए अपने ही फैसले को पलट दिया है. उस फैसले में कहा था कि AMU अल्पसंख्यक संस्थान के दर्जे का दावा नहीं कर सकती.
एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे के लिए 18 साल से कानूनी लड़ाई जारी है. इतने वर्षों में इस मुद्दे को लेकर कई उतार-चढ़ाव देखने को मिले. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय कानून विभाग के प्रोफेसर व यूनिवर्सिटी प्रॉक्टर प्रोफेसर मोहम्मद वसीम अली ने अपने और यूनिवर्सिटी की तरफ से सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत करते हुए पत्रकारों को बताया सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले के जरिए यह बताया है कि कौन सा संस्थान अल्पसंख्यक होगा और कौन सा संस्थान अल्पसंख्यक नहीं होगा. एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे के फाइनल फैसले के लिए भी केस को तीन जजों की बेंच को रेफर किया गया है.
प्रोफेसर वसीम ने बताया कि सुप्रीम कोर्ट ने एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे के मामले को तीन जजों की बेंच को रेफर कर दिया है. अब वही एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे के बारे में फैसला करेंगे. हमें पूरी उम्मीद थी और हमारी उम्मीद के मुताबिक ही सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया है. आगे भी फैसले अच्छे ही रहेंगे. यूनिवर्सिटी के हक में फैसला आएगा.
कब और कैसे शुरू हुआ विवाद: साल 2005 में AMU ने खुद को अल्पसंख्यक संस्थान मानते हुए मेडिकल के पीजी कोर्सेस में 50 फीसदी सीटें मुस्लिम छात्रों के लिए रिजर्व कर दीं तो इसके खिलाफ हिन्दू छात्र इलाहाबाद हाईकोर्ट पहुंचे थे. 2006 हाईकोर्ट ने अपने फैसले में एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना. इस फैसले के बाद AMU सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और साल 2019 में यह मामला 7 जजों की संवैधानिक बेंच को भेजा गया.
मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता, न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने सभी पक्षों की दलीलें सुनने के बाद सुनवाई पूरी कर फैसला सुरक्षित रख लिया था. अब बेंच ने फैसला सुनाया है.
AMU का अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा बरकरार रखते हुए कहा कि 2006 के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले की वैधता तय करने के लिए एक नई पीठ गठित करने के लिए मामले के न्यायिक रिकॉर्ड सीजेआई के समक्ष रखे जाने चाहिए.
एएमयू और एएमयू ओल्ड बॉयज एसोसिएशन का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ वकील डॉ. राजीव धवन और कपिल सिब्बल ने अपनी दलीलें पेश की थीं. वरिष्ठ अधिवक्ता सलमान खुर्शीद और सादान इंटरवेनर की ओर से उपस्थित हुए थे. केंद्र सरकार का प्रतिनिधित्व सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के साथ अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरामिनी ने किया था.
57 साल पहले क्या थे यूनिवर्सिटी और सुप्रीम कोर्ट के तर्क: 1967 में सुनवाई के दौरान यूनिवर्सिटी के तर्क थे कि सर सैयद ने इस संस्थान को बनाने के लिए चंदा जुटाया था. अल्पसंख्यकों के प्रयास के कारण ही अल्पसंख्यकों के फायदे के लिए इसकी शुरुआत हुई थी. इसलिए इसे अल्पसंख्यक संस्थान होने का दर्जा मिलना चाहिए. तर्क सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सर सैयद और उनकी कमेटी ब्रिटिश सरकार के पास गई थी. ब्रिटिश सरकार ने कानून बनाया और इस यूनिवर्सिटी को मान्यता दी, इसलिए इसे न तो मुस्लिमों ने बनाया और न ही उन्होंने शुरू किया. इसलिए यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक दर्जा नहीं दिया जा सकता.
कानून में बदलाव करके दिया गया अल्पसंख्यक का दर्जा: सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के 13 साल बाद 1981 में केंद्र सरकार ने एएमयू एक्ट के सेक्शन 2(1) बदलाव किया और इसे मुसलमानों का पसंदीदा संस्थान बताते हुए इसे अल्पसंख्यक का दर्जा दिया.
अब सुप्रीम कोर्ट ने क्या तर्क दिए: आज CJI डीवाई चंद्रचूड़ ने माना कि कोई संस्था अपना अल्पसंख्यक दर्जा केवल इसलिए नहीं खो देगी क्योंकि यह एक कानून द्वारा बनाया गया था. बहुमत ने माना कि न्यायालय को यह जांच करनी चाहिए कि विश्वविद्यालय की स्थापना किसने की और इसके पीछे मंशा क्या थी. यदि वह जांच अल्पसंख्यक समुदाय की ओर इशारा कर रही है, तो संस्थान अनुच्छेद 30 के अनुसार अल्पसंख्यक दर्जे का दावा कर सकती है. इस तथ्यात्मक निर्धारण के लिए, संविधान पीठ ने मामले को नियमित पीठ को सौंप दिया.
क्या है अल्पसंख्यक दर्जे के मायने: किसी भी संस्थान का अल्पसंख्यक दर्जा खत्म होने पर विश्वविद्यालय अधिनियम में बदलाव करके प्रवेश आरक्षण कोटा नीति में बदलाव कर दिया जाता है. प्रवेश आरक्षण कोटा नीति वही लागू की जाती है जो दूसरे विश्वविद्यालयों में होती हैं. यानी प्रवेश में सभी जाति वर्ग के लोगों का आरक्षण का कोटा कर दिया जाता है. सरकारी शिक्षा से जुड़ी पॉलिसी लागू कर दी जाती है. अगर सरकार चाहे तो संस्थान की गवर्निंग बॉडी में भी बदलाव कर सकती है.
क्या है एएमयू का इतिहास : सर सैयद अहमद खान ने 1872 में मुहम्मदन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज फंड कमेटी गठित की. इसके बाद साल 1877 में मुहम्मदन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज शुरू किया गया. साल 1920 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी एक्ट बनाकर विश्वविद्यालय की स्थापना की गई. साल 1951 में यूनिवर्सिटी में गैर मुस्लिमों के दाखिले को लेकर भी स्थिति साफ कर दी गई. किसी भी जाति-धर्म के छात्रों को प्रवेश दिया जाने लगा.
साल 1967 में सुप्रीम कोर्ट ने छीन लिया था दर्जा : साल 1965 में एएमयू एक्ट में बदलाव किया गया. यूनिवर्सिटी को मानव संशाधन विकास मंत्रालय ने अपने अंडर ले लिया. 1967 में सुप्रीम कोर्ट ने अल्पसंख्यक दर्जा छीन लिया. साल 1981 में अल्पसंख्यक दर्जे को फिर से बहाल कर दिया गया. साल 2005 में एएमयू के स्टूडेंट इलाहाबाद हाईकोर्ट पहुंचे. स्टूडेंट ने मुस्लिमों को 75 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने पर सवाल खड़े किए थे. कोर्ट ने एएमयू को लेकर किए गए संविधान संशोधन को अमान्य करार दे दिया. इसके बाद से लगातार एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे की लड़ाई जारी है.
साल 2019 में सुप्रीम कोर्ट पहुंचा मामला : संविधान पीठ इलाहाबाद उच्च न्यायालय की ओर से साल 2006 के फैसले से जुड़े एक मामले की सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा था कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है. इसके बाद कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दायर की गईं. फिर सुप्रीम कोर्ट की 3 जजों की बेंच की ओर से साल 2019 में मामले को 7 जजों की संविधान पीठ के पास भेज दिया गया था.
अदालत के फैसले से नई उम्मीद और निराशा : एएमयू ओल्ड बॉयज एसोसिएशन के अध्यक्ष सैयद शोएब ने इस फैसले पर संतोष जताते हुए कहा कि 60 साल से चली आ रही लड़ाई अब सफलता की ओर बढ़ रही है. एएमयू के इस आंदोलन में 1968 से शामिल पूर्व सांसद मोहम्मद अदीब ने फैसले को निराशाजनक बताया. उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट की 7 जजों की बेंच ने अपनी बहुमत से फैसला दिया है कि एएमयू का अल्पसंख्यक दर्जा रद्द नहीं किया जा सकता. हालांकि, यह भी निर्णय लिया गया कि मामला भविष्य में 3 जजों की बेंच के समक्ष रखा जाएगा. अदीब ने इस टिप्पणी को दोनों पक्षों को संतुष्ट करने का प्रयास बताया और कहा कि आंदोलन में दो पीढ़ियां गुजर चुकी हैं, लेकिन अभी भी अंतिम निर्णय का इंतजार है.