अजमेर: राजस्थान के अजमेर दरगाह में शिव मंदिर होने के दावे संबंधी याचिका अजमेर पश्चिम कोर्ट में मंजूर होने के बाद दरगाह दीवान के उत्तराधिकारी सैयद नसीरुद्दीन चिश्ती ने बयान जारी किया है. चिश्ती ने कहा कि अजमेर दरगाह 800 साल से अधिक समय से है. यहां कभी कोई मंदिर होने की बात पहले नहीं हुई है. यह सस्ती लोकप्रियता हासिल करने की एक साजिश है. मामला न्यायालय में है. लिहाजा, न्यायालय में ही मामले का जवाब दिया जाएगा.
अजमेर ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह में दीवान के उत्तराधिकारी सैयद नसीरुद्दीन चिश्ती ने कहा कि सन 1950 में दरगाह ख्वाजा गरीब नवाज एक्ट की कवायद चल रही है. उस दौरान इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज गुलाम हसन की अध्यक्षता में इंक्वायरी कमेटी बनाई गई थी. इस कमेटी की रिपोर्ट पार्लियामेंट में जमा हुई है. इस रिपोर्ट में दरगाह से संबंधित पूरा इतिहास भी था. मसलन कौन सी इमारत दरगाह में कब तामीर की गई और किसने बनाई है, दरगाह में किसी भी प्रकार का कोई मंदिर होने का उस रिपोर्ट में उल्लेख नहीं है. वहीं, 800 साल में कहीं भी कोई जिक्र नहीं है. सत्ती लोकप्रियता के चक्कर में कुछ लोग ऐसी हरकत कर रहे हैं जो देश और समाज के लिए ठीक नहीं है. देश में कब तक हम मंदिर-मस्जिद विवाद में उलझे रहेंगे.
यह परिपाटी बिल्कुल गलत : उन्होंने कहा कि यह परिपाटी बिल्कुल गलत है. केंद्र सरकार से गुजारिश है कि इसको लेकर कानून बनाया जाए. सन 1947 के पहले के विवाद अलग कर दिया जाए. चिश्ती ने कहा कि आए दिन मस्जिद और दरगाहों में मंदिर होने का दावा किया जा रहा है. इससे एक दूसरे के प्रति कटुता और अविश्वास की भावना बढ़ती है जो समाज के लिए गलत है. ऐसे लोगों के खिलाफ हम सबको मिलकर खड़ा होना चाहिए. कोर्ट में न्याय के लिए जाने का सबको अधिकार है. कानून की लड़ाई है और इस मामले में वकीलों से कानूनी राय लेकर पक्ष रखना होगा तो जरूर रखेंगे.
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उन्होंने बताया कि याचिका में जिस पुस्तक का जिक्र किया जा रहा है, वह हरविलास शारदा की पुस्तक है. हरविलास शारदा अपने दौर के प्रसिद्ध हस्ती थे. उन्होंने 1910 में किताब लिखी और उन्होंने दरगाह में मंदिर का जिक्र किया है तो वह प्रमाणिक नहीं है. चिश्ती ने कहा कि 1236 में ख्वाजा गरीब नवाज का निधन हुआ था.
उसके बाद कितने ही हिंदू रजवाड़ों ने कई तोहफे भेंट किए थे. दरगाह में चांदी का कठघरा जयपुर महाराज का चढ़ाया हुआ है, जिसका वजन 42 हजार 961 तोला है. हरविलास शारदा की किताब 1910 की है, जबकि ख्वाजा गरीब नवाज का इतिहास 800 साल से अधिक पुराना है. इस दौरान इतिहास में कहीं उल्लेख नहीं है कि दरगाह में कोई हिंदू मंदिर रहा है. यह सब दावे निराधार हैं. केंद्र सरकार 1950 में ही दरगाह की हर इमारत की इंकव्यारी करवा चुकी है. गुलाम हसन की इंक्वायरी रिपोर्ट में भी मंदिर का कोई जिक्र नहीं है.