अजमेर : विजयदशमी की शाम को अजमेर शहर के लोगों को भगवान श्रीरघुनाथ जी की सवारी का इंतजार रहता है. शहर के अंदरूनी हिस्से घसेटी क्षेत्र में स्थित मराठाकालीन भगवान श्री रघुनाथजी का मंदिर है. विजयदशमी के दिन 250 वर्षों से भगवान श्री रघुनाथजी के मंदिर से राजसी ठाठ बाट से सवारी निकालने की परंपरा रही है. भगवान श्री रघुनाथजी की सवारी का स्वागत करने और दर्शन के लिए हजारों की संख्या में मार्ग में लोगों का हुजूम लगा रहता है. हालात यह रहते हैं कि तीन किलोमीटर के रास्ते को तय करने में सवारी को 3 से 3.5 घण्टे लग जाते हैं. सवारी के देर शाम को पटेल स्टेडियम पंहुचने के उपरांत भगवान श्री रघुनाथजी अभिमान में चूर रावण का वध करते हैं. इस दौरान रावण दहन को देखने के हजारों की संख्या में लोग मौजूद रहते हैं. एक ओर रावण का दहन होता है और दूसरी ओर मौजूद हजारों लोग अपने आराध्य जय श्री रघुनाथजी के जयकारे लगाते हैं.
मंदिर के पुजारी पंडित सुरेंद्र शर्मा ने बताते हैं कि अजमेर में मराठा कालीन पांच मंदिरों में से एक श्री रघुनाथजी का मंदिर भी है. 250 वर्षों से दशहरे के दिन मंदिर से भगवान श्री रघुनाथजी की सवारी निकालने की परंपरा रही है. भगवान श्री रघुनाथजी की राजसी ठाठ बाट से सवारी निकाली जाती है. मंदिर से श्री रघुनाथजी के रवाना होने से पहले परंपरा के अनुसार विधिवत पूजा अर्चना की जाती है. इसके बाद मंदिर से सवारी नला बाजार, नया बाजार, दरगाह, बाजार, देहली गेट, आगरा गेट होते हुए पटेल स्टेडियम पहुंचती है. 3 किलोमीटर की यात्रा में 3 घंटे से अधिक समय सवारी को पटेल स्टेडियम पहुंचने में लगता है. उन्होंने बताया कि सवारी से पूर्व रेवाड़ी में श्री रघुनाथ जी सीता माता के साथ विराजमान करवाए जाते हैं. इससे पहले सिया राम और श्री गणेश का मनमोहक श्रंगार किया जाता है. बैंड बाजों और ढोल नगाड़ों के साथ श्री रघुनाथ जी की सवारी का आगाज होता है.
भगवान श्री रघुनाथजी की सवारी अजमेर की सामाजिक परंपरा का हिस्सा है. विजयदशमी पर श्री रघुनाथजी की सवारी का भव्य आयोजन 250 वर्षों से हो रहा है. अजमेर में मराठा शासन के समय मराठाओं ने पांच प्रमुख मंदिरों का निर्माण करवाया था. इनमें चार शिव मंदिर और एक श्री रघुनाथजी का मंदिर शामिल है. मंदिर का इतिहास भी 250 वर्ष पुराना है. मंदिर के गर्भ गृह में राम दरबार विराजित है. राम-सीता, लक्ष्मण और हनुमान की सफेद संगेमरमर की प्राचीन सुंदर प्रतिमाएं हैं. प्रतिमाओं को गौर से देखें तो भगवान श्रीराम, सीता और हनुमान का रूप युवा नजर आता है. इन प्रतिमा के नीचे श्री राम, सीता, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न की धातु की प्रतिमाएं हैं.
सवारी के आगे चलते है श्रीगणेश : मंदिर समिति से जुड़े सदस्य वीरेंद्र अग्रवाल बताते हैं कि श्री रघुनाथ मंदिर से धूमधाम से सवारी निकाले जाने की परंपरा रही है. इस परंपरा को आज भी श्रद्धा के साथ निभाया जाता है. भगवान श्री रघुनाथजी की सवारी में सबसे आगे श्री गणेश होते हैं. इनके बाद अंगद और उनके पीछे चांदी की पालकी में भगवान श्रीरघुनाथजी अपनी अर्धांगिनी माता सीता के साथ विराजमान रहते हैं. शोभा यात्रा के पीछे रथ रहता है जिसमें रामलीला के किरदार श्री राम लक्ष्मण और हनुमान रथ पर सवार रहते हैं. रावण वध के लिए परंपरा के अनुसार श्रीरघुनाथजी मंदिर से ही सवारी के साथ धनुष बाण ले जाए जाते हैं. पटेल स्टेडियम पहुंचने पर श्रीरघुनाथजी के बाणों से रावण, कुंभकरण और लक्ष्मण के बाण से मेघनाथ का अंत होता है. भगवान श्री रघुनाथजी की सवारी के आने पर लोग भाव विभोर होकर फूलों की वर्षा करते हुए सियाराम और श्री रघुनाथ जी के जयकारे लगाते हैं.
हजारों लोग देखते हैं रावण दहन : श्रीरघुनाथ जी की सवारी इस बार भी ठाठ बाट से निकलेगी. सवारी की तैयारियां जोर जोर से की जा रही है. श्रीरघुनाथ जी की सवारी पटेल स्टेडियम पहुंचेगी. बता दें कि रावण दहन देखने के लिए 20 से 25 हजार लोग पटेल स्टेडियम में मौजूद रहते हैं. श्री रघुनाथ जी की सवारी पटेल स्टेडियम में पहुंचते ही श्रीराम के जयघोष हर तरफ सुनाई पड़ते हैं. रामलीला के किरदार हनुमान सांकेतिक रूप से बनी लंका का दहन करते हैं. इसके बाद मेघनाथ और कुंभकरण का वध किया जाता है. बाद में बुराई के प्रतीक रावण का श्री राम वध करते हैं. रावण वध के बाद श्री रघुनाथजी की सवारी घसेटी स्थित मंदिर लौट आती है.
कभी नहीं थमी सवारी की परंपरा : अग्रवाल बताते हैं कि विजयदशमी के दिन श्री रघुनाथजी की सवारी की परंपरा 250 वर्षों में कभी नहीं टूटी. एक बार 1970 में रावण की बगीची स्थित कोयले की टाल में आग लगने की कारण से रावण दहन का स्थान परिवर्तन किया गया, तब से पटेल स्टेडियम में रावण दहन का आयोजन होता आ रहा है. उन्होंने बताया कि श्रीरघुनाथ जी की सवारी में शहर के प्रबुद्ध जन रहते हैं. 250 वर्षों से श्रीरघुनाथ जी की सवारी निर्विघ्नम निकलती आ रही है. कोरोना काल में भी श्रीरघुनाथ जी की सवारी की परंपरा नहीं थमी थी.