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बांग्लादेश संकट: क्या भारत को 'नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी' पर फिर से विचार करने की जरूरत है? - India Neighbourhood First Policy

Bangladesh Chaos: बांग्लादेश में हालिया घटनाक्रम के कारण शेख हसीना को प्रधानमंत्री की कुर्सी गंवानी पड़ गई. पड़ोसी देश में उत्पन्न राजनीतिक संकट ने नई दिल्ली को 'नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी' पर ध्यान केंद्रित किया है. पड़ोसी प्रथम नीति का उद्देश्य क्षेत्र में स्थिरता सुनिश्चित करना है. क्या इस नीति पर भारत को दोबारा से विचार करने की जरूरत है? इस विषय पर शिलांग स्थित थिंक टैंक एशियन कॉन्फ्लुएंस के फेलो के योहोम ने ईटीवी भारत से खास बातचीत की.

Bangladesh chaos
बांग्लादेश में राजनीतिक संकट (AFP)
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By Aroonim Bhuyan

Published : Aug 8, 2024, 6:24 PM IST

नई दिल्ली: बांग्लादेश में लगातार बिगड़ते हालात के बीच प्रधानमंत्री शेख हसीना को सत्ता गंवानी पड़ी और देश छोड़कर जाना पड़ गया. इस सप्ताह पड़ोसी देश में उत्पन्न राजनीतिक संकट ने भारत के लिए एक सवाल खड़ कर दिया है. प्रश्न यह है कि, क्या भारत को अपनी 'नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी' पर फिर से विचार करना चाहिए? भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बार कहा था कि, "आप अपने दोस्त बदल सकते हैं लेकिन अपने पड़ोसी को नहीं."

पीएम मोदी पड़ोसी देशों के साथ अच्छे संबंधों पर जोर दिया
हालाकि भारत ने ऐतिहासिक रूप से पड़ोसी देशों के साथ अपने संबंधों पर महत्वपूर्ण जोर दिया है. मई 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पदभार संभालने के बाद नेबरहुड फर्स्ट नीति की औपचारिक अभिव्यक्ति प्रमुख हो गई. इस नीति ने दक्षिण एशियाई देशों के साथ मजबूत संबंध बनाने पर नए सिरे से ध्यान केंद्रित किया और इसे क्षेत्रीय स्थिरता और पारस्परिक विकास सुनिश्चित करने के लिए एक रणनीतिक कदम के रूप में देखा गया.

इस नीति के मूल उद्देश्य क्या है?
नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी का मुख्य उद्देश्य संघर्षों को हल करके और विवादों को बढ़ने से रोककर क्षेत्र में शांति और स्थिरता सुनिश्चित करना है. दूसरा आपसी वृद्धि और विकास को बढ़ावा देने के लिए पड़ोसी देशों के साथ आर्थिक सहयोग और एकीकरण को बढ़ावा देना है. इसके साथ ही व्यापार और लोगों से लोगों के बीच संपर्क को सुविधाजनक बनाने के लिए सड़क, रेलवे और बंदरगाहों जैसी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के माध्यम से कनेक्टिविटी बढ़ाना भी है. इस नीति का उद्देश्य शैक्षिक आदान-प्रदान, पर्यटन और सांस्कृतिक कूटनीति के माध्यम से सांस्कृतिक और लोगों से लोगों के संबंधों को मजबूत करना है. इसके साथ-साथ आम क्षेत्रीय चुनौतियों से निपटने के लिए दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) और बंगाल की खाड़ी बहु-क्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग पहल (बिम्सटेक) जैसे क्षेत्रीय मंचों और संगठनों में शामिल होना नीति का उद्देश्य है.

मोदी ने सार्क देशों के नेताओं को आमंत्रित किया
यह बात तब स्पष्ट हो गई जब मई 2014 में मोदी ने अपने पहले शपथ ग्रहण समारोह के लिए सार्क देशों के नेताओं को आमंत्रित किया. यह पड़ोसी प्रथम नीति के महत्व को रेखांकित करने वाला एक प्रतीकात्मक संकेत था. इस नीति के तहत प्रमुख पहलों में आर्थिक और विकासात्मक सहायता, कनेक्टिविटी परियोजनाएं, व्यापार समझौते, सुरक्षा सहयोग और प्राकृतिक आपदाओं के दौरान मानवीय सहायता शामिल हैं. इन सबके पीछे विचार यह है कि भारत का राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक विकास काफी हद तक स्थिर, सुरक्षित और शांतिपूर्ण पड़ोस पर निर्भर है.

भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौती क्या है?
हालांकि, नई दिल्ली द्वारा इस नीति को अपनी विदेश नीति पहल के एक महत्वपूर्ण हिस्से के रूप में अपनाने के बावजूद, शासन की अस्थिरता भारत के तत्काल पड़ोसियों को परेशान कर रही है. नवीनतम उदाहरण बांग्लादेश का मामला है. नेपाल में 2008 में राजशाही की समाप्ति के बाद से लगातार सरकार बदलती रही है और कोई भी सरकार पूरे कार्यकाल तक टिक नहीं पाई. वहीं, म्यांमार में, 2021 में सैन्य तख्तापलट के बाद गृहयुद्ध छिड़ गया और नोबेल पुरस्कार विजेता आंग सान सू की की लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार को हटा दिया गया था. दूसरी तरफ श्रीलंका 2022 में एक बड़े आर्थिक संकट की चपेट में आ गया था, जिसके कारण तत्कालीन राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे देश से भाग गए थे. वहीं, मालदीव भारत समर्थक और भारत विरोधी सरकारों के बीच झूल रहा है.

क्या बांग्लादेश संकट भारत को सोचने पर कर रहा मजबूर?
वर्तमान में भारत का पड़ोसी देश बांग्लादेश अब निर्णायक बिंदु बनकर सामने आया है. एक पड़ोसी जिसके साथ नई दिल्ली के कुछ दिन पहले तक सबसे करीबी संबंध थे, अब संभावित रूप से भारत विरोधी शासन के सत्ता में आने की संभावनाएं देख रहा है. इन सबके बीच चीन लगातार दक्षिण एशियाई देशों के बीच अपना प्रभाव बढ़ाने के एजेंडे को आगे बढ़ा रहा है. इन परिस्थितियों में यह सवाल उठता है कि क्या नई दिल्ली को अपनी पड़ोसी प्रथम नीति पर फिर से विचार करना चाहिए.

शिलांग स्थित थिंक टैंक एशियन कॉन्फ्लुएंस के फेलो के योहोम ने कहा...
इस विषय पर शिलांग स्थित थिंक टैंक एशियन कॉन्फ्लुएंस के फेलो के योहोम ने ईटीवी भारत को बताया, "नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी की मूल धारणा यह थी कि अगर भारत अपनी समृद्धि को अपने छोटे पड़ोसियों के साथ साझा कर सकता है, तो सीमाओं के पार अस्थिरता भारतीय क्षेत्र में नहीं फैलेगी." उन्होंने आगे कहा, "अपने आर्थिक विकास को छोटे पड़ोसी देशों के साथ साझा करके, भारत क्षेत्र में स्थिरता का स्तर सुनिश्चित करना चाहता है."योहोम ने बताया कि इसका एक बाहरी आयाम भी है.

उन्होंने आगे कहा, "इन देशों के साथ आर्थिक रूप से एकीकरण करके, भारत यह सुनिश्चित कर सकता है कि उसके हितों के प्रतिकूल बाहरी शक्तियां इस क्षेत्र में पैर न जमा सकें." उन्होंने यह भी कहा कि, "इस पृष्ठभूमि में, अगर हम बांग्लादेश में राजनीतिक विकास को देखें, तो सवाल यह है कि क्या भारत की नेबरहुड फर्स्ट नीति ने पड़ोस में वांछित लक्ष्य हासिल किए हैं." साथ ही, योहोम ने कहा कि बांग्लादेश में घरेलू संकट भारत के नियंत्रण से परे थी.

शेख हसीना को धर्मनिरपेक्ष और इस्लामी तत्वों के विरोधी के रूप में देखा गया
योहोम ने ईटीवी भारत को बताया, "इन देशों के भीतर कुछ आंतरिक विकास आवश्यक रूप से भारत द्वारा नहीं किए गए हैं....ऐसे कई मामलों में, गतिशीलता भीतर से संचालित होती है. हालांकि, बांग्लादेश के मामले में, जिस चीज ने भारत को तस्वीर में लाया, वह हसीना का देश में शरण लेने का निर्णय था. योहोम ने आगे कहा कि, राजनीतिक स्तर पर, हसीना ने भारत के नेतृत्व के साथ घनिष्ठ व्यक्तिगत संबंध विकसित किए थे. उन्होंने यह सुनिश्चित करने जैसी भारत की चिंताओं पर भी सकारात्मक प्रतिक्रिया दी थी कि पूर्वोत्तर के विद्रोहियों को उनके देश में आश्रय न मिले. शेख हसीना को धर्मनिरपेक्ष और इस्लामी तत्वों के विरोधी के रूप में देखा जाता है.

हसीना की निरंकुश कार्यशैली
हालांकि, अपनी बढ़ती निरंकुश कार्यशैली के कारण हसीना अपने ही देश के लोगों के बीच लोकप्रियता खो रही थीं. इस साल जनवरी में बांग्लादेश में हुए संसदीय चुनावों से पहले, उन्होंने चुनाव प्रक्रिया के दौरान अंतरिम सरकार स्थापित करने की विपक्षी दलों की मांग को मानने से लगातार इनकार कर दिया. हालांकि अमेरिका, यूरोपीय संघ और अन्य पश्चिमी शक्तियों ने उन्हें विपक्ष की मांग स्वीकार करने के लिए मनाया, लेकिन उन्होंने इसे आंतरिक मामले में बाहरी हस्तक्षेप कहकर खारिज कर दिया. इस पूरे समय भारत ने तटस्थ रुख बनाए रखा. अंत में, मुख्य विपक्षी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (BNP) सहित सभी विपक्षी दलों ने, जो अतीत में सत्ता में रहते हुए अपनी भारत विरोधी नीतियों के लिए जानी जाती थी, ने आखिरकार हुए चुनावों का बहिष्कार किया. परिणामस्वरूप, जब हसीना की अवामी लीग सत्ता में वापस आई, तो उसने विपक्ष-विहीन सरकार चलानी शुरू कर दी. उन्होंने कहा कि, किसी भी लोकतंत्र के सुचारु रूप से कार्य करने के लिए एक मजबूत विपक्ष का होना आवश्यक है.

"बांग्लादेश में कोटा आंदोलन आतंकवादी हमलों में तब्दील हुआ"
उन्होंने कहा कि, विपक्ष के न होने से बांग्लादेश के सिस्टम के अंदर खलबली मच गई. परिणामस्वरूप नौकरी कोटा व्यवस्था के विरोध में छात्रों के आंदोलन ने हसीना की सरकार के खिलाफ इस्लामी ताकतों से जुड़े एक पूर्ण विद्रोह में बदल गया. जिसका परिणाम यह हुआ कि शेख हसीना को सत्ता से बाहर होना पड़ा और देश में उत्पन्न हिंसा में 300 से अधिक लोगों की मौत हो गई.

बांग्लादेश संकट पर हसीना ने प्रणय वर्मा से क्या कहा था?
योहोम ने भारत-बांग्लादेश संबंधों को दो स्तरों पर देखने की आवश्यकताओं पर बल दिया. उन्होंने कहा, "बांग्लादेश छोड़कर हसीना के जाने से पहले पिछले 24 घंटों में भारत की भूमिका का आकलन करना है. हालांकि हसीना के जाने से पहले अंतिम क्षणों में भारत की भागीदारी का कोई सबूत नहीं है, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय प्रतिष्ठान के भीतर कुछ हलकों को घटनाक्रम के बारे में जानकारी थी." दरअसल, हसीना ने पिछले हफ्ते ढाका में बांग्लादेश में भारतीय उच्चायुक्त प्रणय वर्मा से मुलाकात की और उन्हें अपने देश की स्थिति से अवगत कराया. खबरों के मुताबिक, शेख हसीना ने वर्मा को बताया था कि हाल के कोटा सुधार आंदोलन के दौरान अराजकतावादियों ने देश में श्रीलंका जैसी तबाही मचाने की कोशिश कर सरकार को गिराने की योजना बनाई थी. उन्होंने कहा कि कोटा सुधार पर केंद्रित हालिया आंदोलन बिल्कुल भी सामान्य आंदोलन नहीं था और एक समय यह लगभग आतंकवादी जैसे हमले में बदल गया था.

भारत-बांग्लादेश संबंध और शेख हसीना
योहोम के अनुसार दूसरा स्तर, हसीना के शासन के तहत पिछले कई वर्षों में भारत-बांग्लादेश संबंधों का आकलन करना है. उन्होंने कहा, ''हसीना के नेतृत्व में भारत बांग्लादेश के साथ गहरे संबंध विकसित करने में सक्षम था.'' उन्होंने आगे कहा, "यह एक अच्छा सौहार्दपूर्ण संबंध था और भारत कनेक्टिविटी के निर्माण जैसे पड़ोसी प्रथम नीति के कुछ पहलुओं को लागू करने में सक्षम था. आर्थिक संबंध बहुत अच्छे थे.

उन्होंने कहा कि, भारत द्वारा बांग्लादेश के सशस्त्र बलों को रक्षा उपकरण और प्रशिक्षण प्रदान करने से रक्षा संबंध मजबूत हुए." योहोम ने कहा कि, हालांकि आर्थिक सहायता और मानवीय सहायता ठीक है, लेकिन राजनीतिक गतिशीलता को छोड़कर पड़ोसी देशों में सत्ता में मौजूद किसी भी सरकार के साथ जुड़ना भारतीय नेतृत्व की प्रवृत्ति है, जिसे देखने की जरूरत है. इस संबंध में, उन्होंने म्यांमार में सैन्य जुंटा नेताओं के साथ भारतीय प्रतिष्ठान की भागीदारी का जिक्र भी किया. उन्होंने कहा, " यहां यह देखने की जरूरत है कि क्या उस नीति पर दोबारा विचार करने की जरूरत है.'' "अमेरिका, यूरोपीय संघ और अन्य पश्चिमी शक्तियों की तरह, क्या भारत को उन मुद्दों को उठाना चाहिए जो क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर चिंता का विषय हैं? आखिरकार, अन्य देश भारत को दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के चश्मे से देखते हैं.''

ये भी पढ़ें: 'स्थिति चुनौतीपूर्ण है, लेकिन खुशी है कि फासीवादी शासन समाप्त हो गया है', साहित्यकार फरहाद मजहर

नई दिल्ली: बांग्लादेश में लगातार बिगड़ते हालात के बीच प्रधानमंत्री शेख हसीना को सत्ता गंवानी पड़ी और देश छोड़कर जाना पड़ गया. इस सप्ताह पड़ोसी देश में उत्पन्न राजनीतिक संकट ने भारत के लिए एक सवाल खड़ कर दिया है. प्रश्न यह है कि, क्या भारत को अपनी 'नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी' पर फिर से विचार करना चाहिए? भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बार कहा था कि, "आप अपने दोस्त बदल सकते हैं लेकिन अपने पड़ोसी को नहीं."

पीएम मोदी पड़ोसी देशों के साथ अच्छे संबंधों पर जोर दिया
हालाकि भारत ने ऐतिहासिक रूप से पड़ोसी देशों के साथ अपने संबंधों पर महत्वपूर्ण जोर दिया है. मई 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पदभार संभालने के बाद नेबरहुड फर्स्ट नीति की औपचारिक अभिव्यक्ति प्रमुख हो गई. इस नीति ने दक्षिण एशियाई देशों के साथ मजबूत संबंध बनाने पर नए सिरे से ध्यान केंद्रित किया और इसे क्षेत्रीय स्थिरता और पारस्परिक विकास सुनिश्चित करने के लिए एक रणनीतिक कदम के रूप में देखा गया.

इस नीति के मूल उद्देश्य क्या है?
नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी का मुख्य उद्देश्य संघर्षों को हल करके और विवादों को बढ़ने से रोककर क्षेत्र में शांति और स्थिरता सुनिश्चित करना है. दूसरा आपसी वृद्धि और विकास को बढ़ावा देने के लिए पड़ोसी देशों के साथ आर्थिक सहयोग और एकीकरण को बढ़ावा देना है. इसके साथ ही व्यापार और लोगों से लोगों के बीच संपर्क को सुविधाजनक बनाने के लिए सड़क, रेलवे और बंदरगाहों जैसी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के माध्यम से कनेक्टिविटी बढ़ाना भी है. इस नीति का उद्देश्य शैक्षिक आदान-प्रदान, पर्यटन और सांस्कृतिक कूटनीति के माध्यम से सांस्कृतिक और लोगों से लोगों के संबंधों को मजबूत करना है. इसके साथ-साथ आम क्षेत्रीय चुनौतियों से निपटने के लिए दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) और बंगाल की खाड़ी बहु-क्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग पहल (बिम्सटेक) जैसे क्षेत्रीय मंचों और संगठनों में शामिल होना नीति का उद्देश्य है.

मोदी ने सार्क देशों के नेताओं को आमंत्रित किया
यह बात तब स्पष्ट हो गई जब मई 2014 में मोदी ने अपने पहले शपथ ग्रहण समारोह के लिए सार्क देशों के नेताओं को आमंत्रित किया. यह पड़ोसी प्रथम नीति के महत्व को रेखांकित करने वाला एक प्रतीकात्मक संकेत था. इस नीति के तहत प्रमुख पहलों में आर्थिक और विकासात्मक सहायता, कनेक्टिविटी परियोजनाएं, व्यापार समझौते, सुरक्षा सहयोग और प्राकृतिक आपदाओं के दौरान मानवीय सहायता शामिल हैं. इन सबके पीछे विचार यह है कि भारत का राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक विकास काफी हद तक स्थिर, सुरक्षित और शांतिपूर्ण पड़ोस पर निर्भर है.

भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौती क्या है?
हालांकि, नई दिल्ली द्वारा इस नीति को अपनी विदेश नीति पहल के एक महत्वपूर्ण हिस्से के रूप में अपनाने के बावजूद, शासन की अस्थिरता भारत के तत्काल पड़ोसियों को परेशान कर रही है. नवीनतम उदाहरण बांग्लादेश का मामला है. नेपाल में 2008 में राजशाही की समाप्ति के बाद से लगातार सरकार बदलती रही है और कोई भी सरकार पूरे कार्यकाल तक टिक नहीं पाई. वहीं, म्यांमार में, 2021 में सैन्य तख्तापलट के बाद गृहयुद्ध छिड़ गया और नोबेल पुरस्कार विजेता आंग सान सू की की लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार को हटा दिया गया था. दूसरी तरफ श्रीलंका 2022 में एक बड़े आर्थिक संकट की चपेट में आ गया था, जिसके कारण तत्कालीन राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे देश से भाग गए थे. वहीं, मालदीव भारत समर्थक और भारत विरोधी सरकारों के बीच झूल रहा है.

क्या बांग्लादेश संकट भारत को सोचने पर कर रहा मजबूर?
वर्तमान में भारत का पड़ोसी देश बांग्लादेश अब निर्णायक बिंदु बनकर सामने आया है. एक पड़ोसी जिसके साथ नई दिल्ली के कुछ दिन पहले तक सबसे करीबी संबंध थे, अब संभावित रूप से भारत विरोधी शासन के सत्ता में आने की संभावनाएं देख रहा है. इन सबके बीच चीन लगातार दक्षिण एशियाई देशों के बीच अपना प्रभाव बढ़ाने के एजेंडे को आगे बढ़ा रहा है. इन परिस्थितियों में यह सवाल उठता है कि क्या नई दिल्ली को अपनी पड़ोसी प्रथम नीति पर फिर से विचार करना चाहिए.

शिलांग स्थित थिंक टैंक एशियन कॉन्फ्लुएंस के फेलो के योहोम ने कहा...
इस विषय पर शिलांग स्थित थिंक टैंक एशियन कॉन्फ्लुएंस के फेलो के योहोम ने ईटीवी भारत को बताया, "नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी की मूल धारणा यह थी कि अगर भारत अपनी समृद्धि को अपने छोटे पड़ोसियों के साथ साझा कर सकता है, तो सीमाओं के पार अस्थिरता भारतीय क्षेत्र में नहीं फैलेगी." उन्होंने आगे कहा, "अपने आर्थिक विकास को छोटे पड़ोसी देशों के साथ साझा करके, भारत क्षेत्र में स्थिरता का स्तर सुनिश्चित करना चाहता है."योहोम ने बताया कि इसका एक बाहरी आयाम भी है.

उन्होंने आगे कहा, "इन देशों के साथ आर्थिक रूप से एकीकरण करके, भारत यह सुनिश्चित कर सकता है कि उसके हितों के प्रतिकूल बाहरी शक्तियां इस क्षेत्र में पैर न जमा सकें." उन्होंने यह भी कहा कि, "इस पृष्ठभूमि में, अगर हम बांग्लादेश में राजनीतिक विकास को देखें, तो सवाल यह है कि क्या भारत की नेबरहुड फर्स्ट नीति ने पड़ोस में वांछित लक्ष्य हासिल किए हैं." साथ ही, योहोम ने कहा कि बांग्लादेश में घरेलू संकट भारत के नियंत्रण से परे थी.

शेख हसीना को धर्मनिरपेक्ष और इस्लामी तत्वों के विरोधी के रूप में देखा गया
योहोम ने ईटीवी भारत को बताया, "इन देशों के भीतर कुछ आंतरिक विकास आवश्यक रूप से भारत द्वारा नहीं किए गए हैं....ऐसे कई मामलों में, गतिशीलता भीतर से संचालित होती है. हालांकि, बांग्लादेश के मामले में, जिस चीज ने भारत को तस्वीर में लाया, वह हसीना का देश में शरण लेने का निर्णय था. योहोम ने आगे कहा कि, राजनीतिक स्तर पर, हसीना ने भारत के नेतृत्व के साथ घनिष्ठ व्यक्तिगत संबंध विकसित किए थे. उन्होंने यह सुनिश्चित करने जैसी भारत की चिंताओं पर भी सकारात्मक प्रतिक्रिया दी थी कि पूर्वोत्तर के विद्रोहियों को उनके देश में आश्रय न मिले. शेख हसीना को धर्मनिरपेक्ष और इस्लामी तत्वों के विरोधी के रूप में देखा जाता है.

हसीना की निरंकुश कार्यशैली
हालांकि, अपनी बढ़ती निरंकुश कार्यशैली के कारण हसीना अपने ही देश के लोगों के बीच लोकप्रियता खो रही थीं. इस साल जनवरी में बांग्लादेश में हुए संसदीय चुनावों से पहले, उन्होंने चुनाव प्रक्रिया के दौरान अंतरिम सरकार स्थापित करने की विपक्षी दलों की मांग को मानने से लगातार इनकार कर दिया. हालांकि अमेरिका, यूरोपीय संघ और अन्य पश्चिमी शक्तियों ने उन्हें विपक्ष की मांग स्वीकार करने के लिए मनाया, लेकिन उन्होंने इसे आंतरिक मामले में बाहरी हस्तक्षेप कहकर खारिज कर दिया. इस पूरे समय भारत ने तटस्थ रुख बनाए रखा. अंत में, मुख्य विपक्षी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (BNP) सहित सभी विपक्षी दलों ने, जो अतीत में सत्ता में रहते हुए अपनी भारत विरोधी नीतियों के लिए जानी जाती थी, ने आखिरकार हुए चुनावों का बहिष्कार किया. परिणामस्वरूप, जब हसीना की अवामी लीग सत्ता में वापस आई, तो उसने विपक्ष-विहीन सरकार चलानी शुरू कर दी. उन्होंने कहा कि, किसी भी लोकतंत्र के सुचारु रूप से कार्य करने के लिए एक मजबूत विपक्ष का होना आवश्यक है.

"बांग्लादेश में कोटा आंदोलन आतंकवादी हमलों में तब्दील हुआ"
उन्होंने कहा कि, विपक्ष के न होने से बांग्लादेश के सिस्टम के अंदर खलबली मच गई. परिणामस्वरूप नौकरी कोटा व्यवस्था के विरोध में छात्रों के आंदोलन ने हसीना की सरकार के खिलाफ इस्लामी ताकतों से जुड़े एक पूर्ण विद्रोह में बदल गया. जिसका परिणाम यह हुआ कि शेख हसीना को सत्ता से बाहर होना पड़ा और देश में उत्पन्न हिंसा में 300 से अधिक लोगों की मौत हो गई.

बांग्लादेश संकट पर हसीना ने प्रणय वर्मा से क्या कहा था?
योहोम ने भारत-बांग्लादेश संबंधों को दो स्तरों पर देखने की आवश्यकताओं पर बल दिया. उन्होंने कहा, "बांग्लादेश छोड़कर हसीना के जाने से पहले पिछले 24 घंटों में भारत की भूमिका का आकलन करना है. हालांकि हसीना के जाने से पहले अंतिम क्षणों में भारत की भागीदारी का कोई सबूत नहीं है, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय प्रतिष्ठान के भीतर कुछ हलकों को घटनाक्रम के बारे में जानकारी थी." दरअसल, हसीना ने पिछले हफ्ते ढाका में बांग्लादेश में भारतीय उच्चायुक्त प्रणय वर्मा से मुलाकात की और उन्हें अपने देश की स्थिति से अवगत कराया. खबरों के मुताबिक, शेख हसीना ने वर्मा को बताया था कि हाल के कोटा सुधार आंदोलन के दौरान अराजकतावादियों ने देश में श्रीलंका जैसी तबाही मचाने की कोशिश कर सरकार को गिराने की योजना बनाई थी. उन्होंने कहा कि कोटा सुधार पर केंद्रित हालिया आंदोलन बिल्कुल भी सामान्य आंदोलन नहीं था और एक समय यह लगभग आतंकवादी जैसे हमले में बदल गया था.

भारत-बांग्लादेश संबंध और शेख हसीना
योहोम के अनुसार दूसरा स्तर, हसीना के शासन के तहत पिछले कई वर्षों में भारत-बांग्लादेश संबंधों का आकलन करना है. उन्होंने कहा, ''हसीना के नेतृत्व में भारत बांग्लादेश के साथ गहरे संबंध विकसित करने में सक्षम था.'' उन्होंने आगे कहा, "यह एक अच्छा सौहार्दपूर्ण संबंध था और भारत कनेक्टिविटी के निर्माण जैसे पड़ोसी प्रथम नीति के कुछ पहलुओं को लागू करने में सक्षम था. आर्थिक संबंध बहुत अच्छे थे.

उन्होंने कहा कि, भारत द्वारा बांग्लादेश के सशस्त्र बलों को रक्षा उपकरण और प्रशिक्षण प्रदान करने से रक्षा संबंध मजबूत हुए." योहोम ने कहा कि, हालांकि आर्थिक सहायता और मानवीय सहायता ठीक है, लेकिन राजनीतिक गतिशीलता को छोड़कर पड़ोसी देशों में सत्ता में मौजूद किसी भी सरकार के साथ जुड़ना भारतीय नेतृत्व की प्रवृत्ति है, जिसे देखने की जरूरत है. इस संबंध में, उन्होंने म्यांमार में सैन्य जुंटा नेताओं के साथ भारतीय प्रतिष्ठान की भागीदारी का जिक्र भी किया. उन्होंने कहा, " यहां यह देखने की जरूरत है कि क्या उस नीति पर दोबारा विचार करने की जरूरत है.'' "अमेरिका, यूरोपीय संघ और अन्य पश्चिमी शक्तियों की तरह, क्या भारत को उन मुद्दों को उठाना चाहिए जो क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर चिंता का विषय हैं? आखिरकार, अन्य देश भारत को दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के चश्मे से देखते हैं.''

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