देहरादून: 'उत्तराखंड मांगे भू-कानून'... पहाड़ी प्रदेश की ये एक मांग जो सालों से उठती चली आ रही है. ये केवल एक मांग नहीं बल्कि अब आंदोलन का स्वरूप ले चुकी है. पर्यावरणविद और राज्य के लोग इस मांग को अबतक की सभी सरकारों के सामने उठा चुके हैं, लेकिन साल 2000 में अस्तित्व में आए उत्तराखंड सरकार को 24 साल बाद साल 2025 में इस 'गंभीर' मुद्दे पर पहली सफलता मिली है.
दरअसल, उत्तराखंड बजट सत्र 2025 के दूसरे दिन की कार्यवाही से पहले विधामसभा परिसर में हुई मंत्रिमंडल की बैठक में धामी सरकार ने भू-कानून (Land Law) से जुड़ा एक अहम फैसला लिया है. धामी सरकार ने उत्तराखंड में सख्त भू-कानून को मंजूरी दे दी है. इस भू कानून के बाद कोई भी बाहरी व्यक्ति उत्तराखंड में जमीन नहीं खरीद पाएगा. इसके साथ ही उत्तराखंड की जमीनों को बचाने को लेकर भी कुछ बड़े निर्णय लिये गये हैं.
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भू-कानून के मुख्य बिंदु: बाहरी लोग हरिद्वार और उधमसिंह नगर के अलावा शेष 11 जिलों में कृषि व बागवानी के लिए भूमि नहीं खरीद सकेंगे. विशेष प्रयोजन के लिए जमीन खरीदने के लिए सरकार से अनुमति लेनी होगी. जमीन खरीदते समय सब रजिस्ट्रार को शपथ पत्र देना होगा.
तो आखिर उत्तराखंड को क्यों चाहिए सख्त भू कानून: सख्त भू कानून की जरूरत उत्तराखंड की पहचान के लिए जरूरी है. किसी भी राज्य के लिए पहचान का खत्म होना एक बड़ा संकट होता है. भू कानून के जरिये उत्तराखंड की पहाड़ी संस्कृति को बचाया जा सकेगा. सख्त भू कानून न होने की वजह से दूसरे जगहों से आये लोग बेरोक-टोक जमीन खरीदते हैं. जिससे प्रदेश में बाहरियों की संख्या बढ़ती है. भूमि बिक्री के कारण किसानों पर संकट मंडराता है. साथ ही सभ्यता और संसकृति भी खतरे में आ जाती है. यहीं कारण है कि लंबे समय से उत्तराखंड में सख्त भू कानून की मांग हो रही है.
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बच सकेगी बेशकीमती जमीन: भू कानून को लेकर वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत का कहना है कि, सख्त भू कानून किसी भी राज्य के लिए बहुत जरूरी है. इसके जरिए ही हम अपने राज्य की बेशकीमती कृषि और बागवानी जमीनों को बिकने से बचा सकते हैं. उन्होंने कहा, खाली होते पहाड़ों पर अक्सर मैदानी पैसे वालों की नजर रहती है, जिसे वो सस्ते दामों में आसानी से खरीद लेते हैं. ऐसे लोगों से बेशकीमती जमीनों को बचाने के लिए भू-कानून जरूरी है. उत्तराखंड में भी कृषि भूमि बचाने के लिए कड़े भू-अधिनियम की मांग की जा रही थी. सीएम पुष्कर सिंह धामी ने इसे गंभीरता से लेते हुए पहले ही आदेश जारी करते हुए आगामी आदेश तक सभी जिलों के मुखिया को बाहरी लोगों को आवेदन के बाद कृषि और बागवानी के लिए जमीन खरीद की अनुमति पर रोक लगा दी थी.
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पर्यावरण को मिलेगा फायदा: वहीं, सख्त भू कानून के पक्ष में उत्तराखंड के पर्यावरणविद अनिल जोशी भी हैं. उन्होंने कहा उत्तराखंड की जलवायु, जंगल, जल और जमीन बेशकीमती हैं. वन क्षेत्रों के बीच खेती की जमीन बहुत कम हैं. जिसे बचाना यहां के लोगों के लिए चुनौती है. उन्होंने कहा बाहरी लोग यहां जमीनें खरीद कर होटल, रिसॉर्ट तैयार करते हैं. जिसके लिए जंगल काटे जाते हैं. जिस पर रोक लगाये जाने की जरूरत है. उन्होंने उत्तराखंड की तुलना हिमाचल से की है. उन्होंने कहा उत्तराखंड में खेती से लोगों का मोह भंग हो रहा है, जबकि हिमाचल में ऐसा नहीं है. उन्होंने कहा बागवानी में हिमाचल अच्छा कर रहा है. उत्तराखंड को भी इस और प्रयास करना चाहिए. इसके लिए उत्तराखंड में सख्त भू-सुधार कानून जरूरी है. उन्होंने कहा उत्तराखंड में सख्त भू कानून आने के बाद जंगलों के कटान पर भी रोक लगेगी. साथ ही पर्यावरण को भी इससे फायदा होगा.
हिमाचल जैसे भू-कानून की हो रही थी मांग: उत्तराखंड से काफी साल पहले ही हिमाचल राज्य अस्तिस्व में आ गया था. साल 1971 में ही हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा मिल गया था और इसी के साथ वो देश का 18वां राज्य बना. उत्तराखंड साल 2000 में अस्तित्व में आया. इन दोनों राज्यों में सबसे बड़ा अंतर ये रहा कि जहां उत्तराखंड को एक सशक्त भू-कानून के दिशा में आगे बढ़ने के लिए 24 साल लग गए, वहीं अस्तित्व में आने के एक साल बाद ही भविष्य को भांपते हुए हिमाचल में भूमि सुधार कानून लागू हो गया था.
हिमाचल के भू-कानून की धारा 118 के तहत, यहां कोई भी बाहरी राज्य का व्यक्ति कृषि जमीन अपने निजी उपयोग के लिए नहीं खरीद सकता. इसके साथ ही लैंड सीलिंग एक्ट के तहत भी यहां कोई व्यक्ति 150 बीघा जमीन से ज्यादा नहीं रख सकता. हालांकि, उद्योगों के लिए हिमाचल सरकार जमीन देती है.
दूसरी कमी ये रही कि जहां हिमाचल के लोग अपने भू-अधिकारों के प्रति पहले से ही सजग रहे, तो वहीं उत्तराखंड के पहाड़ी ग्रामीण क्षेत्रों में लोग अपनी जमीने बेचते रहे और जमीन विहीन हो गए. बाहरी लोग यहां बिना रोकटोक जमीन खरीदते रहे, यहां बड़े रिजॉर्ट, होटल बनते रहे और इसका खामियाजा पहाड़ी लोगों को भुगतना पड़ा.
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