शिमला: हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने हाल ही में राज्य की सुखविंदर सिंह सुक्खू सरकार की तरफ से नियुक्त छह सीपीएस को उनके पद से हटाने का आदेश दिया साथ ही राज्य के संसदीय सचिव एक्ट को भी असंवैधानिक बताकर अमान्य करार दिया. सुखविंदर सुक्खू के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार चाहती तो इस मामले में हाईकोर्ट के फैसले को स्वीकार करते हुए चुप्पी साध लेती, परंतु सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का रुख करने की ठान ली. हालांकि सुक्खू सरकार के कैबिनेट मंत्री राजेश धर्माणी ने अपनी राय व्यक्त की थी कि इस मामले को अब और आगे न खींचा जाए, लेकिन सरकार नहीं मानी.
मामले में सुप्रीम कोर्ट में शुक्रवार को सुनवाई प्रस्तावित है. यहां दिलचस्प बात दर्ज करना जरूरी है कि कैबिनेट मंत्री राजेश धर्माणी वही कांग्रेस नेता हैं जिन्होंने वीरभद्र सिंह सरकार के समय सीपीएस का पद छोड़ दिया था तब धर्माणी ने इसे गैर जरूरी पद बताया था. इस बार वह सुखविंदर सिंह सुक्खू सरकार में कैबिनेट मंत्री बनाए गए हैं. अब भी धर्माणी का स्टैंड वही है. यानी ये कहा जा सकता है कि राजेश धर्माणी के वीरभद्र सिंह सरकार के समय सीपीएस को लेकर जो विचार थे, वही आज भी हैं. फिलहाल, सुक्खू सरकार ने फैसला ले लिया है कि वो हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देकर लड़ाई लड़ेगी. सुक्खू सरकार का तर्क है कि हिमाचल का संसदीय सचिव एक्ट असम से अलग है. उल्लेखनीय है कि हाईकोर्ट ने अपने फैसले में असम के बिमलांग्शू रॉय केस का हवाला दिया था.
वीरभद्र सिंह सरकार के समय अस्तित्व में आया एक्ट
हिमाचल प्रदेश में वीरभद्र सिंह सरकार के समय ये एक्ट अस्तित्व में आया था. इस एक्ट का नाम हिमाचल प्रदेश संसदीय सचिव (नियुक्ति, वेतन, भत्ते, शक्तियां, विशेषाधिकार और सुविधाएं) अधिनियम, 2006 रखा गया था. इस एक्ट के अनुसार मुख्यमंत्री अपने विशेषाधिकार से सरकार में मुख्य संसदीय सचिव व संसदीय सचिवों की नियुक्ति कर सकते हैं. इन्हें शपथ दिलाना भी मुख्यमंत्री के अधिकार क्षेत्र में रखा गया था. एक्ट में संसदीय सचिवों की शक्तियों, वेतन-भत्ते आदि का ब्यौरा दर्ज किया गया था.
इस एक्ट को 23 जनवरी 2007 में राज्यपाल की मंजूरी मिली थी. इस एक्ट को 27 दिसंबर 2006 को पास किया गया था. वीरभद्र सिंह सरकार के समय सीपीएस व पीएस दोनों नियुक्त थे. प्रेम कुमार धूमल के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार में भी सीपीएस की नियुक्ति की गई थी बाद में जयराम सरकार के समय सीपीएस की नियुक्ति से परहेज किया गया.
- ये भी पढ़ें: CPS मामले में सुक्खू सरकार के मंत्री का बयान, सुप्रीम कोर्ट जाना नहीं है अच्छा ऑप्शन
- ये भी पढ़ें: हाई कोर्ट के आदेश के बाद सुखविंदर सरकार ने हटाया सीपीएस का स्टाफ, अधिसूचना जारी
सुखविंदर सिंह सुक्खू सरकार ने सत्ता में आकर छह सीपीएस बनाए. सुक्खू सरकार ने पीएस यानी संसदीय सचिव नहीं बनाए. सीपीएस के पास किसी भी प्रशासनिक सचिव के प्रस्ताव को मंजूर करने की शक्तियां नहीं रखी गई थी. अलबत्ता वो फाइल पर विभाग विशेष के मिनिस्टर इंचार्ज के ध्यानार्थ नोट लिख सकता था. सीपीएस को मूल वेतन के तौर पर 65 हजार रुपये मिलते थे. संसदीय सचिव के लिए ये वेतन 60 हजार रुपए था. कुल वेतन व भत्तों के तौर पर सीपीएस को 2.25 लाख रुपये मिलते थे. इसके अलावा सरकारी मकान, गाड़ी, स्टाफ आदि की सुविधा रखी गई थी.
आखिर क्यों नियुक्त होते हैं सीपीएस या पीएस?
राजनीतिक रूप से देखें तो मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्ति किसी भी सरकार में अपने करीबी लोगों को एडजस्ट करने के लिए की जाती रही है. हिमाचल में मंत्रिमंडल का आकार सीएम सहित 12 का है. अन्य विधायकों को सीपीएस के तौर पर एडजस्ट किया जाता था. सुखविंदर सिंह सुक्खू सरकार में सीएम के छह करीबियों को सीपीएस बनाया गया था. सुंदर सिंह ठाकुर, संजय अवस्थी, रामकुमार चौधरी, आशीष बुटेल, किशोरी लाल व मोहन लाल ब्राक्टा सीपीएस बनाए गए थे. ये सभी किसी न किसी रूप में सीएम सुखविंदर सिंह सुक्खू के करीबी हैं. इन्हें विभाग विशेष के साथ अटैच किया गया था. हालांकि सीपीएस मंत्रियों को सिर्फ सलाह दे सकते थे, लेकिन उनकी नियुक्ति के खिलाफ भाजपा विधायक हाईकोर्ट चले गए थे.
वीरभद्र व धूमल सरकारों में भी बने सीपीएस
वीरभद्र सिंह सरकार ने साल 2013 में दस सीपीएस बनाए थे. तीन अलग-अलग तारीखों में ये सीपीएस नियुक्त किए गए थे. इनमें सोहन लाल ठाकुर, नंदलाल, नीरज भारती, राजेश धर्माणी, मनसा राम, जगजीवन पाल, राकेश कालिया, आईडी लखनपाल, रोहित ठाकुर व विनय कुमार शामिल थे. बाद में मार्च 2014 में राजेश धर्माणी ने सीपीएस का पद छोड़ दिया था. धर्माणी का मानना था कि ये पद महज दिखावा है. वहीं, राजेश धर्माणी अब सुक्खू सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं और अभी भी उन्होंने सरकार को सलाह दी थी कि सुप्रीम कोर्ट नहीं जाना चाहिए. खैर, प्रेम कुमार धूमल के नेतृत्व में भाजपा सरकार ने सतपाल सिंह सत्ती, सुखराम चौधरी व वीरेंद्र कंवर को सीपीएस बनाया था. ये नियुक्ति साल 2009 में की गई थी. दिलचस्प तथ्य ये है कि मौजूदा सुक्खू सरकार में सीपीएस की नियुक्ति को चुनौती देने वाली याचिका के मुख्य याची खुद सतपाल सिंह सत्ती थे.
वीरभद्र सिंह ने बनाया एक्ट
वीरभद्र सिंह सरकार ने वर्ष 2006 में एक्ट बनाया. ये दिसंबर की बात थी. उसके बाद वर्ष 2007 में प्रेम कुमार धूमल की सरकार सत्ता में आई. धूमल सरकार ने 2009 में तीन सीपीएस बनाए फिर 2012 में वीरभद्र सिंह फिर से सत्ता में आए. वीरभद्र सिंह सरकार ने 2013 में दस सीपीएस बनाए. उन्हें पीपल फॉर रिस्पॉन्सिबल गवर्नेंस ने हाईकोर्ट में चुनौती दी.
मामला हाईकोर्ट में चलता रहा और इस दौरान वीरभद्र सिंह सरकार सत्ता से चली गई. इस याचिका में अभी 2024 में फैसला आया है. वरिष्ठ मीडिया कर्मी धनंजय शर्मा का कहना है कि विधायकों को एडजस्ट करना हर सरकार के लिए चुनौती होता है. यही कारण है कि या तो सीपीएस बनाए जाते हैं या फिर चीफ और डिप्टी चीफ व्हिप. जयराम सरकार ने अपने कार्यकाल में सीपीएस बनाने से परहेज किया था. ये भी सोचने वाली बात है कि जब सीपीएस को कई राज्यों में हटाया गया तो सुखविंदर सरकार ने छह सीपीएस की नियुक्ति क्यों की.
एडवोकेट पंकज चौहान का कहना है कि सीपीएस नियुक्ति को लेकर अदालतों की स्पष्ट रुख रहा है. ये तय था कि हाईकोर्ट में भी सीपीएस की नियुक्ति का एक्ट टिकेगा नहीं और ऐसा ही हुआ भी. एडवोकेट पंकज चौहान का मानना है कि सरकार को इस बारे में सोच-समझकर फैसला करना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट जाने की कोई वजह दिखाई नहीं देती. वहीं, राज्य के एडवोकेट जनरल अनूप रत्न का मानना है कि सरकार ने हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का निर्णय लिया है. मामले में कल यानी शुक्रवार को सुनवाई होगी. राजनीतिक विश्लेषक बलदेव शर्मा का कहना है कि सीपीएस पर हाईकोर्ट के फैसले से प्रदेश की राजनीति पर दूरगामी असर होगा.