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हिमालय के पर्यावरण पर मंडरा रहा खतरा, WIHG के वैज्ञानिकों ने अनियोजित विकास को बताया वजह - HIMALAYA DIWAS 2024

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By ETV Bharat Uttarakhand Team

Published : Sep 9, 2024, 12:56 PM IST

Uttarakhand Himalaya Diwas 2024 हिमालय का नाम सुनते ही सभी के जेहन में बर्फ से लदे पहाड़, खूबसूरत वादियां, नदिया, झरने की तस्वींर सामने आती है. लेकिन ये हिमालय इन तमाम खूबियों को समेटने के साथ ही पर्यावरण को संरक्षित करने में भी अहम भूमिका निभाता है. साथ ही हिमालय दिवस पर इस बात पर जोर दिया जा रहा है कि अगले एक दशक में अगर वैज्ञानिकों की बातों पर ध्यान नहीं दिया तो स्थिति नियंत्रण से बाहर हो सकती है.

Uttarakhand Himalaya Diwas 2024
उत्तराखंड हिमालय दिवस (Photo- ETV Bharat)
अनियोजित विकास हिमालय के लिए खतरा (Video- ETV Bharat)

देहरादून (उत्तराखंड): उत्तराखंड राज्य के हिमालय और प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और संवर्धन किए जाने को लेकर अनौपचारिक रूप से हिमालय दिवस की शुरुआत साल 2010 में की गई. हालांकि शुरुआती दौर में तमाम सामाजिक संगठनों ने 9 सितंबर को हिमालय दिवस मनाने पर जोर दिया था. इसके बाद साल 2014 में तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत ने 9 सितंबर को हिमालय दिवस मनाने को लेकर इस बाबत आधिकारिक घोषणा की थी. इसके बाद से ही हर साल हिमालय दिवस मनाया जाता है साथ ही हिमालय की स्थितियां और परिस्थितियों को लेकर चर्चा भी की जाती है.क्योंकि, अगर हिमालय नहीं बचेगा तो जीवन नहीं बचेगा.

पर्वतीय क्षेत्रों में वैज्ञानिक तकनीक से विकास की दरकार: दरअसल, हिमालय प्राण वायु के साथ ही पर्यावरण को संरक्षित और जैव विविधता को भी बनाकर रखता है. लेकिन मौजूदा स्थिति यह है कि हिमालय में हो रहे अनियंत्रित विकास पर वैज्ञानिक चिंता जाहिर कर रहे हैं. लेकिन उत्तराखंड की मौजूदा स्थिति यह है कि अनियंत्रित विकास विनाश को न्यौता दे रहा है. दरअसल, उत्तराखंड राज्य की विषम भौगोलिक परिस्थितियों के चलते आपदा जैसे हालात बनते रहे हैं. खासकर मानसून सीजन के दौरान प्रदेश की स्थिति काफी दयनीय हो जाती है.

विकास के लिए वैज्ञानिकों की बातों पर ध्यान देने की जरूरत: यही वजह है कि वैज्ञानिक हिमालय की संवेदनशीलता को देखते हुए इस बात पर जोर दे रहे हैं कि प्रदेश में पर्वतीय क्षेत्रों में अत्यधिक विकास ठीक नहीं है. क्योंकि लगभग पूरा हिमालय ही काफी संवेदनशील है, ऐसे में यहां पर बहुत ही सोच समझकर विकास कार्य होने चाहिए. साथ ही विकास के लिए वैज्ञानिकों की बातों पर भी ध्यान देने की जरूरत है. क्योंकि अगर अगले एक दशक तक ध्यान नहीं दिया गया तो बड़ी आपदा आने के अंदेशे से इनकार नहीं किया जा सकता.

WIHG के निदेशक ने क्या कहा: हर साल हिमालय दिवस हिमालय की पारिस्थितिकी और क्षेत्र के संरक्षण के लिए मनाया जाता है. वहीं हिमालय के नजदीकी क्षेत्रों में अनियोजित विकास वैज्ञानिकों की चिंता को बढ़ा रही है. इस विषय पर देहरादून स्थित वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान (WIHG) के निदेशक प्रोफेसर एमजी ठक्कर ने बताया कि हिमालय पर्वत श्रृंखला करीब ढाई हजार किलोमीटर लंबी है जो पूरे विश्व में न सिर्फ सबसे ऊंची है बल्कि यंग पर्वत श्रृंखला भी है. ऐसे में अगर कोई पर्वत श्रृंखला जीतना यंग होगी, उतनी ही संवेदनशील भी होती है.

भारी बारिश से टूटने लगते हैं पहाड़ी के पत्थर: क्योंकि पर्वत की ऊंचाई हर साल करीब 4 सेंटीमीटर तक बढ़ रही है. दरअसल, जब पहाड़ की ऊंचाई बढ़ती है तो पहाड़ के पत्थर अनस्टेबल हो जाते हैं. भारत में हिमालय का जो हिस्सा है वो करीब 200 किलोमीटर की चौड़ाई में है और उसमें 45 डिग्री से ज्यादा ग्रेडिएंट (ढाल) है. ऐसे में जितने भी कंस्ट्रक्शन और ह्यूमन अट्रैक्शन हो रहा है वो 45 डिग्री स्लोप पर हो रहा है. यानी पर्वत श्रृंखला इतनी कमजोर है कि भारी बारिश होती है तो पत्थरों का टूटना शुरू हो जाता है.

तेजी से हो रहा क्लाइमेट चेंज: साथ ही बताया कि पिछले दो दशक से क्लाइमेट चेंज काफी अधिक दिखाई दे रहा है. भारत देश में क्लाइमेट चेंज का असर अधिक इसलिए है, क्योंकि अरब सागर का सी सरफेस टेंपरेचर (sea surface temperature) पिछले दो दशक में सामान्य से दो डिग्री बढ़ गया है. 2 डिग्री तापमान बढ़ने से साइक्लोन की संख्या काफी अधिक बढ़ गई है. वहीं साइक्लोन के वजह से कई जगहों पर बाढ़ की घटना व बादल फटने की घटना पैदा हो रही हैं. पिछले दो दशकों से ऐसा क्यों हो रहा है, इसके पीछे मानव हस्तक्षेप का कितना बड़ा योगदान है, इसे वैज्ञानिक समझने जा रहे हैं. क्योंकि इसका सबसे अधिक असर संवेदनशील सिस्टम पर होता है.

क्लाइमेट चेंज और भूकंप हिमालय के लिए खतरनाक: हिमालय का सिस्टम इतना संवेदनशील है कि जब बादल फटने जैसी घटनाएं होती हैं तो उससे नदी नाले उफान पर आ जाते हैं और बाढ़ जैसी स्थिति पैदा हो जाती है. ऐसे में जब हिमालयन सिस्टम के स्लोप के अंदर बाढ़ आती है तो सिस्टम लैंडस्लाइड के साथ ही स्नो एवलॉन्च को भी ट्रिगर करता है. साथ ही कहा कि जब पर्वत श्रृंखला एक्टिव होती हैं तो पर्वत के सभी फॉल्ट सिस्टम भी एक्टिव रहते हैं. लिहाजा, हिमालय की मेन बाउंड्री थ्रस्ट (एमबीटी) और मेन सेंट्रल थ्रस्ट (एमसीटी) इतनी एक्टिव है वो भी पहाड़ के पत्थरों को कमजोर बनाते हैं. लेकिन जब हर एक फॉल्ट के ऊपर एक्टिविटी होती है तो उससे भूकंप पैदा होती है. ऐसे में जब भूकंप आता है वो उसके कंपन से हिमालयन क्षेत्रों में लैंडस्लाइड भी ट्रिगर होती है. यानी क्लाइमेट चेंज और भूकंप की वजह से लैंडस्लाइड ट्रिगर होती है.

आपदा की सटीक जानकारी: एमजी ठक्कर ने कहा कि भारतीय हिमालय में बहुत सारी समस्याएं हैं, जिनको समझना बहुत जरूरी है. क्लाइमेट चेंज को रोका नहीं जा सकता है, लेकिन मिटिगेशन नाप (किसी चीज की ताकत, तीव्रता, या गंभीरता को कम करना) ले सकते हैं कि कौन सा गांव कहां है और वो कितना संवेदनशील हैं. ऐसे में वैज्ञानिक अध्ययन कर बता सकता है कि, कितना क्षेत्र संवेदनशील है जो टेक्टोनिक फाल्ट के ऊपर मौजूद है. कितना क्षेत्र है जहां बादल फटने की संभावना बनी रहती है, इसकी सटीक जानकारी मिल सकती है. हालांकि, पिछले दो दशकों में तमाम वैज्ञानिकों ने ये बता दिया है कि कौन-कौन सा क्षेत्र संवेदनशील है, जहां से आबादी हटानी पड़ेगी या फिर कौन-कौन सा क्षेत्र ऐसा है जहां आबादी बढ़ने से रोकने की जरूरत है.

भयंकर आपदा की घंटी: हिमालय स्लोप में अत्यधिक निर्माण ठीक नहीं है, जो एक कड़वी वास्तविकता है. जिसे सभी को समझाना पड़ेगा और उसी अनुसार प्लानिंग करना पड़ेगा. नैनीताल में काफी बड़े-बड़े बिल्डिंग बन रहे हैं, लेकिन एक बड़े भूकंप के झटके से यह सभी बिल्डिंग धराशायी हो जाएंगे. वैज्ञानिक इन तमाम पहलुओं पर अध्ययन कर चुके हैं और इसकी जानकारी प्रशासन को दे भी चुके हैं. लेकिन इसको अपने प्लानिंग में शामिल करने की आवश्यकता है. साथ ही कहा कि अगर वैज्ञानिकों की बातों को आने वाले दशक में नहीं माना गया तो इतनी बड़ी आपदाएं आ सकती हैं, जिसका अनुमान भी नहीं लगा सकते. साथ ही बताया कि जन जागरूकता इसके लिए काफी महत्वपूर्ण है.

अध्ययन कर रहे WIHG के वैज्ञानिक: डब्लूआईएचजी के सीनियर वैज्ञानिक डॉ. आरजे पेरूमल ने बताया कि अगर पृथ्वी को बचाना है तो हिमालय को बचाने की जरूरत है. हालांकि, हिमालय में जो कुछ हो रहा है उसे जियोलॉजिकल और नेचुरल प्रोसेस बोलते हैं. लेकिन हिमालय में इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित कर दिया गया है. हालांकि ऐसा नहीं है कि ढांचागत विकास नहीं होना चाहिए, बल्कि ज्यादा बड़ा इंफ्रास्ट्रक्चर डिवेलप करने से पहले क्रिटिकल जोन का अध्ययन करना चाहिए. क्योंकि जहां भी नेचुरल प्रोसेस होता है वह एक पैटर्न शो करता है. जिस पर वाडिया इंस्टीट्यूट अध्ययन कर रहा है कि नेचुरल प्रोसेस का पैटर्न क्या है?

पर्वतीय क्षेत्रों ढांचागत विकास: डॉ. आरजे पेरूमल ने कहा कि ऐसे में जब नेचुरल प्रोसेस के पैटर्न को समझना आसान हो जाएगा, तब किसी भी आपदा के आने का पूर्वानुमान लगाया जा सकेगा. पर्वतीय क्षेत्रों पर ढांचागत विकास किया जा सकता है, लेकिन उस क्षेत्र की बेयरिंग और केयरिंग कैपेसिटी के आधार पर ही ढांचागत विकास होना चाहिए. अगर पर्वतीय क्षेत्र में कहीं भी डेवलपमेंट का कार्य करते हैं तो उसके लिए साइंटिफिक अध्ययन और प्रॉपर प्लानिंग किया जाना चाहिए. साथ ही बताया कि जब साल 2013 में केदारनाथ में आपदा आई थी,उसके बाद भारत सरकार ने एक प्रोग्राम शुरू किया था, प्रोग्राम के वाडिया के वैज्ञानिकों ने अध्ययन कर रिहैबिलिटेशन के लिए तमाम तरीके बताए थे. जिसका इस्तेमाल अगर पर्वतीय क्षेत्र में विकास के लिए किया जाता है तो इससे आने वाली चुनौतियों से पहले ही निपटा जा सकेगा.

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अनियोजित विकास हिमालय के लिए खतरा (Video- ETV Bharat)

देहरादून (उत्तराखंड): उत्तराखंड राज्य के हिमालय और प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और संवर्धन किए जाने को लेकर अनौपचारिक रूप से हिमालय दिवस की शुरुआत साल 2010 में की गई. हालांकि शुरुआती दौर में तमाम सामाजिक संगठनों ने 9 सितंबर को हिमालय दिवस मनाने पर जोर दिया था. इसके बाद साल 2014 में तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत ने 9 सितंबर को हिमालय दिवस मनाने को लेकर इस बाबत आधिकारिक घोषणा की थी. इसके बाद से ही हर साल हिमालय दिवस मनाया जाता है साथ ही हिमालय की स्थितियां और परिस्थितियों को लेकर चर्चा भी की जाती है.क्योंकि, अगर हिमालय नहीं बचेगा तो जीवन नहीं बचेगा.

पर्वतीय क्षेत्रों में वैज्ञानिक तकनीक से विकास की दरकार: दरअसल, हिमालय प्राण वायु के साथ ही पर्यावरण को संरक्षित और जैव विविधता को भी बनाकर रखता है. लेकिन मौजूदा स्थिति यह है कि हिमालय में हो रहे अनियंत्रित विकास पर वैज्ञानिक चिंता जाहिर कर रहे हैं. लेकिन उत्तराखंड की मौजूदा स्थिति यह है कि अनियंत्रित विकास विनाश को न्यौता दे रहा है. दरअसल, उत्तराखंड राज्य की विषम भौगोलिक परिस्थितियों के चलते आपदा जैसे हालात बनते रहे हैं. खासकर मानसून सीजन के दौरान प्रदेश की स्थिति काफी दयनीय हो जाती है.

विकास के लिए वैज्ञानिकों की बातों पर ध्यान देने की जरूरत: यही वजह है कि वैज्ञानिक हिमालय की संवेदनशीलता को देखते हुए इस बात पर जोर दे रहे हैं कि प्रदेश में पर्वतीय क्षेत्रों में अत्यधिक विकास ठीक नहीं है. क्योंकि लगभग पूरा हिमालय ही काफी संवेदनशील है, ऐसे में यहां पर बहुत ही सोच समझकर विकास कार्य होने चाहिए. साथ ही विकास के लिए वैज्ञानिकों की बातों पर भी ध्यान देने की जरूरत है. क्योंकि अगर अगले एक दशक तक ध्यान नहीं दिया गया तो बड़ी आपदा आने के अंदेशे से इनकार नहीं किया जा सकता.

WIHG के निदेशक ने क्या कहा: हर साल हिमालय दिवस हिमालय की पारिस्थितिकी और क्षेत्र के संरक्षण के लिए मनाया जाता है. वहीं हिमालय के नजदीकी क्षेत्रों में अनियोजित विकास वैज्ञानिकों की चिंता को बढ़ा रही है. इस विषय पर देहरादून स्थित वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान (WIHG) के निदेशक प्रोफेसर एमजी ठक्कर ने बताया कि हिमालय पर्वत श्रृंखला करीब ढाई हजार किलोमीटर लंबी है जो पूरे विश्व में न सिर्फ सबसे ऊंची है बल्कि यंग पर्वत श्रृंखला भी है. ऐसे में अगर कोई पर्वत श्रृंखला जीतना यंग होगी, उतनी ही संवेदनशील भी होती है.

भारी बारिश से टूटने लगते हैं पहाड़ी के पत्थर: क्योंकि पर्वत की ऊंचाई हर साल करीब 4 सेंटीमीटर तक बढ़ रही है. दरअसल, जब पहाड़ की ऊंचाई बढ़ती है तो पहाड़ के पत्थर अनस्टेबल हो जाते हैं. भारत में हिमालय का जो हिस्सा है वो करीब 200 किलोमीटर की चौड़ाई में है और उसमें 45 डिग्री से ज्यादा ग्रेडिएंट (ढाल) है. ऐसे में जितने भी कंस्ट्रक्शन और ह्यूमन अट्रैक्शन हो रहा है वो 45 डिग्री स्लोप पर हो रहा है. यानी पर्वत श्रृंखला इतनी कमजोर है कि भारी बारिश होती है तो पत्थरों का टूटना शुरू हो जाता है.

तेजी से हो रहा क्लाइमेट चेंज: साथ ही बताया कि पिछले दो दशक से क्लाइमेट चेंज काफी अधिक दिखाई दे रहा है. भारत देश में क्लाइमेट चेंज का असर अधिक इसलिए है, क्योंकि अरब सागर का सी सरफेस टेंपरेचर (sea surface temperature) पिछले दो दशक में सामान्य से दो डिग्री बढ़ गया है. 2 डिग्री तापमान बढ़ने से साइक्लोन की संख्या काफी अधिक बढ़ गई है. वहीं साइक्लोन के वजह से कई जगहों पर बाढ़ की घटना व बादल फटने की घटना पैदा हो रही हैं. पिछले दो दशकों से ऐसा क्यों हो रहा है, इसके पीछे मानव हस्तक्षेप का कितना बड़ा योगदान है, इसे वैज्ञानिक समझने जा रहे हैं. क्योंकि इसका सबसे अधिक असर संवेदनशील सिस्टम पर होता है.

क्लाइमेट चेंज और भूकंप हिमालय के लिए खतरनाक: हिमालय का सिस्टम इतना संवेदनशील है कि जब बादल फटने जैसी घटनाएं होती हैं तो उससे नदी नाले उफान पर आ जाते हैं और बाढ़ जैसी स्थिति पैदा हो जाती है. ऐसे में जब हिमालयन सिस्टम के स्लोप के अंदर बाढ़ आती है तो सिस्टम लैंडस्लाइड के साथ ही स्नो एवलॉन्च को भी ट्रिगर करता है. साथ ही कहा कि जब पर्वत श्रृंखला एक्टिव होती हैं तो पर्वत के सभी फॉल्ट सिस्टम भी एक्टिव रहते हैं. लिहाजा, हिमालय की मेन बाउंड्री थ्रस्ट (एमबीटी) और मेन सेंट्रल थ्रस्ट (एमसीटी) इतनी एक्टिव है वो भी पहाड़ के पत्थरों को कमजोर बनाते हैं. लेकिन जब हर एक फॉल्ट के ऊपर एक्टिविटी होती है तो उससे भूकंप पैदा होती है. ऐसे में जब भूकंप आता है वो उसके कंपन से हिमालयन क्षेत्रों में लैंडस्लाइड भी ट्रिगर होती है. यानी क्लाइमेट चेंज और भूकंप की वजह से लैंडस्लाइड ट्रिगर होती है.

आपदा की सटीक जानकारी: एमजी ठक्कर ने कहा कि भारतीय हिमालय में बहुत सारी समस्याएं हैं, जिनको समझना बहुत जरूरी है. क्लाइमेट चेंज को रोका नहीं जा सकता है, लेकिन मिटिगेशन नाप (किसी चीज की ताकत, तीव्रता, या गंभीरता को कम करना) ले सकते हैं कि कौन सा गांव कहां है और वो कितना संवेदनशील हैं. ऐसे में वैज्ञानिक अध्ययन कर बता सकता है कि, कितना क्षेत्र संवेदनशील है जो टेक्टोनिक फाल्ट के ऊपर मौजूद है. कितना क्षेत्र है जहां बादल फटने की संभावना बनी रहती है, इसकी सटीक जानकारी मिल सकती है. हालांकि, पिछले दो दशकों में तमाम वैज्ञानिकों ने ये बता दिया है कि कौन-कौन सा क्षेत्र संवेदनशील है, जहां से आबादी हटानी पड़ेगी या फिर कौन-कौन सा क्षेत्र ऐसा है जहां आबादी बढ़ने से रोकने की जरूरत है.

भयंकर आपदा की घंटी: हिमालय स्लोप में अत्यधिक निर्माण ठीक नहीं है, जो एक कड़वी वास्तविकता है. जिसे सभी को समझाना पड़ेगा और उसी अनुसार प्लानिंग करना पड़ेगा. नैनीताल में काफी बड़े-बड़े बिल्डिंग बन रहे हैं, लेकिन एक बड़े भूकंप के झटके से यह सभी बिल्डिंग धराशायी हो जाएंगे. वैज्ञानिक इन तमाम पहलुओं पर अध्ययन कर चुके हैं और इसकी जानकारी प्रशासन को दे भी चुके हैं. लेकिन इसको अपने प्लानिंग में शामिल करने की आवश्यकता है. साथ ही कहा कि अगर वैज्ञानिकों की बातों को आने वाले दशक में नहीं माना गया तो इतनी बड़ी आपदाएं आ सकती हैं, जिसका अनुमान भी नहीं लगा सकते. साथ ही बताया कि जन जागरूकता इसके लिए काफी महत्वपूर्ण है.

अध्ययन कर रहे WIHG के वैज्ञानिक: डब्लूआईएचजी के सीनियर वैज्ञानिक डॉ. आरजे पेरूमल ने बताया कि अगर पृथ्वी को बचाना है तो हिमालय को बचाने की जरूरत है. हालांकि, हिमालय में जो कुछ हो रहा है उसे जियोलॉजिकल और नेचुरल प्रोसेस बोलते हैं. लेकिन हिमालय में इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित कर दिया गया है. हालांकि ऐसा नहीं है कि ढांचागत विकास नहीं होना चाहिए, बल्कि ज्यादा बड़ा इंफ्रास्ट्रक्चर डिवेलप करने से पहले क्रिटिकल जोन का अध्ययन करना चाहिए. क्योंकि जहां भी नेचुरल प्रोसेस होता है वह एक पैटर्न शो करता है. जिस पर वाडिया इंस्टीट्यूट अध्ययन कर रहा है कि नेचुरल प्रोसेस का पैटर्न क्या है?

पर्वतीय क्षेत्रों ढांचागत विकास: डॉ. आरजे पेरूमल ने कहा कि ऐसे में जब नेचुरल प्रोसेस के पैटर्न को समझना आसान हो जाएगा, तब किसी भी आपदा के आने का पूर्वानुमान लगाया जा सकेगा. पर्वतीय क्षेत्रों पर ढांचागत विकास किया जा सकता है, लेकिन उस क्षेत्र की बेयरिंग और केयरिंग कैपेसिटी के आधार पर ही ढांचागत विकास होना चाहिए. अगर पर्वतीय क्षेत्र में कहीं भी डेवलपमेंट का कार्य करते हैं तो उसके लिए साइंटिफिक अध्ययन और प्रॉपर प्लानिंग किया जाना चाहिए. साथ ही बताया कि जब साल 2013 में केदारनाथ में आपदा आई थी,उसके बाद भारत सरकार ने एक प्रोग्राम शुरू किया था, प्रोग्राम के वाडिया के वैज्ञानिकों ने अध्ययन कर रिहैबिलिटेशन के लिए तमाम तरीके बताए थे. जिसका इस्तेमाल अगर पर्वतीय क्षेत्र में विकास के लिए किया जाता है तो इससे आने वाली चुनौतियों से पहले ही निपटा जा सकेगा.

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