वाराणसी : होली के पर्व में अभी कुछ दिन का वक्त है, लेकिन काशी में होली का हुड़दंग रंगभरी एकादशी यानी 20 मार्च से शुरू हो जाएगा. रंगभरी एकादशी पर बाबा भोलेनाथ अपनी अर्धांगिनी माता गौरी का गौना कराकर लौटते हैं और होली की शुरुआत होती है. लेकिन, होली के इस उत्सव के पहले काशी में एक परंपरा और निभाई जाती है, वह है चिता भस्म की होली. हरिश्चंद्र और मणिकर्णिका यानी दोनों श्मशान घाटों पर होने वाली इस होली का स्वरूप बीते कुछ वर्षों में बहुत ज्यादा बड़ा हो गया है, लेकिन क्या वास्तव में यह होली परंपरागत है और इसका पुराने या परंपराओं से संबंध है? इन सवालों को लेकर काशी विद्वत परिषद और काशी के विद्वान सहमत नहीं हैं. उनका स्पष्ट तौर पर कहना है कि ऐसी कोई परंपरा काशी में कभी नहीं थी. सिर्फ युवाओं को भ्रमित करने के लिए ऐसी परंपराओं का निर्वहन करके बेवजह की चीज उत्पन्न की जा रही है, जो सही नहीं है.
दरअसल, काशी के मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाट पर शमशान की होली चिता भस्म की होली के नाम से जानी जाती है. ऐसा माना जाता है कि भगवान भोलेनाथ रंगभरी एकादशी के अगले दिन श्मशान घाट पर अपने देव, गढ़, पिशाच भूत के साथ होली खेलने के लिए पहुंचते हैं. इसके स्वरूप में भोलेनाथ के भक्त भी अब बड़ी संख्या में वहां पहुंचने लगे हैं, लेकिन क्या यह होली लौकिक परंपराओं से अलग युवाओं को एकजुट करने का जरिया बनता जा रहा है या कुछ और है. इस बारे में शास्त्रों में क्या कहा गया और क्या वास्तव में यह कई सौ साल पुरानी परंपरा है, क्योंकि शमशान घाट एक ऐसा स्थल है. जहां अघोरी, किन्नर तांत्रिक को ही देखा जा सकता है. लेकिन शमशान पर बड़े-बड़े डीजे लगाकर नाचना गाना और शोर शराबा करना क्या यह चीज शास्त्रों में सही है? इन सवालों का जवाब काशी के अलग-अलग विद्वानों ने दिया.
काशी के ज्योतिषाचार्य पंडित वेद प्रकाश यादव का कहना है कि श्मशान घाट पर महिलाओं को जाने की तो अनुमति ही नहीं है. आज के समय में ऐसे आयोजन में महिलाएं और युवतियां बड़ी संख्या में श्मशान घाट पहुंचकर चिता भस्म की होली खेलने लगी हैं. भस्म लगाने की अनुमति शास्त्रों में महिलाओं को दी ही नहीं गई है और शमशान घाट पर जाकर महिलाएं यह कृत्य कर रही हैं जो कहीं से भी शास्त्र सम्मत और परंपरागत नहीं है. रंगभरी एकादशी के बाद इस तरह का पर्व श्मशान घाट पर मनाया जाना कहीं किसी शास्त्र में वर्णित नहीं है. श्मशान की होली सिर्फ और सिर्फ औघड़, किन्नर और वैरागियों के लिए है, ना कि गृहस्थ जीवन जीने वालों के लिए या परिवार के साथ रहने वालों के लिए.
वहीं, काशी विद्वत परिषद के महामंत्री प्रोफेसर रामनारायण द्विवेदी का कहना है कि किसी शास्त्र में चिता भस्म की होली की प्रथा को ना ही पढ़ा है, ना कभी सुना है. 30 वर्षों से मैं खुद काशी में रह रहा हूं. लेकिन, कभी भी मुझे इस संदर्भ में कोई जानकारी किसी शास्त्र या किसी पुराण में नहीं मिली है. यह प्रथा सिर्फ युवाओं को बरगलाकर और गलत दिशा में ले जाने वाली है. श्मशान घाट पर ऐसे आयोजन होने ही नहीं चाहिए. वहीं, काशी हिंदू विश्वविद्यालय वेद विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. हरिश्वर द्विवेदी का कहना है कि मणिकर्णिका घाट पर बड़ी संख्या में युवक और युवतियों के टोली चिता भस्म की होली खेलने पहुंचती है जो कहीं से भी तर्कसंगत नहीं है. रंगभरी एकादशी एक पर्व है. इसे इनकार नहीं किया जा सकता है, लेकिन रंगभरी एकादशी के बाद चिताओं के बीच खेले जाने वाली होली का आयोजन परंपरागत नहीं है और 21 मार्च को इस तरह के आयोजन के होने का भी कोई मतलब नहीं है नहीं ऐसे आयोजन होने चाहिए.
वहीं, केंद्रीय ब्राह्मण महासभा के प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार शर्मा का कहना है कि कुछ लोग निजी स्वार्थ के लिए ऐसे आयोजन करने लगे हैं. कभी भी काशी में श्मशान घाट पर ऐसी होली का वर्णन रहा ही नहीं है. श्मशान घाट शांत और भोलेनाथ की अति प्रिय जगह है यहां पर कोई भी गलत काम करने वाले को भैरव दंड मिलता है. भैरव काशी में न्याय देवता के रूप में कार्य करते हैं. न्याय के देवता के तौर पर कोई भी यदि श्मशान घाट पर गलत करता है तो उसे आने वाले कई जन्मों तक इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है. इसलिए बेवजह ऐसी होली जो चिता भस्म या जलती चिताओं के बीच खेली जाए जो शमशान घाट पर हो उसमें शामिल होकर अपना ही नुकसान लोग करेंगे.
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