अजमेर. राजस्थान के अजमेर में सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह में बुलंद दरवाजे के समीप दोनों ओर रखी लोहे की देग हमेशा से आश्चर्य बनी हुई हैं. सांप्रदायिक सद्भाव की मिसाल गरीब नवाज की दरगाह में हर जाति-मजहब के लोग आते हैं, लिहाजा इन दोनों ही देग में पकने वाला भोजन पूरी तरह से शाकाहारी होता है. इन देग की खासियत यह है कि इनके नीचे लकड़ियां जलाकर ही भोजन बनाया जाता है. घंटों जलती हुईं लकड़ियों का तेज ताप भी देग की ऊपरी सिरे को गर्म नहीं कर पाता. यानी देग का ऊपरी सिरा हमेशा ठंडा रहता है.
गरीब नवाज की दरगाह में हर रोज हजारों लोग आते हैं. ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती का नाम ख्वाजा गरीब नवाज, उनके चाहने वालों ने ही दिया है. मान्यता है कि दरगाह आने वाले गरीब तबके के लोगों को ख्वाजा गरीब नवाज अपने जीवन काल में भी नवाजते थे और दुनिया से पर्दा करने के बाद भी नवाज रहे हैं. मन्नतें पूरी होने पर जायरीन अपनी क्षमता के अनुसार मन्नत जरूर उतारते हैं.
यह दोनों देग भी बादशाहों की ओर से दरगाह में नजराना ही है. यहां बड़ी देग बादशाह अकबर और छोटी देग जहांगीर ने भेंट की थी. दुनिया में यदि बड़े बर्तनों की बात की जाए तो यह दोनों देग उनमें शुमार हैं. बताया जाता कि उस जमाने से देग में मीठे चावल पकते आए हैं. यहां जब किसी जायरीन की मन्नत पूरी हो जाती है तो वह अपनी क्षमता के अनुसार देग पकवाता है.
केवल मीठे चावल ही देग में पकाए जाते हैं : मुगल बादशाह अकबर की ख्वाजा गरीब नवाज में गहरी आस्था थी. औलाद की मन्नत पूरी होने पर बादशाह अकबर आगरा से अजमेर पैदल चलकर आया था. यहां दरगाह में भोजन पकाने के लिए उसने बड़ी देग बनवाई और उसे बुलंद दरवाजे के पास दक्षिण पश्चिम क्षेत्र में रखवाया. इस बड़ी देग में 120 मन यानी 4800 किलो मीठे चावल पकाए जाते हैं. जबकि छोटी देग में 60 मन चावल पकाए जाते हैं. छोटी देग को जहांगीर ने बनवाया था.
खादिम सैयद सुल्तान अली ने बताया कि बड़ी और छोटी देग में मीठे चावल ही पकाए जाते हैं. उन्होंने बताया कि ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह में सभी धर्म मजहब के लोग आते हैं. इनमें कई लोग शाकाहारी होते हैं, इसलिए बड़ी और छोटी देग में मांसाहार भोजन नहीं पकाया जाता. इन देग में मीठे चावल ही पकाए जाते हैं जो रात में पकते हैं और अल सुबह इन मीठे चावल को जायरीनों में तकसीम (बांट) दिया जाता है.
मन्नत पूरी होने पर पकवाते हैं देग : सैयद सुल्तान ने बताया कि दरगाह परिसर में मौजूद बड़ी और छोटी देग जायरीन की आस्था से जुड़ी है. दरगाह आने वाले हर आम और खास जायरीन इन देग में चावल, शक्कर, मेवे, पैसे, जेवर समेत कीमती सामान डालते हैं, ताकि लंगर में उनका भी सहयोग हो सके. जबकि कई जायरीन मन्नत पूरी होने पर देग स्वंय के खर्च से पकवाते हैं. बड़ी और छोटी देग में सबसे ज्यादा छोटी देग ही पकती है. इसके लिए खादिमो की संस्था अंजुमन कमेटी में पहले से बुकिंग करवानी होती है.
देग में पकने वाले मीठे चावल के लिए खास लकड़ियां मंगाई जाती हैं. इसके बाद लकड़ियों को देग के नीचे चेताया जाता है. पहले खोलता हुआ पानी गर्म किया जाता है. इसके बाद उसमें चावल मिलाए जाते हैं. चावल पकने पर उसमें मेवे, चीनी, जाफरानी, इलायची और शुद्ध देश घी मिलाया जाता है. इस प्रक्रिया में 4 से 5 घंटे का समय लगता है. देग में पकने वाले मीठे चावल को सुबह-सुबह जायरीन में तकसीम कर दिया जाता है. प्रसाद के रूप में मीठे चावल लेने के लिए लोगों की कतार लग जाती है.
रमजान में पकती है देग : रमजान के अवसर पर कई अकीदत छोटी देग पकवाते हैं. सुबह सेहरी से पहले देग में पके मीठे चावल को तकसीम किया जाता है. इसी तरह उर्स के मौके पर भी अकीदत देग पकवाते हैं.
सैय्यद कुतुबुद्दीन सकी बताते हैं कि देग पकवाने का मकसद ख्वाजा गरीब नवाज की शिक्षा को आगे बढ़ना भी है. सकी बताते हैं कि ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह आने वाला कोई शख्स भूखा नहीं रहे, इसलिए मन्नत पूरी होने पर कई अकीदतमंद देग पकवाते हैं, ताकि इसमें पकने वाला मीठा चावल प्रसाद के रूप में लोगों को मिले और उनकी भूख शांत हो सके.
उन्होंने बताया कि दरगाह में बड़ी संख्या में गरीब जायरीन आते हैं. ऐसे में दरगाह में पकने वाली देग से उनका पेट भरता है. वहीं, जायरीन भी यह प्रसाद खाते हैं. सकी ने बताते हैं कि देग पकने के दौरान भीषण ताप से आस पास इतनी गर्मी होती है कि खड़ा रहना मुश्किल हो जाता है, लेकिन यह करामात ही है कि इतने ताप के बावजूद देग का ऊपरी सिरा गर्म नहीं होता.