देहरादून (धीरज सजवाण): हिमालय में लगातार हो रहे बदलाव के कारण अस्तित्व में आने वाली GLOF (ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड) को लेकर पिछले कुछ सालों में काफी जानकारी निकलकर सामने आई है. दरअसल, हिमालय लगातार गतिशील है. इसमें रोजाना अनगिनत गतिविधियां होती रहती है.
कुछ गतिविधियां क्षणिक होती है तो कुछ गतिविधियां समय के साथ-साथ किसी नए खतरे को बुलावा देती हैं. इसी तरह की तमाम गतिविधियों के बाद उच्च हिमालय क्षेत्र में ग्लेशियर के लगातार पिघलने और मौसम बदलने के कारण झीलों का निर्माण भी होता है. हिमालय क्षेत्र में बनने वाली यह झीलें अलग-अलग प्रकार की होती हैं. लेकिन इनमें से एक विशेष प्रकार की झील जिसके परिणाम को GLOF कहा जाता है, वह खासतौर से उत्तर भारत के इलाकों के लिए बेहद खतरनाक हो सकती है.
हिमालय में तीन तरह की होती हैं झीलें, उत्तराखंड में 150 मोरेन डैम लेक: हिमालय क्षेत्र में सब ग्लेशियर लेक, सुप्रा ग्लेशियर लेक और मोरेन डैम लेक इसे प्रो ग्लेशियर लेक भी कहते हैं, तीन प्रकार की झीलें होती है. वरिष्ठ ग्लेशियर वैज्ञानिक डॉ. डीपी डोभाल बताते हैं कि उत्तराखंड में 963 ग्लेशियर हैं. उत्तराखंड वाडिया इंस्टिट्यूट ने अपने एक सर्वे में पाया कि राज्य में 1266 झीलें हैं. इनमें से ज्यादातर सुपर ग्लेशियर लेक हैं. यानी ये ग्लेशियर के ऊपर बनती हैं और यह पूरी तरह से टेंपरेरी होती है.
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इसके अलावा ग्लेशियर के आगे या अगल-बगल में बनने वाली मोरेन डैम लेक, जो कि GLOF के लिए ज्यादा जिम्मेदार और सबसे ज्यादा खतरनाक होती हैं. यह भी उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्र में अच्छी खासी संख्या में मौजूद हैं. डॉक्टर डोभाल ने बताया कि उनके सर्वे में 150 मोरेन डैम लेक पाई गई हैं जो GLOF के दृष्टिकोण से बेहद खतरनाक है.
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मोरेन डैम लेक, GLOF के लिए सबसे ज्यादा संवेदनशील: वरिष्ठ ग्लेशियर वैज्ञानिक डीपी डोभाल बताते हैं कि GLOF 'ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड' वो बाढ़ है जो ग्लेशियर से उसके पास बनने वाली झील के टूटने से आती है. यह किसी भी ग्लेशियर की स्वाभाविक प्रवृत्ति है. जहां पर ग्लेशियर होगा, वहां GLOF बनना तय है. यह एक तरह से ग्लेशियर का एक इनबिल्ट प्रोसेस है.
शोधकर्ता डीपी डोभाल बताते हैं कि पूर्व में उच्च हिमालय क्षेत्र में इंसानी पहुंच बहुत कम थी. इसलिए इस तरह की घटनाओं का ज्यादा जिक्र नहीं हुआ है. लेकिन अब क्योंकि इंसानी पहुंच बहुत ज्यादा हो गई है, टेक्नोलॉजी काफी ज्यादा बढ़ गई है. इसलिए हिमालय क्षेत्र में आने वाली बाढ़ के कारणों का अब बारीकी से अध्ययन किया जाता है. जिसमें ग्लेशियर झीलें भी बाढ़ का एक कारण है.
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पूर्व में इन घटनाओं को बादल फटने या फिर अनेक तरह की घटनाओं से जोड़ दिया जाता था. लेकिन अब शोधकर्ता उच्च हिमालय क्षेत्र में होने वाले इन गतिविधियों पर अपनी पैनी नजर रखते हैं. शोधकर्ता डीपी डोभाल बताते हैं कि GLOF की यह प्रक्रिया कोई नई नहीं हैं. लेकिन पिछले कुछ समय में कम हिमपात और ग्लोबल वार्मिंग के कारण तेजी से पिघल रहे ग्लेशियर से अब मोरेन डैम लेक ज्यादा बन रही हैं.
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क्या है ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड: आसान भाषा में GLOF एक तरह की भयावह बाढ़ या रिसाव है, जो ग्लेशियर झील के टूटने या फिर झील के मोरेन के टूटने से होता है. बता दें कि, मोरेन उसे कहते हैं जब कोई झील टूटती है और उसके साथ मलबा, पत्थर, गाद और बर्फ के टुकड़े एक साथ झील के पानी को रोक कर रखते हैं. यही झील में पानी भरने का कारण बन जाते हैं. वहीं, झील के प्राकृतिक डैम का कटाव, पानी का दबाव, हिमस्खलन, भूकंप या फिर ग्लेशियर के ढहने से हो सकता है. इसके बाद पानी का बड़े पैमाने पर निचले इलाकों में विस्थापन शुरू हो जाता है.
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2013 की आपदा GLOF का सबसे ताजा और बड़ा उदाहरण: उच्च हिमालय क्षेत्र में पूर्व में कभी-कभी मोरेन डैम झीलें टूटती थी तो इन घटनाओं का पता चलता था. अक्सर इस तरह की घटनाओं को सटीक जानकारी के अभाव में ठीक तरह से परिभाषित नहीं किया जाता था. सामान्यत: इन घटनाओं को बादल फटना जैसे घटनाओं से जोड़ दिया जाता था. लेकिन अब यह सुनिश्चित करना आसान है और उच्च हिमालय के इस तरह की हजारों झीलों को देखा गया है.
वैज्ञानिक बताते हैं कि 2013 में केदारनाथ में आई भीषण त्रासदी GLOF का एक जीता जागता उदाहरण है. उन्होंने बताया कि 2013 की केदारनाथ की घटना सीधे तौर से चोराबाड़ी झील जो की एक मोरेन डैम लेक है, उसके टूटने से आई थी. इस तरह की घटनाओं में ट्रिगर प्वाइंट को देखना बेहद महत्वपूर्ण होता है कि झील टूटने की वास्तविक वजह क्या थी.
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उन्होंने कहा कि इस तरह की मोरेन डैम लेक की स्टडी बेहद जरूरी होती है. इनकी मॉर्फोलॉजी, साइज और झील का वॉल्यूम इत्यादि पर स्टडी करके इसके जोखिमों का अंदाजा लगाया जा सकता है. वैज्ञानिक बताते हैं कि उत्तराखंड में GLOF का सीधा-सीधा उदाहरण 2013 की आपदा है. इसके अलावा किसी अन्य घटनाओं में हमें प्रमाण के रूप में कुछ नहीं मिला है. वहीं इसके अलावा हिमाचल में भी कुछ घटनाएं रिपोर्ट की गई हैं. सिक्किम में सबसे ज्यादा GLOF की घटनाएं रिकॉर्ड की गई हैं.
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इनके जोखिम से बचने के लिए उत्तराखंड आपदा प्रबंधन की तैयारी: वैज्ञानिक बताते हैं कि इस तरह की जोखिम भरी झीलों की चुनौतियों से निपटने के लिए इन जिलों का प्रॉपर इन्वेस्टिगेशन बेहद जरूरी है. जिसमें झीलों की बाथीमेट्री सर्वे और झीलों का ड्रेनेज सिस्टम चेक करने की जरूरत होती है. आस-पास मौजूद ग्लेशियर और एवलॉन्च केस स्टडी ताकि झील में किसी तरह का एवलॉन्च होने की क्या संभावना है? यह सब पर स्टडी करने की जरूरत है.
हाई रिस्क वाली 5 झीलें-
- वसुधारा झील, चमोली के धौलीगंगा बेसिन में मौजूद है. इसका आकार 0.50 हेक्टियर और ऊंचाई 4702 मीटर है.
- अनक्लासिफाइड झील, पिथौरागढ़ के दारमा बेसिन में 0.09 हेक्टेयर में फैली है और इसकी ऊंचाई 4794 मीटर है.
- मबान झील पिथौरागढ़ के लस्सर यांगती वैली में है. यह 0.11 हेक्टेयर में फैली है और समुद्र तल से 4351 मीटर की ऊंचाई पर है.
- अनक्लासिफाइड झील, पिथौरागढ़ की कूठी यांगति वाली में 0.04 हेक्टियर में 4868 मीटर की ऊंचाई पर मौजूद है.
- प्यूंग्रू झील पिथौरागढ़ की दरमा बेसिन में हैं और 0.02 हेक्टेयर में 4758 मीटर की ऊंचाई पर है.
उत्तराखंड में मौजूद जोखिम भरी इन मोरेन डैम लेक पर आपदा प्रबंधन सचिव विनोद कुमार सुमन का कहना है कि केवल 13 मोरेन डैम झीलें प्रदेश में ऐसी बताई गई हैं, जिन पर नजर रखने की जरूरत है. इनमें से कोई भी अति संवेदनशील नहीं है. 13 में से पांच झीलों को संवेदनशील यानी A कैटेगरी में रखा गया है. इनमें से एक झील पर आपदा प्रबंधन की टीम स्टडी करके आ चुकी है. बाकी बची चार झीलों पर इस साल स्टडी की जानी है.
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