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ओडिशा का मंडीपांका गांव, जहां पसरा सन्नाटा, आदिवासियों के लिए आम की गुठली बनी काल

ईटीवी भारत के संवाददाता समीर कुमार आचार्य उस ओडिशा के मंडीपांका गांव पहुंचे, जहां दूषित आम की गुठली खाने से तीन महिलाओं की मौत हो गई थी.

ओडिशा का मंडीपांका गांव
ओडिशा का मंडीपांका गांव (ETV Bharat)
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By ETV Bharat Hindi Team

Published : 3 hours ago

भुवनेश्वर: आम की गुठली खाने से 3 महिलाओं के मौत कुछ दिन बाद बाद मंडीपांका गांव में सन्नाटा पसरा हुआ है और यहां के लोग अनिश्चितता में खोए हुए हैं. इस बीच ईटीवी भारत के संवाददाता सीमर कुमार आचार्या मंडीपांका पहुंचे. इस दौरान जैसे ही उन्होंने मंडीपांका की धरती पर कदम रखा, उन्हें घबराहट होने लगी.

उन्होंने बताया, जब मैं गांव पहुंचा तो वहां शांति थी. हालांकि, यह कई मायनों में परेशान करने वाली थी. सड़कों पर कोई भी व्यक्ति मुझसे बातचीत करने में दिलचस्पी नहीं दिखा रहा था, न ही वे अचानक गांव में घूमने वाले बाहरी लोगों (जांच दल के सदस्य और पत्रकार और सरकारी अधिकारी) की भीड़ को लेकर उत्साहित थे. आम की गुठली के कारण हुई मौतों 20 से जय्दा दिन गुजरजाने के बाद भी मंडीपांका में सन्नाटा पसरा हुआ था और यहां के लोग अनिश्चितता में थे.

बीते 1 नवंबर की सुबह सूरज उगने से पहले मंडीपांका में आठ महिलाओं की गंभीर रूप से बीमार होने की खबर कंधमाल जिले में जंगल की आग की तरह फैल गई और कुछ ही घंटों में आम की गुठली का दलिया खाने से तीन महिलाओं की दुखद मौत एक भयावह सच्चाई बन गई.

गांव में मौत का मातम
दो दशकों से भी ज्यादा समय से ओडिशा खाद्य असुरक्षा से जूझ रहा है, लेकिन मंडीपांका को इससे पहले कभी इतने बड़े नुकसान का सामना नहीं करना पड़ा था. आज त्रासदी को 20 से ज्यादा दिन हो गए हैं, लेकिन यह गांव अभी भी खामोशी से मातम मना रहा है और इस सच्चाई को स्वीकार करने के लिए संघर्ष कर रहा है.

मृतकों के परिवार- जो कभी खुशी और जश्न में एकजुट रहते थे- अब शोक में डूबे हुए हैं. आंसू भरी आंखों वाली एक रिश्तेदार तराना पट्टामाझी कहती हैं, "हम साथ बैठते थे, साथ खाते थे, साथ हंसते थे. अब यह जगह मनहूस लगती है." वही, आम की गुठली जिसने मुश्किल वक्त में समुदाय को सहारा दिया, अब मौत का अग्रदूत बन गई है.

जहरीली हो गईं थी गुठलियां
तीन साल तक सावधानी से स्टोर की गई आम की गुठली को जरूरत के हिसाब से तैयार किया गया था. कई आदिवासी परिवारों के लिए, गुठली सूखे मौसम के दौरान एक विकल्प के तौर पर इस्तेमाल की जाती है. उन्हें धोकर, सुखाकर और बड़ी मेहनत से पीसकर, अक्सर चावल के साथ दलिया के रूप में खाया जाता था, ताकि भूख से बचा जा सके, लेकिन उस दिन, स्टेर की गई गुठली जहरीली हो गईं और फिर उनसे गंभीर पॉइजनिंग हो गई.

इस त्रासदी ने कई ऐसे सवाल छोड़े हैं, जिनके कोई जवाब नहीं मिल सका है. जैसे कि क्या बेहतर जागरूकता या खाद्य सुरक्षा उपायों से इन मौतों को टाला जा सकता था? या यह लगातार खाद्य असुरक्षा और क्या यह पारंपरिक जीवनयापन प्रथाओं पर निर्भरता का नतीजा था?

मंडीपांका अब अपनी महिलाओं की हंसी से नहीं गूंजता. वह स्थान जहां वे कभी भोजन बनाने और कहानियां साझा करने के लिए एकत्र होती थीं, अब भयावह रूप से शांत लगता है. हर घर पर शोक की छाया छा गई है.

एक मासूम बच्चा बेमतलब भटक रहा है, इतना छोटा कि उसे समझ में नहीं आ रहा कि उसकी मां कभी वापस नहीं आएगी. एक पति उस जगह को खाली आंखों से देख रहा है, जहां उसने आखिरी बार अपनी पत्नी को देखा था, वह अच्छे दिनों की यादों में खोया हुआ है. पूरा गांव ठहरा हुआ सा लगता है. ऐसा लगता है कि वह शोक और भय के बीच फंसा हुआ.

शोक में डूबे लोग
शोक में डूबे पति जोदादर पात्रा कहते हैं, "मेरी पत्नी ने सबका ख्याल रखा- हमारे बच्चे, खेत, हमारा खाना. अब हमें नहीं पता कि आगे कैसे बढ़ना है."नुकसान की व्यक्तिगत कहानियों से परे मंडीपांका की त्रासदी ओडिशा भर के आदिवासी समुदायों के लिए गंभीर सवाल उठाती है.

यहां के आदिवासी चावल को अपने मुख्य भोजन के रूप में इस्तेमाल करते हैं. साथ ही यहां आम की गुठली से बने व्यंजन जैसे कि आम की गुठली का दलिया लंबे समय से खाद्यान्न की कमी के दौरान पारंपरिक पूरक के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है, लेकिन क्या यह प्रथा अब सुरक्षित है?

नुकसान की व्यक्तिगत कहानियों से परे, मंडीपांका की त्रासदी ओडिशा भर के आदिवासी समुदायों के लिए महत्वपूर्ण सवाल उठाती है। चावल उनके मुख्य भोजन के रूप में है, आम की गुठली से बने व्यंजन जैसे कि आम की गुठली का दलिया लंबे समय से खाद्यान्न की कमी के दौरान पारंपरिक पूरक के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है। लेकिन क्या यह प्रथा अब सुरक्षित है?

गांव की एक बुजुर्ग प्रवती पट्टामाझी कहती हैं, "अपना आहार बदलना आसान नहीं है. हम जंगल और उससे मिलने वाली चीजों पर निर्भर हैं, लेकिन इस घटना के बाद, हम अपने भोजन पर कैसे भरोसा कर सकते हैं?"

प्रभावित परिवारों को तत्काल सहायता
सरकारी हस्तक्षेप अब महत्वपूर्ण है. प्रभावित परिवारों को तत्काल सहायता प्रदान की गई है, लेकिन खाद्य सुरक्षा और आदिवासी कल्याण के बड़े मुद्दे अभी भी अनसुलझे हैं. क्या इन समुदायों को सुरक्षित खाद्य पद्धतियों को अपनाने के लिए आवश्यक सहायता मिलेगी? या फिर उन्हें भविष्य में भी उन्हीं जोखिमों से जूझना पड़ेगा?

जैसे-जैसे मंडीपांका में सूरज डूबता है, गांव गम में डूबा रहता है. यहां तीन महिलाओं की मौत ने एक ऐसा खालीपन छोड़ दिया है, जिसे भरने में सालों लग सकते हैं. लेकिन यह त्रासदी ओडिशा के आदिवासी समुदायों के सामने आने वाली चुनौतियों की एक गंभीर याद भी दिलाती है - जहां जीवित रहना आसान नहीं है.

मुख्यमंत्री मोहन चरण माझी ने इस त्रासदी की RDC लेवल की जांच के आदेश दिए थे. इसके तहत अस्थायी राहत उपाय के रूप में प्रभावित क्षेत्रों में तीन महीने का चावल वितरित करने का निर्देश दिया गया था.

हालांकि, विपक्षी नेताओं, खासकर बीजेडी और कांग्रेस ने सरकार की ओर से देरी से की गई प्रतिक्रिया की आलोचना की और कहा कि न तो मुख्यमंत्री और न ही किसी कैबिनेट मंत्री ने स्थिति का प्रत्यक्ष आकलन करने के लिए क्षेत्र का दौरा किया है.फिलहाल, मंडीपांका को जवाब, न्याय और इस उम्मीद का इंतजार है कि ऐसी त्रासदी फिर कभी नहीं होगी.

यह भी पढ़ें- तिरुपति लड्डू विवाद: तमिलनाडु के डिंडीगुल में डेयरी पर छापेमारी, खाद्य नमूने, दस्तावेज जब्त

भुवनेश्वर: आम की गुठली खाने से 3 महिलाओं के मौत कुछ दिन बाद बाद मंडीपांका गांव में सन्नाटा पसरा हुआ है और यहां के लोग अनिश्चितता में खोए हुए हैं. इस बीच ईटीवी भारत के संवाददाता सीमर कुमार आचार्या मंडीपांका पहुंचे. इस दौरान जैसे ही उन्होंने मंडीपांका की धरती पर कदम रखा, उन्हें घबराहट होने लगी.

उन्होंने बताया, जब मैं गांव पहुंचा तो वहां शांति थी. हालांकि, यह कई मायनों में परेशान करने वाली थी. सड़कों पर कोई भी व्यक्ति मुझसे बातचीत करने में दिलचस्पी नहीं दिखा रहा था, न ही वे अचानक गांव में घूमने वाले बाहरी लोगों (जांच दल के सदस्य और पत्रकार और सरकारी अधिकारी) की भीड़ को लेकर उत्साहित थे. आम की गुठली के कारण हुई मौतों 20 से जय्दा दिन गुजरजाने के बाद भी मंडीपांका में सन्नाटा पसरा हुआ था और यहां के लोग अनिश्चितता में थे.

बीते 1 नवंबर की सुबह सूरज उगने से पहले मंडीपांका में आठ महिलाओं की गंभीर रूप से बीमार होने की खबर कंधमाल जिले में जंगल की आग की तरह फैल गई और कुछ ही घंटों में आम की गुठली का दलिया खाने से तीन महिलाओं की दुखद मौत एक भयावह सच्चाई बन गई.

गांव में मौत का मातम
दो दशकों से भी ज्यादा समय से ओडिशा खाद्य असुरक्षा से जूझ रहा है, लेकिन मंडीपांका को इससे पहले कभी इतने बड़े नुकसान का सामना नहीं करना पड़ा था. आज त्रासदी को 20 से ज्यादा दिन हो गए हैं, लेकिन यह गांव अभी भी खामोशी से मातम मना रहा है और इस सच्चाई को स्वीकार करने के लिए संघर्ष कर रहा है.

मृतकों के परिवार- जो कभी खुशी और जश्न में एकजुट रहते थे- अब शोक में डूबे हुए हैं. आंसू भरी आंखों वाली एक रिश्तेदार तराना पट्टामाझी कहती हैं, "हम साथ बैठते थे, साथ खाते थे, साथ हंसते थे. अब यह जगह मनहूस लगती है." वही, आम की गुठली जिसने मुश्किल वक्त में समुदाय को सहारा दिया, अब मौत का अग्रदूत बन गई है.

जहरीली हो गईं थी गुठलियां
तीन साल तक सावधानी से स्टोर की गई आम की गुठली को जरूरत के हिसाब से तैयार किया गया था. कई आदिवासी परिवारों के लिए, गुठली सूखे मौसम के दौरान एक विकल्प के तौर पर इस्तेमाल की जाती है. उन्हें धोकर, सुखाकर और बड़ी मेहनत से पीसकर, अक्सर चावल के साथ दलिया के रूप में खाया जाता था, ताकि भूख से बचा जा सके, लेकिन उस दिन, स्टेर की गई गुठली जहरीली हो गईं और फिर उनसे गंभीर पॉइजनिंग हो गई.

इस त्रासदी ने कई ऐसे सवाल छोड़े हैं, जिनके कोई जवाब नहीं मिल सका है. जैसे कि क्या बेहतर जागरूकता या खाद्य सुरक्षा उपायों से इन मौतों को टाला जा सकता था? या यह लगातार खाद्य असुरक्षा और क्या यह पारंपरिक जीवनयापन प्रथाओं पर निर्भरता का नतीजा था?

मंडीपांका अब अपनी महिलाओं की हंसी से नहीं गूंजता. वह स्थान जहां वे कभी भोजन बनाने और कहानियां साझा करने के लिए एकत्र होती थीं, अब भयावह रूप से शांत लगता है. हर घर पर शोक की छाया छा गई है.

एक मासूम बच्चा बेमतलब भटक रहा है, इतना छोटा कि उसे समझ में नहीं आ रहा कि उसकी मां कभी वापस नहीं आएगी. एक पति उस जगह को खाली आंखों से देख रहा है, जहां उसने आखिरी बार अपनी पत्नी को देखा था, वह अच्छे दिनों की यादों में खोया हुआ है. पूरा गांव ठहरा हुआ सा लगता है. ऐसा लगता है कि वह शोक और भय के बीच फंसा हुआ.

शोक में डूबे लोग
शोक में डूबे पति जोदादर पात्रा कहते हैं, "मेरी पत्नी ने सबका ख्याल रखा- हमारे बच्चे, खेत, हमारा खाना. अब हमें नहीं पता कि आगे कैसे बढ़ना है."नुकसान की व्यक्तिगत कहानियों से परे मंडीपांका की त्रासदी ओडिशा भर के आदिवासी समुदायों के लिए गंभीर सवाल उठाती है.

यहां के आदिवासी चावल को अपने मुख्य भोजन के रूप में इस्तेमाल करते हैं. साथ ही यहां आम की गुठली से बने व्यंजन जैसे कि आम की गुठली का दलिया लंबे समय से खाद्यान्न की कमी के दौरान पारंपरिक पूरक के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है, लेकिन क्या यह प्रथा अब सुरक्षित है?

नुकसान की व्यक्तिगत कहानियों से परे, मंडीपांका की त्रासदी ओडिशा भर के आदिवासी समुदायों के लिए महत्वपूर्ण सवाल उठाती है। चावल उनके मुख्य भोजन के रूप में है, आम की गुठली से बने व्यंजन जैसे कि आम की गुठली का दलिया लंबे समय से खाद्यान्न की कमी के दौरान पारंपरिक पूरक के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है। लेकिन क्या यह प्रथा अब सुरक्षित है?

गांव की एक बुजुर्ग प्रवती पट्टामाझी कहती हैं, "अपना आहार बदलना आसान नहीं है. हम जंगल और उससे मिलने वाली चीजों पर निर्भर हैं, लेकिन इस घटना के बाद, हम अपने भोजन पर कैसे भरोसा कर सकते हैं?"

प्रभावित परिवारों को तत्काल सहायता
सरकारी हस्तक्षेप अब महत्वपूर्ण है. प्रभावित परिवारों को तत्काल सहायता प्रदान की गई है, लेकिन खाद्य सुरक्षा और आदिवासी कल्याण के बड़े मुद्दे अभी भी अनसुलझे हैं. क्या इन समुदायों को सुरक्षित खाद्य पद्धतियों को अपनाने के लिए आवश्यक सहायता मिलेगी? या फिर उन्हें भविष्य में भी उन्हीं जोखिमों से जूझना पड़ेगा?

जैसे-जैसे मंडीपांका में सूरज डूबता है, गांव गम में डूबा रहता है. यहां तीन महिलाओं की मौत ने एक ऐसा खालीपन छोड़ दिया है, जिसे भरने में सालों लग सकते हैं. लेकिन यह त्रासदी ओडिशा के आदिवासी समुदायों के सामने आने वाली चुनौतियों की एक गंभीर याद भी दिलाती है - जहां जीवित रहना आसान नहीं है.

मुख्यमंत्री मोहन चरण माझी ने इस त्रासदी की RDC लेवल की जांच के आदेश दिए थे. इसके तहत अस्थायी राहत उपाय के रूप में प्रभावित क्षेत्रों में तीन महीने का चावल वितरित करने का निर्देश दिया गया था.

हालांकि, विपक्षी नेताओं, खासकर बीजेडी और कांग्रेस ने सरकार की ओर से देरी से की गई प्रतिक्रिया की आलोचना की और कहा कि न तो मुख्यमंत्री और न ही किसी कैबिनेट मंत्री ने स्थिति का प्रत्यक्ष आकलन करने के लिए क्षेत्र का दौरा किया है.फिलहाल, मंडीपांका को जवाब, न्याय और इस उम्मीद का इंतजार है कि ऐसी त्रासदी फिर कभी नहीं होगी.

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