चंडीगढ़: पंजाब के मोहाली में सीबीआई की विशेष अदालत ने वर्ष 1992 में अमृतसर जिले में फर्जी मुठभेड़ में दो युवकों बलदेव सिंह उर्फ देबा और कुलवंत सिंह की हत्या के मामले में दो पूर्व पुलिस अधिकारियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई है. आरोपियों में तत्कालीन एसएचओ मजीठा पुरुषोत्तम सिंह और एएसआई गुरभिंदर सिंह शामिल हैं. उन्हें हत्या और साजिश रचने के आरोप में सजा सुनाई गई है, जबकि इंस्पेक्टर चमन लाल और डीएसपी एसएस सिद्धू को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया गया है.
हालांकि, 1992 में फर्जी मुठभेड़ के दौरान वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों ने दावा किया था कि ये दोनों कट्टर आतंकवादी थे, जिन पर इनाम घोषित था. ये हत्या, जबरन वसूली, डकैती आदि के सैकड़ों मामलों में संलिप्त थे. दोनों पंजाब की बेअंत सिंह सरकार में तत्कालीन कैबिनेट मंत्री गुरमेज सिंह के बेटे की हत्या में भी शामिल थे. हालांकि हकीकत में इनमें से एक सेना का जवान था और दूसरा 16 वर्षीय नाबालिग था.
मंत्री के बेटे की हत्या के मामले में फंसा बलदेव सिंह देबा, निवासी बासरके को एसएचओ छेहरटा महिंदर सिंह और सब-इंस्पेक्टर हरभजन सिंह की पुलिस पार्टी ने उसके घर से उठाया था और इसी तरह लखविंदर सिंह उर्फ लक्खा उर्फ फोर्ड को गांव नंगली में उसके घर से उठाया गया था. इन दोनों को तत्कालीन बेअंत सरकार में मंत्री गुरमेज सिंह के बेटे शिंदी की हत्या के मामले में शामिल बताया गया था और बलदेव सिंह देबा को मंत्री के बेटे की हत्या के मामले में गिरफ्तार दिखाया गया था.
पुलिस ने क्या किया था दावा?
पुलिस ने दावा किया कि जब बलदेव सिंह देबा को हथियार बरामद करने के लिए जगदेव कलां गांव ले जाया गया तो आतंकवादियों ने पुलिस पार्टी पर हमला कर दिया, जिसमें बलदेव सिंह देबा और एक अज्ञात हमलावर की मौत हो गई. पुलिस की कहानी के अनुसार अज्ञात हमलावरों के शवों की पहचान बलदेव सिंह देबा और लखविंदर सिंह लक्खा के रूप में हुई थी. पुलिस ने न तो शवों को परिवार को सौंपा और न ही उन्हें लावारिस घोषित कर स्वयं उनका अंतिम संस्कार किया.
सुप्रीम कोर्ट ने शुरू की थी जांच
साल 1995 में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब पुलिस द्वारा अज्ञात शवों को लावारिस बताकर अंतिम संस्कार करने के मामले की जांच सीबीआई को करने के लिए कहा था और इस मामले के दौरान बलदेव सिंह देबा के पिता बूटा सिंह ने भी शिकायत दर्ज करवाई थी और एनकाउंटर की भी सीबीआई ने जांच की थी.
वर्ष 2000 में छेहरटा, खासा और मजीठा के 9 पुलिस अधिकारियों के खिलाफ अपहरण, अवैध हिरासत, साजिश, हत्या और जालसाजी के लिए अदालत में चार्जशीट पेश की गई थी, लेकिन इसके बाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने आरोपियों की याचिकाओं पर रोक लगा दी थी.
इसके चलते वर्ष 2022 में इस केस की सुनवाई फिर से शुरू हुई और करीब 33 साल बाद आज फैसला सुनाया गया. इस दौरान 5 आरोपियों की मौत हो गई और 4 आरोपी एसएस सिद्धू, इंस्पेक्टर/सीआईए चमन लाल, एसएचओ मजीठा गुरभिंदर सिंह और एएसआई प्रशोत्तम सिंह इस मामले में ट्रायल का सामना करते रहे.
कई गवाहों की हो चुकी है मौत
सीबीआई ने एसएस सिद्धू, हरभजन सिंह, महिंदर सिंह, पुरुषोत्तम लाल, चमन लाल, गुरभिंदर सिंह, मोहन सिंह, पुरुषोत्तम सिंह और जस्सा सिंह के खिलाफ अपहरण, आपराधिक साजिश, हत्या, झूठे रिकॉर्ड तैयार करने के आरोप में 1999 में चार्जशीट दाखिल की थी, लेकिन गवाहों के बयान 2022 के बाद दर्ज किए गए क्योंकि इस दौरान हाईकोर्ट के आदेशों पर केस टलता रहा.
पीड़ित परिवार के वकील के मुताबिक सीबीआई ने मामले में 37 गवाहों का हवाला दिया था, लेकिन सुनवाई के दौरान सिर्फ 19 गवाहों के बयान दर्ज किए गए हैं क्योंकि सीबीआई द्वारा पेश किए गए ज्यादातर गवाहों की देरी से हुई सुनवाई के दौरान मौत हो गई. घटना के 32 साल बाद न्याय हुआ है.
गौरतलब है कि मृतक बलदेव सिंह देबा सेना में सेवारत थे और श्रीनगर में तैनात थे और उनकी बहन सुखविंदर कौर ने फैसले पर खुशी जाहिर नहीं की और कहा कि वह बरी हुए आरोपियों के खिलाफ भी उच्च न्यायालय में अपील दायर करेंगी.