पटना : 'किंगमेकर' लालू यादव बेबस हो गए? जरा सुनने में अजीब लगता है, क्योंकि बिहार की राजनीति में लालू यादव वो शख्स हैं, जिन्होंने बिहार के साथ-साथ देश की सरकार में भी किंग मेकर की भूमिका निभाई है. 90 की दशक की बात करें तो, लालू यादव का सिक्का बिहार में तो चलता ही था, केंद्र सरकार में भी बराबर चलता था. वजह यह थी कि क्षेत्रीय दलों में सबसे मजबूत लालू यादव अपने मुताबिक प्रधानमंत्री तय करते थे.
किंगमेकर लालू यादव: एचडी देवगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल को प्रधानमंत्री बनाने में लालू यादव का अहम रोल था. लेकिन, लालू यादव की राजनीति का सितारा धीरे-धीरे अस्त होने लगा. बिहार के राजनीति पर डेढ़ दशक तक कब्जा जमाने के बाद लालू यादव एक-एक सीटों के लिए मोहताज हो गए हैं. हालांकि अभी भी लालू यादव का वोट बैंक उनसे खिसका नहीं है.
पिछले तीन चुनावों में महज 8 सीटें जीतीं : राजनीति के अगले अध्याय में लालू यादव का यह वोट बैंक फिट नहीं हो पाया. ऐसे में लालू यादव अपने ही परिवार से अदद एक सांसद बनाने में पिछले तीन चुनाव से मशक्कत कर रहे हैं. 2009, 2014 और 2019 के चुनावों का परिणाम देखा जाए तो महज आठ सीट ही जीत पाए हैं.
एक वक्त लालू का था : ऐसा नहीं कि लालू यादव ने प्रयास नहीं किया. कोशिश तो खूब की लेकिन, सफल नहीं हो पाए. इसको लेकर लालू यादव ने चुनावी मैदान में अपनी पत्नी, अपनी दोनों बेटियों तक को उतार दिया लेकिन, सफलता नहीं मिली. एक वक्त था कि लालू यादव जिसे चाहते थे उसे लोकसभा का सदस्य बना देते थे. चाहे उनके साले साधु यादव हों या सुभाष यादव या फिर कोई भी हो लेकिन, अब ऐसा नहीं हो रहा है.
खुद भी चुनाव हार गए लालू : लालू यादव ने अपना पिछला चुनाव जैसे तैसे जीता था. जैसे तैसे कहने का मतलब यह है कि लालू यादव 2009 में पटना और सारण लोकसभा सीट से चुनाव लड़े थे. पटना से उनके ही पुराने साथी रंजन प्रसाद यादव ने हरा दिया था हालांकि सारण से लालू यादव जीत गए थे.
कम सीट के बावजूद बने थे रेलमंत्री : 2009 में लालू यादव महज चार सिटी जीत पाए थे. एक खुद सारण से लालू यादव, दूसरा सीट बक्सर से जगदानंद सिंह की और तीसरी, महाराजगंज से उमाशंकर सिंह और चौथी वैशाली से रघुवंश प्रसाद सिंह की सीटें थीं. 2009 में बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार का सिक्का चल रहा था. उन्होंने 40 सीटों में से 20 सीटों पर खुद कब्जा जमाया और उनके सहयोगी पार्टी बीजेपी ने 12 सीटों पर जीत हासिल की थी. हालांकि केंद्र में यूपीए की सरकार बनी और लालू यादव कम सीट पाने के बावजूद भी रेल मंत्री बनने में कामयाब रहे.
नरेंद्र मोदी की हवा में सभी पार्टियां उड़ीं : इधर, 2014 आते-आते पूरे देश में नरेंद्र मोदी की आंधी चलने लगी थी. लालू यादव चारा घोटाले मामले में फंसते जा रहे थे. उस समय लालू यादव की पार्टी राजद 27 सीटों पर चुनाव लड़ी थी. जिसमें उनकी पत्नी और पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने भी सारण से चुनाव लड़ा था. लेकिन, लालू यादव का गढ़ माना जाने वाला सारण ने उनकी पत्नी का साथ नहीं दिया और वो राजीव प्रताप रूडी से हार गई.
2014 से आरजेडी का टर्निंग पॉइंट : 2014 में बीजेपी से अलग होकर जदयू ने 38 सीटों पर चुनाव लड़ा था. जिसमें मात्र दो ही सीट पर उन्हें जीत हासिल हुई थी. 2014 में भाजपा ने 22 सीटों पर जीत हासिल की थी और उनके सहयोगी पार्टियों ने काफी बेहतर प्रदर्शन किया था. इस चुनाव में भी राजद मात्र चार सीटों पर ही जीत हासिल कर पाई थी.
2019 में राजद को शून्य सीट : लालू यादव ने 2014 में पाटलिपुत्र लोकसभा क्षेत्र से अपनी बड़ी बेटी मीसा भारती को चुनावी मैदान में उतारा था. लेकिन, उनके ही कभी खासमखास रहे राम कृपाल यादव ने उनकी बड़ी बेटी को पाटलिपुत्र लोकसभा क्षेत्र में पटकनी दे दी. मीसा भारती चुनाव हार गई. हालांकि लालू यादव ने उन्हें तुरंत ही राज्यसभा सांसद बना दिया.
रितलाल का साथ भी नाकाम : 2014 में तो लालू यादव ने अपनी बेटी को जीताने के लिए दानापुर के बाहुबली रितलाल यादव घर पहुंच गए थे. लेकिन, उसका भी फायदा नहीं मिला था. हालांकि रितलाल यादव बाद में राजद में शामिल हो गए और अभी वह दानापुर से विधायक है. रितलाल यादव का आरजेडी में शामिल करना भी मीसा भारती को नहीं जिता पाया. 2019 में मीसा भारती ने दूसरी बार पाटलिपुत्र सीट से चुनाव लड़ा और रामकृपाल यादव ने फिर पटखनी दे दी. इस चुनाव में आरजेडी का खाता तक नहीं खुला.
लालू वोट बैंक जस का तस: वरिष्ठ पत्रकार कुमार राघवेंद्र बताते हैं कि हाल के दिनों में लालू यादव का भले लोकसभा क्षेत्र में पकड़ कमजोर हुई है. लेकिन, लालू यादव बिहार के जन नेता हैं. उनका वोट बैंक अभी भी जस का तस है. भले लोकसभा में उनको बड़ी सफलता नहीं मिल रही है लेकिन आप लगातार देखेंगे कि 2015, 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में राजद ने बेहतर प्रदर्शन किया है.
किंगमेकर पर चारा घोटाला भारी : इसको ऐसे भी समझा जा सकता है कि लालू यादव 2014 के बाद बहुत एक्टिव नहीं रह गए. पहले तो वह अपने चारा घोटाले मामले में लगातार केस में फंसते रहे है. उसके बाद उनके स्वास्थ्य ने भी उनका साथ नहीं दिया है. ऐसे में जो लोग लालू यादव को लोग देखना-सुनना पसंद करते थे वह लालू अभी कहीं नजर नहीं आ रहे हैं.
वोटर हो गए समझदार : कुमार राघवेंद्र यह भी बताते हैं कि लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव के मुद्दे अलग-अलग होते हैं. विधानसभा पूरी तरह से स्थानीय मुद्दों पर आधारित होता है तो, वहीं लोकसभा के मुद्दे राष्ट्रीय होते हैं. जो वोटर है वह पहले से ज्यादा समझदार हुए हैं. उन्हें अपनी वोट की कीमत का अंदाजा है. ऐसे में 2014 के बाद जिस तरह से भाजपा ने प्रचार प्रसार किया है उसके सामने दूसरे दल कहीं टिक नहीं पा रहे हैं. कहा जाता है कि राजनीति में जो सबसे ज्यादा दिखता है वही जीतता है. दूसरी तरफ लालू यादव और उनके परिवार के खिलाफ लगातार भ्रष्टाचार का केस होना. उनके परिवार की छवि को दर्शाता है.
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