ETV Bharat / bharat

आजादी के नायकों की वीरगाथा, इतिहास के पन्नों में सुनहरे अक्षरों में लिखे हैं जिनके नाम - Independence Day 2024

author img

By ETV Bharat Jharkhand Team

Published : Aug 15, 2024, 4:56 AM IST

Freedom fighters of Jharkhand. झारखंड में आजादी के कई नायकों कहानी मशहूर है. बिरसा मुंडा, तिलका मांझी, ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव, शेख भिखारी समेत दर्जनों नायकों ने आजादी की लड़ाई में कुर्बानी दी है. स्वतंत्रता दिवस के मौके पर सभी अमर शहीदों को नमन.

Freedom fighters of Jharkhand
झारखंड के स्वतंत्रता सेनानी (ईटीवी भारत)

रांची: झारखंड की धरती ने कई सपूतों को जन्म दिया है जिन्होंने आजादी और अपनी धरती की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति दे दी. अंग्रेज इन सपूतों के शौर्य से कांपते थे. ये क्रांतिकारी भले ही कम उम्र में ही देश के लिए न्योछावर हो गए लेकिन उन्होंने आजादी और आदिवासियों के हक के लिए जो मशाल जलाई वह युगों-युगों तक रोशन होती रहेगी.

तिलका मांझी ने छेड़ी थी पहली जंग

झारखंड के साहिबगंज जिले के राजमहल में 11 फरवरी 1750 को तिलका मांझी का जन्म हुआ. तिलका मांझी पहाड़िया जनजाति से आते हैं. जब वो बड़े हुए तो अंग्रेजों का जुल्म-अत्याचार देखा. उन्होंने अंग्रेजों और उनके समर्थक सामंतों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. 1771 से 1784 के तिलका मांझी ने अंग्रेजों के खिलाफ गुरिल्ला वार किया. अंग्रेजों ने 1781 में हिल काउंसिल का गठन किया लेकिन इससे भी पहाड़िया जनजाति पर अत्याचार कम नहीं हुआ. फिर 13 जनवरी 1784 को तिलका मांझी ने ताड़ के पेड़ पर चढ़कर कलेक्टर ऑगस्टस क्लीवलैंड को तीर से मार दिया.

1758 में दी गई थी फांसी

अंग्रेजों की लाख कोशिश के बाद भी तिलका मांझी उनकी पकड़ में नहीं आ रहे थे. फिर 'फूट डालो और राज करो' की नीति अपनाई और पहाड़िया समुदाय के लोगों को उनके खिलाफ भड़काना शुरू कर दिया, उन्हें लालच भी दिया जाने लगा. एक बार अंग्रेजी सैनिकों ने तिलका मांझी के गुरिल्ला आर्मी पर हमला कर दिया, जिसमें उनके कई लड़ाके मारे गए और वो खुद भी पकड़े गए. 35 साल की उम्र में 13 जनवरी 1785 को उन्हें फांसी दे दी गई.

ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव

ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव का जन्म 12 अगस्त 1817 को एक नागवंशी राज परिवार में हुआ था. पिता रघुनाथ शाहदेव की मौत के बाद उन्होंने बड़कागढ़ की गद्दी संभाली. उन्होंने मुक्ति वाहिनी सेना का गठन किया. उस समय अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन की आग सुलग रही थी. कई रजवाड़े अंग्रेजों की नीति के कारण नाराज थे. इस बीच ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव छोटा नागपुर को ब्रिटिश सत्ता से मुक्ति दिलाने के लिए लड़ाई शुरू कर दी. उन्हें शेख भिखारी, टिकैत उमरांव सिंह और पांडेय गणपत राय समेत कई लड़ाकों को एक साथ जोड़ा. सभी ने उनके नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने का निश्चय किया. इस बीच 1887 के विद्रोह का बिगुल बज चुका था.

रामगढ़ छावनी में भी विद्रोह की आग भड़क गई चुकी थी. यहां पर ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव ने अपने सबसे भरोसेमंद शेख भिखारी और टिकैत उमरांव सिंह को भेजा. जहां पर ब्रिटिश छावनी में विद्रोह के बाद कई लोग इनके साथ जुड़ गए. कई मौकों पर ठाकुर की सेना और अंग्रेजों के बीच जबरदस्त लड़ाई हो चुकी थी. अंग्रेजों की यहां पर एंट्री नहीं हो पा रही थी. डोरंडा छावनी से अंग्रेजी सेना ने हटिया पर आक्रमण कर दिया. जहां अंग्रेजी सेना को भारी नुकसान का सामना करना पड़ा. लड़ाई के दौरान चतरा से लौटने के दौरान एक घर में वो आराम करने लगे जहां से अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और 16 अप्रैल 1858 में उन्हें फांसी दे दी गई.

शेख भिखारी और टिकैत उमरांव सिंह

शेख भिखारी का जन्म 1819 में रांची जिले के होक्टे गांव में हुआ था. अंसारी परिवार से होने के नाते उन्होंने बचपन से ही अपने खानदानी पेशा अपना लिया. कपड़े तैयार कर ग्रामीण हाट बाजार में बेचने लगे. जव वो वयास्क हुए तो छोटा नागपुर महाराज के यहां नौकरी शुरू कर दी. बाद में बड़कागढ़ के राजा ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव ने उन्हें अपने यहां दीवान की नौकरी दी. उन्हें एक फौज की जिम्मेवारी दी गई. जब अंग्रेजों ने 1857 में अचानक हमला कर दिया उस समय शेख भिखारी ने अंग्रेज अफसर को मार गिराया.

शेख भिखारी ने रामगढ़ रेजिमेंट के कई लड़ाकों को अपने फौज में शामिल कर दिया और रांची, चाईबासा और संथाल परगना से अंग्रेजों को खदेड़ दिया. पहाड़ के रास्ते अंग्रेज रांची आने लगे लेकिन शेख भिखारी और टिकैत उमरांव की सैनिकों ने उनका जमकर मुकाबला किया. बाद में अंग्रेज गुप्त रास्ते पहाड़ पर चढ़ गए और उन्हें घेर कर पकड़ लिया बाद में 8 जनवरी 1858 को शेख भिखारी और टिकैत उमरांव सिंह को बरगद के पेड़ से लटकाकर फांसी की सजा दे दी गयी. शेख भिखारी की तरह टिकैत उमरांव सिंह भी जगन्नाथपुर के राजा ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव के यहां काम करते थे.

सिदो-कान्हू, चांद-भैरव

झारखंड के साहिबगंज जिले के भोगनाडीह गांव में सिदो मुर्मू और कान्हू मुर्मू का जन्म हुआ था. सिदो का जन्म 1815 में जबकि कान्हू का जन्म 1820 में हुआ था. इनके दो और भाई थे, एक चांद थे, जिनका जन्म 1825 में और दूसरे भैरव थे जिनका जन्म 1835 में हुआ था. ये छ भाई-बहन थे. बहनों का नाम फूलो और झानो था.

जब अंग्रेजों का अत्याचार बहुत बढ़ गया तो संथाल में असंतोष पनपने लगा. अंग्रेजी शासन के खिलाफ 1853 में विरोध शुरू हो गया था. अंग्रेजों का विरोध करने वालों ने सिदो-कान्हू दोनों भाइयों से संपर्क किया. फिर सिदो-कान्हू और उनके भाई-बहनों के नेतृत्व में 30 जून को 1855 को पंचकठिया में बैठक बुलाई गई. जहां 50 हजार से अधिक आदिवासी एकत्रित हुए और सिदो-कान्हू-चांद-भैरव को अपना नेता चुना. इसके साथ ही हूल क्रांति की शुरुआत हुई. हूल विद्रोह का मूल नारा था करो या मरो, अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो.

अपनी जमीन बचाने के लिए आदिवासियों ने अंग्रेजी हुकूमत के नाक में दम कर दिया. इस विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजों ने मार्शल लॉ लगा दिया. अंग्रेजों के आधुनिक हथियारों के सामने इनके तीर कमान वाली सेना ज्यादा दिनों तक नहीं टिक पाई. इस आंदोलन में 20 हजार से अधिक आदिवासियों ने अपनी शहादत दी. बाद में अंग्रेजों ने अगस्त 1855 में सिदो-कान्हू को पकड़कर फांसी दे दी. इस लड़ाई में सिदो मुर्मू के बाकी दो भाई चांद, भैरव और दोनों बहनों फूलो-झानो में अपनी कुर्बानी दी.

नीलांबर-पीतांबर

लातेहार जिला में एक खड़िया आदिवासी परिवार में जन्मे नीलांबर-पीतांबर दोनों भाइयों की 1857 क्रांति में महत्वपूर्ण योगदान रहा. दोनों भाइयों ने चेमो सान्या में भोक्ता, खरवार, चेरो और जमींदारों के साथ बैठक की. जहां से क्रांति की बिगुल फूंकी गई थी और गुरिल्ला वार शुरू किया गया. इनके नेतृत्व में सैकड़ों लोगों ने 27 नवंबर 1857 को रजहरा स्टेशन पर हमला कर दिया. यहां से अंग्रेज कोयला की ढुलाई करते थे. इससे अंग्रेज बौखला गए. इसके बाद अंग्रेजों ने दोनों भाइयों को मारने की साजिश रची.

फरवरी 1858 में डाल्टन चेमो सान्या पहुंचा, जहां लगातार 24 दिनों तक चेमो सान्या में रुका था. डाल्टन की कार्रवाई के बाद नीलांबर-पीतांबर को काफी नुकसान हुआ. दोनों भाइयों ने अपने परिजनों से मुलाकात की योजना बनाई. इसकी भनक डाल्टन को लग गई. डाल्टन ने मंडल के इलाके से दोनों भाइयों को पकड़ लिया. 28 मार्च 1859 को लेस्लीगंज में एक पेड़ पर दोनों भाइयों को फांसी दे दी गई.

महानायक भगवान बिरसा मुंडा

15 नवंबर 1875 को खूंटी जिले के उलिहातू गांव में जन्मे बिरसा मुंडा की आदिवासी परिवेश में लालन पालन हुआ और शुरुआती शिक्षा गांव में ही हुई. इसके बाद बिरसा मुंडा चाईबासा चले गए, जहां मिशनरी स्कूल में पढ़ाई की. छात्र जीवन में ही अंग्रेजों के जुल्म को लेकर चिंतित थे. आखिरकार उन्होंने लोगों को अंग्रेजों से मुक्ति दिलाने की ठानी.

बिरसा मुंडा ने आर्थिक स्तर पर सुधार के लिए आदिवासी समाज को जमींदारों के आर्थिक शोषण से मुक्त कराने की दिशा में कदम बढ़ाया. बिरसा मुंडा ने जब सामाजिक स्तर पर आदिवासियों में चेतना पैदा कर दी तो आर्थिक स्तर पर सारे आदिवासी शोषण के विरुद्ध स्वयं ही संगठित होने लगे. आदिवासियों अपने अधिकारों के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध व्यापक आंदोलन छेड़ दी.

22 अगस्त 1895 को बिरसा मुंडा को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया. उन्हें 2 साल की कठोर कारावास की सजा दी और 50 रुपये का जुर्माना भी लगाया. हजारीबाग जेल से रिहा होने के बाद बिरसा मुंडा फिर से जन आंदोलन में जुट गये. 1897 से 1900 के बीच मुंडा समाज और अंग्रेजी सिपाहियों के बीच लगातार युद्ध होते रहे. अगस्त 1897 में बिरसा मुंडा ने सैंकड़ों आदिवासियों के साथ तीर कमानों से लैस होकर खूंटी थाना पर धावा बोला. 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं के साथ अंग्रेजी सेना की लड़ाई हुई. जिसमें अंग्रेजी सेना हार गई. इस घटना के बाद कई आदिवासी नेताओं को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया था.

जनवरी 1900 डोमबाड़ी पहाड़ी पर बिरसा मुंडा एक जनसभा को संबोधित कर रहे थे. इसी दौरान अंग्रेजी सैनिकों ने हमला कर दिया, इस संघर्ष में काफी संख्या में महिलाएं और बच्चे मारे गये. बाद में बिरसा मुंडा के टीम के सदस्यों की गिरफ्तारी हुई. 3 मार्च 1900 को अंग्रेजों ने चक्रधरपुर से बिरसा मुंडा को गिरफ्तार कर लिया. इसके बाद उन्हें रांची जेल लाया गया. रांची जेल आने के दौरान वो काफी बीमार पड़ गये, उन्हें खून की उल्टी होने लगी. इसी बीमारी में बिरसा मुंडा ने 9 जून 1900 को रांची जेल में अंतिम सांस ली. झारखंड में बिरसा मुंडा को भगवान का दर्जा प्राप्त है. उन्हीं के जन्मदिन पर झारखंड राज्य का गठन हुआ है.

ये भी पढ़ें-

तीर-कमान के दम पर आदिवासियों ने ब्रिटिशर्स से किया था डटकर मुकाबला, गुरिल्ला वार से कांपते थे अंग्रेज

ब्रिटिश हुकूमत की नींव हिलाने वाले अमर शहीद सिदो कान्हू आज भी पूजनीय, गांव का किया जा रहा विकास

रांची: झारखंड की धरती ने कई सपूतों को जन्म दिया है जिन्होंने आजादी और अपनी धरती की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति दे दी. अंग्रेज इन सपूतों के शौर्य से कांपते थे. ये क्रांतिकारी भले ही कम उम्र में ही देश के लिए न्योछावर हो गए लेकिन उन्होंने आजादी और आदिवासियों के हक के लिए जो मशाल जलाई वह युगों-युगों तक रोशन होती रहेगी.

तिलका मांझी ने छेड़ी थी पहली जंग

झारखंड के साहिबगंज जिले के राजमहल में 11 फरवरी 1750 को तिलका मांझी का जन्म हुआ. तिलका मांझी पहाड़िया जनजाति से आते हैं. जब वो बड़े हुए तो अंग्रेजों का जुल्म-अत्याचार देखा. उन्होंने अंग्रेजों और उनके समर्थक सामंतों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. 1771 से 1784 के तिलका मांझी ने अंग्रेजों के खिलाफ गुरिल्ला वार किया. अंग्रेजों ने 1781 में हिल काउंसिल का गठन किया लेकिन इससे भी पहाड़िया जनजाति पर अत्याचार कम नहीं हुआ. फिर 13 जनवरी 1784 को तिलका मांझी ने ताड़ के पेड़ पर चढ़कर कलेक्टर ऑगस्टस क्लीवलैंड को तीर से मार दिया.

1758 में दी गई थी फांसी

अंग्रेजों की लाख कोशिश के बाद भी तिलका मांझी उनकी पकड़ में नहीं आ रहे थे. फिर 'फूट डालो और राज करो' की नीति अपनाई और पहाड़िया समुदाय के लोगों को उनके खिलाफ भड़काना शुरू कर दिया, उन्हें लालच भी दिया जाने लगा. एक बार अंग्रेजी सैनिकों ने तिलका मांझी के गुरिल्ला आर्मी पर हमला कर दिया, जिसमें उनके कई लड़ाके मारे गए और वो खुद भी पकड़े गए. 35 साल की उम्र में 13 जनवरी 1785 को उन्हें फांसी दे दी गई.

ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव

ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव का जन्म 12 अगस्त 1817 को एक नागवंशी राज परिवार में हुआ था. पिता रघुनाथ शाहदेव की मौत के बाद उन्होंने बड़कागढ़ की गद्दी संभाली. उन्होंने मुक्ति वाहिनी सेना का गठन किया. उस समय अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन की आग सुलग रही थी. कई रजवाड़े अंग्रेजों की नीति के कारण नाराज थे. इस बीच ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव छोटा नागपुर को ब्रिटिश सत्ता से मुक्ति दिलाने के लिए लड़ाई शुरू कर दी. उन्हें शेख भिखारी, टिकैत उमरांव सिंह और पांडेय गणपत राय समेत कई लड़ाकों को एक साथ जोड़ा. सभी ने उनके नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने का निश्चय किया. इस बीच 1887 के विद्रोह का बिगुल बज चुका था.

रामगढ़ छावनी में भी विद्रोह की आग भड़क गई चुकी थी. यहां पर ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव ने अपने सबसे भरोसेमंद शेख भिखारी और टिकैत उमरांव सिंह को भेजा. जहां पर ब्रिटिश छावनी में विद्रोह के बाद कई लोग इनके साथ जुड़ गए. कई मौकों पर ठाकुर की सेना और अंग्रेजों के बीच जबरदस्त लड़ाई हो चुकी थी. अंग्रेजों की यहां पर एंट्री नहीं हो पा रही थी. डोरंडा छावनी से अंग्रेजी सेना ने हटिया पर आक्रमण कर दिया. जहां अंग्रेजी सेना को भारी नुकसान का सामना करना पड़ा. लड़ाई के दौरान चतरा से लौटने के दौरान एक घर में वो आराम करने लगे जहां से अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और 16 अप्रैल 1858 में उन्हें फांसी दे दी गई.

शेख भिखारी और टिकैत उमरांव सिंह

शेख भिखारी का जन्म 1819 में रांची जिले के होक्टे गांव में हुआ था. अंसारी परिवार से होने के नाते उन्होंने बचपन से ही अपने खानदानी पेशा अपना लिया. कपड़े तैयार कर ग्रामीण हाट बाजार में बेचने लगे. जव वो वयास्क हुए तो छोटा नागपुर महाराज के यहां नौकरी शुरू कर दी. बाद में बड़कागढ़ के राजा ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव ने उन्हें अपने यहां दीवान की नौकरी दी. उन्हें एक फौज की जिम्मेवारी दी गई. जब अंग्रेजों ने 1857 में अचानक हमला कर दिया उस समय शेख भिखारी ने अंग्रेज अफसर को मार गिराया.

शेख भिखारी ने रामगढ़ रेजिमेंट के कई लड़ाकों को अपने फौज में शामिल कर दिया और रांची, चाईबासा और संथाल परगना से अंग्रेजों को खदेड़ दिया. पहाड़ के रास्ते अंग्रेज रांची आने लगे लेकिन शेख भिखारी और टिकैत उमरांव की सैनिकों ने उनका जमकर मुकाबला किया. बाद में अंग्रेज गुप्त रास्ते पहाड़ पर चढ़ गए और उन्हें घेर कर पकड़ लिया बाद में 8 जनवरी 1858 को शेख भिखारी और टिकैत उमरांव सिंह को बरगद के पेड़ से लटकाकर फांसी की सजा दे दी गयी. शेख भिखारी की तरह टिकैत उमरांव सिंह भी जगन्नाथपुर के राजा ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव के यहां काम करते थे.

सिदो-कान्हू, चांद-भैरव

झारखंड के साहिबगंज जिले के भोगनाडीह गांव में सिदो मुर्मू और कान्हू मुर्मू का जन्म हुआ था. सिदो का जन्म 1815 में जबकि कान्हू का जन्म 1820 में हुआ था. इनके दो और भाई थे, एक चांद थे, जिनका जन्म 1825 में और दूसरे भैरव थे जिनका जन्म 1835 में हुआ था. ये छ भाई-बहन थे. बहनों का नाम फूलो और झानो था.

जब अंग्रेजों का अत्याचार बहुत बढ़ गया तो संथाल में असंतोष पनपने लगा. अंग्रेजी शासन के खिलाफ 1853 में विरोध शुरू हो गया था. अंग्रेजों का विरोध करने वालों ने सिदो-कान्हू दोनों भाइयों से संपर्क किया. फिर सिदो-कान्हू और उनके भाई-बहनों के नेतृत्व में 30 जून को 1855 को पंचकठिया में बैठक बुलाई गई. जहां 50 हजार से अधिक आदिवासी एकत्रित हुए और सिदो-कान्हू-चांद-भैरव को अपना नेता चुना. इसके साथ ही हूल क्रांति की शुरुआत हुई. हूल विद्रोह का मूल नारा था करो या मरो, अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो.

अपनी जमीन बचाने के लिए आदिवासियों ने अंग्रेजी हुकूमत के नाक में दम कर दिया. इस विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजों ने मार्शल लॉ लगा दिया. अंग्रेजों के आधुनिक हथियारों के सामने इनके तीर कमान वाली सेना ज्यादा दिनों तक नहीं टिक पाई. इस आंदोलन में 20 हजार से अधिक आदिवासियों ने अपनी शहादत दी. बाद में अंग्रेजों ने अगस्त 1855 में सिदो-कान्हू को पकड़कर फांसी दे दी. इस लड़ाई में सिदो मुर्मू के बाकी दो भाई चांद, भैरव और दोनों बहनों फूलो-झानो में अपनी कुर्बानी दी.

नीलांबर-पीतांबर

लातेहार जिला में एक खड़िया आदिवासी परिवार में जन्मे नीलांबर-पीतांबर दोनों भाइयों की 1857 क्रांति में महत्वपूर्ण योगदान रहा. दोनों भाइयों ने चेमो सान्या में भोक्ता, खरवार, चेरो और जमींदारों के साथ बैठक की. जहां से क्रांति की बिगुल फूंकी गई थी और गुरिल्ला वार शुरू किया गया. इनके नेतृत्व में सैकड़ों लोगों ने 27 नवंबर 1857 को रजहरा स्टेशन पर हमला कर दिया. यहां से अंग्रेज कोयला की ढुलाई करते थे. इससे अंग्रेज बौखला गए. इसके बाद अंग्रेजों ने दोनों भाइयों को मारने की साजिश रची.

फरवरी 1858 में डाल्टन चेमो सान्या पहुंचा, जहां लगातार 24 दिनों तक चेमो सान्या में रुका था. डाल्टन की कार्रवाई के बाद नीलांबर-पीतांबर को काफी नुकसान हुआ. दोनों भाइयों ने अपने परिजनों से मुलाकात की योजना बनाई. इसकी भनक डाल्टन को लग गई. डाल्टन ने मंडल के इलाके से दोनों भाइयों को पकड़ लिया. 28 मार्च 1859 को लेस्लीगंज में एक पेड़ पर दोनों भाइयों को फांसी दे दी गई.

महानायक भगवान बिरसा मुंडा

15 नवंबर 1875 को खूंटी जिले के उलिहातू गांव में जन्मे बिरसा मुंडा की आदिवासी परिवेश में लालन पालन हुआ और शुरुआती शिक्षा गांव में ही हुई. इसके बाद बिरसा मुंडा चाईबासा चले गए, जहां मिशनरी स्कूल में पढ़ाई की. छात्र जीवन में ही अंग्रेजों के जुल्म को लेकर चिंतित थे. आखिरकार उन्होंने लोगों को अंग्रेजों से मुक्ति दिलाने की ठानी.

बिरसा मुंडा ने आर्थिक स्तर पर सुधार के लिए आदिवासी समाज को जमींदारों के आर्थिक शोषण से मुक्त कराने की दिशा में कदम बढ़ाया. बिरसा मुंडा ने जब सामाजिक स्तर पर आदिवासियों में चेतना पैदा कर दी तो आर्थिक स्तर पर सारे आदिवासी शोषण के विरुद्ध स्वयं ही संगठित होने लगे. आदिवासियों अपने अधिकारों के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध व्यापक आंदोलन छेड़ दी.

22 अगस्त 1895 को बिरसा मुंडा को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया. उन्हें 2 साल की कठोर कारावास की सजा दी और 50 रुपये का जुर्माना भी लगाया. हजारीबाग जेल से रिहा होने के बाद बिरसा मुंडा फिर से जन आंदोलन में जुट गये. 1897 से 1900 के बीच मुंडा समाज और अंग्रेजी सिपाहियों के बीच लगातार युद्ध होते रहे. अगस्त 1897 में बिरसा मुंडा ने सैंकड़ों आदिवासियों के साथ तीर कमानों से लैस होकर खूंटी थाना पर धावा बोला. 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं के साथ अंग्रेजी सेना की लड़ाई हुई. जिसमें अंग्रेजी सेना हार गई. इस घटना के बाद कई आदिवासी नेताओं को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया था.

जनवरी 1900 डोमबाड़ी पहाड़ी पर बिरसा मुंडा एक जनसभा को संबोधित कर रहे थे. इसी दौरान अंग्रेजी सैनिकों ने हमला कर दिया, इस संघर्ष में काफी संख्या में महिलाएं और बच्चे मारे गये. बाद में बिरसा मुंडा के टीम के सदस्यों की गिरफ्तारी हुई. 3 मार्च 1900 को अंग्रेजों ने चक्रधरपुर से बिरसा मुंडा को गिरफ्तार कर लिया. इसके बाद उन्हें रांची जेल लाया गया. रांची जेल आने के दौरान वो काफी बीमार पड़ गये, उन्हें खून की उल्टी होने लगी. इसी बीमारी में बिरसा मुंडा ने 9 जून 1900 को रांची जेल में अंतिम सांस ली. झारखंड में बिरसा मुंडा को भगवान का दर्जा प्राप्त है. उन्हीं के जन्मदिन पर झारखंड राज्य का गठन हुआ है.

ये भी पढ़ें-

तीर-कमान के दम पर आदिवासियों ने ब्रिटिशर्स से किया था डटकर मुकाबला, गुरिल्ला वार से कांपते थे अंग्रेज

ब्रिटिश हुकूमत की नींव हिलाने वाले अमर शहीद सिदो कान्हू आज भी पूजनीय, गांव का किया जा रहा विकास

ETV Bharat Logo

Copyright © 2024 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.