शिमला: हिमाचल प्रदेश के मंडी जिला में नेरचौक इलाके में केंद्र सरकार के सहयोग से 765 करोड़ रुपए की लागत से विशाल मेडिकल कॉलेज अस्पताल स्थापित किया गया है. वर्ष 2009 में हिमाचल सरकार ने ईएसआई को एक रुपए लीज पर डेढ़ सौ बीघा जमीन मेडिकल कॉलेज अस्पताल के लिए दी थी. यूपीए सरकार के समय ये प्रोजेक्ट अस्तित्व में आया और तब हिमाचल में प्रेम कुमार धूमल के नेतृत्व में भाजपा सरकार सत्ता में थी. अब एक दशक बाद ये मेडिकल कॉलेज सुर्खियों में आ गया है. इस मेडिकल कॉलेज के सुर्खियों में आने की वजह है एक हजार करोड़ यानी दस अरब रुपए का मुआवजा.
दरअसल, मीर बख्श नामक एक शख्स ने दावा किया था कि ये जमीन उसके पूर्वजों की है. मीर बख्श का कहना है कि जिस स्थान पर नेरचौक मेडिकल कॉलेज अस्पताल (अब लाल बहादुर शास्त्री मेडिकल कॉलेज अस्पताल नेरचौक) बना है, वहां की 90 बीघा से अधिक जमीन के वे ही वारिस हैं. हाईकोर्ट से ही में उनके हक में एक निर्देश दिया था. जिसमें हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को निर्देश दिए हैं कि मीर बख्श को उतनी ही जमीन किसी अन्य जगह दी जाए.
अब मीर बख्श ने हाईकोर्ट में इजराय याचिका दाखिल कर करीब दस अरब रुपए मुआवजे की मांग की है. आलम ये है कि हिमाचल सरकार के कुल बजट का एक बड़ा हिस्सा मुआवजे के रूप में बनता है. मीर बख्श ने दस अरब रुपए यानी एक हजार करोड़ रुपए मुआवजा मांगा है. आइए, जानते हैं कि आखिर पूरा मामला क्या है और ये जमीन का मालिकाना हक कितना पुराना है, ये जमीन कैसे केंद्र और फिर राज्य सरकार ने प्रयोग की और अब जमीन के वारिस क्या चाहते हैं?
एक रुपए की लीज पर डेढ़ सौ बीघा जमीन: केंद्र में यूपीए की सरकार के समय की बात है. वर्ष 2014 में छह मार्च को यूपीए सरकार के केंद्रीय श्रम व रोजगार मंत्री आस्कर फर्नांडीज ने मंडी जिला के नेरचौक में ईएसआईसी यानी इम्पलाइज स्टेट इंश्योरेंस कॉरपोरेशन के तहत बनने वाले मेडिकल कॉलेज अस्पताल का उद्घाटन किया. उस समय हिमाचल में वीरभद्र सिंह सीएम थे. उद्घाटन के दौरान केंद्रीय मंत्री ने पूर्व सीएम प्रेम कुमार धूमल की इस बात के लिए सराहना की थी कि 2009 में राज्य सरकार ने एक रुपए लीज पर डेढ़ सौ बीघा जमीन कॉलेज इमारत के लिए दी थी. उस समय ये मालूम नहीं था कि यही जमीन दस साल बाद एक हजार करोड़ रुपए के मुआवजे का कारण बनेगी. ये कॉलेज आरंभ में ईएसआई मेडिकल कॉलेज नेरचौक के नाम से जाना जाता था. ESI ने साल 2017-18 में ये मेडिकल कॉलेज और अस्पताल हिमाचल सरकार को इस शर्त के साथ सौंपा कि सरकार यहां एमबीबीएस की कक्षाएं बिठाएगी. केंद्र व राज्य के सहयोग से 765 करोड़ रुपए की लागत से विशाल परिसर बनकर तैयार हुआ था. उपकरण व अन्य इन्फ्रास्ट्रक्चर पर 285 करोड़ रुपए खर्च होने थे. इसे लेकर तब सदन में कांग्रेस व भाजपा में तकरार होती रहती थी. खैर, ये अलग विषय है. यहां इस पृष्ठभूमि का जिक्र इसलिए किया गया है. ताकि विवाद की जड़ में जा सकें.
19 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट से आया फैसला, हिमाचल सरकार को पड़ी थी 25 हजार कॉस्ट: मामले के दूसरे पहलुओं पर चर्चा से पहले यहां 19 जुलाई 2023 को सुप्रीम कोर्ट से आए फैसले पर नजर डालते हैं. दरअसल, मीर बख्श ने पहले हाईकोर्ट में अपनी जमीन के मामले में न्याय के लिए केस किया था. हाईकोर्ट से उसके हक में फैसला आया था और राज्य सरकार को 90 बीघा से अधिक जमीन अन्यत्र देने के आदेश हुए थे. इस आदेश के खिलाफ राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी. सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार की अपील को खारिज किया था, साथ ही सरकार पर 25 हजार रुपए की कॉस्ट भी लगाई थी.
राज्य सरकार ने अपनी अपील में जो तर्क दिया था, वो इस प्रकार है: राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि मीर बख्श द्वारा रखी गई संपत्ति निष्क्रांत संपत्ति प्रशासन अधिनियम, 1950 (संक्षेप में 1950 अधिनियम) की धारा 2(एफ) के अर्थ में निष्क्रांत संपत्ति है. इसे Evacuee Property Act, 1950 (for short "the 1950 Act") कहा जाता है. राज्य का तर्क था कि जमीन का मालिक सुल्तान मोहम्मद (जिनके वारिस मीर बख्श ने केस किया) उक्त कानून धारा 2 के खंड (डी) के अर्थ में निष्क्रांत व्यक्ति था. मामले में राज्य सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट में स्वीकार किया था कि सुल्तान मोहम्मद 1983 में अपनी मृत्यु तक हिमाचल में ही रह रहा था. सुल्तान मोहम्मद ने कभी भारत नहीं छोड़ा और वो यहीं रहा था. मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अभय ओका व जस्टिस संजय करोल ने की थी.
साठ के दशक में सुल्तान मोहम्मद ने भी लड़ी थी कानूनी लड़ाई: दरअसल, आजादी के बाद 1947 में संबंधित जमीन भारत सरकार के स्वामित्व में चली गई थी. सुल्तान मोहम्मद ने भी इस मामले में कानूनी लड़ाई लड़ी थी. वर्ष 1952-53 की जमाबंदी के कागजों के अनुसार ये जमीन सुल्तान मोहम्मद के पूर्वजों दीन मोहम्मद आदि की थी. ये जमीन भंगरोटू और नेरचौक इलाके में स्थित है. ये अलग-अलग जमीन 90 बीघा से अधिक थी और इसे 1950 के कानून के तहत निष्क्रांत संपत्ति यानी इवेक्यूइ प्रॉपर्टी घोषित कर केंद्र सरकार के स्वामित्व में दिया गया था. हालांकि, दस्तावेज बताते हैं कि सुल्तान मोहम्मद कभी भारत से बाहर नहीं गया और 1983 में उसकी मौत यहीं हुई थी. खैर, सुल्तान मोहम्मद ने 15 फरवरी 1957 में इस जमीन को वापिस लेने के लिए तत्कालीन पुनर्वास मंत्रालय में अपील की. बार-बार अपील की गई और अंतिम बार अपील वर्ष 1967 में रिजेक्ट हुई थी. फिर वर्ष 2000 में मीर बख्श ने भी जमीन वापिस लेने की लड़ाई लड़ी. मामला लगातार अदालतों में चलता रहा. फिर 9 जनवरी वर्ष 2009 में हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को आदेश दिए कि सुल्तान मोहम्मद के वारिस मीर बख्श को मंडी जिला में ही जमीन दी जाए.
अदालतों में चलता रहा मामला: जमीन के मालिकाना हक को लेकर ये मामला अदालतों में चलता रहा. वर्ष 2009 के हाईकोर्ट के आदेश के बाद मामला सुप्रीम कोर्ट भी पहुंचा था. खैर, उससे पहले हाईकोर्ट के आदेश पर राज्य सरकार ने मंडी जिला प्रशासन को 90 बीघा से अधिक जमीन तलाशने के लिए कहा. मंडी जिला प्रशासन ने केस बनाकर सरकार को भेजा. जोगेंद्र नगर के समीप पद्धर सब डिविजन में 91 बीघा भूमि एक साथ मिली, लेकिन स्थानीय लोग इस भूमि को देने के विरोध में हैं. मीर बख्श की जमीन 91 बीघे 16 बिस्वा पांच बिस्वांसी बनती है. पद्धर उपमंडल के तहत झंटीगरी फूलाधार के पास कृषि विभाग की जमीन को लेकर एसडीएम ने मीर बख्श को अलॉट करने से जुड़े कागजात बनाए हैं. इसे सरकार की मंजूरी के लिए भेज दिया गया है.
मंडी जिला के एडीसी रोहित राठौर के अनुसार पद्धर उपमंडल में 91 बीघा भूमि देने का केस सरकार की मंजूरी को भेजा गया है. लेकिन इसी बीच, मीर बख्श ने हाईकोर्ट में 1000 करोड़ के मुआवजे के लिए इजराय याचिका डाली है. इजराय याचिका मुआवजे की वसूली से संबंधित कानूनी प्रक्रिया है. मीर बख्श का कहना है कि उनके पूर्वजों की जमीन नेरचौक में मुख्य मार्ग के दोनों तरफ है और उसका वर्तमान रेट 15 लाख रुपए बिस्वा बनता है. कुल जमीन की वर्तमान कीमत 10 अरब रुपए के करीब है. अब राज्य सरकार के सामने नई चुनौती खड़ी हो गई है. अब सारी नजरें हाईकोर्ट में केस की सुनवाई की तारीख तय होने पर टिकी हैं.
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