जबलपुर। मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के जस्टिस विवेक अग्रवाल ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के दो प्रोफेसर संजय द्विवेदी और पवित्र श्रीवास्तव की नियुक्ति को रद्द करने का आदेश दिया है. कोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि इन दोनों की नियुक्ति के दौरान नियमों का पालन नहीं किया गया. संजय द्विवेदी माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति और रजिस्ट्रार रह चुके हैं. इसके साथ ही वे इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन के महानिदेशक जैसे महत्वपूर्ण पद पर भी रहे.
2009 में संजय द्विवेदी और पवित्र श्रीवास्तव की हुई थी नियुक्ति
माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय भोपाल में 2009 में संजय द्विवेदी और पवित्र श्रीवास्तव की रीडर के पद पर नियुक्ति हुई थी. एक याचिकाकर्ता ने मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में याचिका दायर करते हुए कहा था कि इन दोनों की ही नियुक्ति नियम विरुद्ध तरीके से हुई है और नियुक्ति के लिए जरूरी कमेटी नहीं बनाई गई थी. उस दौरान विश्वविद्यालय में कई अनुभवी प्रोफेसर्स थे लेकिन उन्हें कमेटी में शामिल नहीं किया गया. वहीं याचिका में आरोप लगाया गया था कि इन दोनों ही उम्मीदवारों के पास पर्याप्त अनुभव नहीं था. उसके बाद भी इन्हें माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय में रीडर के पद पर नियुक्ति दे दी गई थी.
हाईकोर्ट ने माना दोनों की नियुक्तियां फर्जी
याचिका कर्ता की ओर से पैरवी कर रहे एडवोकेट नित्यानंद मिश्रा ने कोर्ट में अपील की थी कि इन दोनों की ही नियुक्ति की प्रक्रिया को दोषपूर्ण मानते हुए इनकी नियुक्ति रद्द की जाए. याचिकाकर्ता की दलील और सबूत को सही मानते हुए मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के जज विवेक अग्रवाल ने इन दोनों ही प्रोफेसरों की नियुक्ति को निरस्त कर दिया है.
कुलपति और आईएमसी के महानिदेशक थे संजय द्विवेदी
संजय द्विवेदी की नियुक्ति रीडर के पद पर हुई थी बाद में यह प्रोफेसर हो गए. इसके बाद इन्हें माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय का कुलसचिव बना दिया गया. लगातार प्रमोशन पाते हुए यह माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति बन गए थे और यहीं से इन्हें प्रतिनियुक्ति पर इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मास कम्युनिकेशन में महानिदेशक पद पर नियुक्ति मिल गई थी.
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राजनीतिक प्रभाव से हुईं थीं नियुक्तियां
इस नियुक्ति को चुनौती देने वाले याचिका कर्ता ने जिस बारीकी से अनुसंधान किया है उससे यह स्पष्ट हो गया कि बड़े संस्थानों में काम करने वाले लोगों की नियुक्तियां अक्सर राजनीतिक प्रभाव से होती हैं. इन्हीं संस्थानों में जहां चपरासी की भर्ती के लिए पूरी नियमावली का पालन किया जाता है वहां कुलपति बनाने में सारे नियम शिथिल कर दिए जाते हैं. सवाल यह खड़ा होता है कि भ्रष्टाचार के जरिए शिक्षा के सर्वोच्च पद पर पहुंचे ऐसे अधिकारी व्यवस्था के साथ कैसे न्याय करते होंगे.