सरगुजा : आपने अक्सर एक लोकसभा क्षेत्र के लिए एक ही सांसद का प्रतिनिधित्व करते देखा होगा.सांसद ही अपने क्षेत्र की समस्याओं को संसद में उठाकर देश के सामने लाते हैं. किसी क्षेत्र के लिए उसका विकास होना या ना होना वहां के जनप्रतिनिधि पर भी निर्भर करता है.लेकिन आज हम आपको जिस लोकसभा क्षेत्र के बारे में बताने जा रहे हैं, वहां कभी एक नहीं बल्कि दो सांसदों का चुनाव होता था. सुनने में आपको अजीब लग रहा होगा,लेकिन यही सच है. तो आईए जानते हैं वो कौन सी लोकसभा सीट है जहां एक नहीं दो सांसदों ने जनता का प्रतिनिधित्व किया.
दो सांसदों वाली सीट का चुनावी इतिहास : देश के आजादी के बाद 1951 में अविभाजित मध्यप्रदेश का हिस्सा बनीं सरगुजा लोकसभा सीट. 1951 से लेकर 2019 तक सरगुजा में 17 चुनाव हो चुके हैं.इस बार 18वीं लोकसभा के लिए दिग्गज आमने सामने हैं.लेकिन आजादी के बाद इस लोकसभा सीट का परिदृश्य काफी अनोखा था. यहां 1952 और 1957 के चुनाव में एक से ज्यादा सांसद चुने गए थे. जिन्हें दिल्ली दरबार में जनता की आवाज उठाने का मौका मिला था. इसमें से एक सांसद सामान्य वर्ग का और दूसरा आरक्षित वर्ग से था.लेकिन साल 1962 के चुनाव में ये व्यवस्था खत्म कर दी गई. परिसीमन के बाद सीटों का आरक्षण हुआ.इसके साथ ही दो सांसद चुनने की परंपरा खत्म हो गई.
सीट एक दो सांसद वाली पार्टी : सरगुजा के इतिहास के जानकार गोविंद शर्मा के मुताबिक सरगुजा संसदीय सीट आजादी के बाद 1951 में हुए पहले चुनाव में ही अस्तित्व में आईथी. पहले 2 चुनाव में यहां से दो सांसद चुने गए. पहले सांसद महाराजा चंडिकेश्वर शरण सिंह जूदेव और दूसरे बाबूनाथ सिंह थे. दोनों पहली बार सरगुजा सीट से संसद पहुंचे. महाराजा चंडिकेश्वर शरण सिंह जूदेव निर्दलीय चुनाव जीते थे. जबकि बाबूनाथ सिंह कांग्रेस की टिकट पर निवार्चित हुए थे. लेकिन 1957 में दोनों ने ही कांग्रेस प्रत्याशी के रुप में चुनाव लड़ा. इस सीट से बाबूनाथ सिंह लगातार पांच बार सांसद बने.
क्यों एक सीट से चुने गए थे दो सांसद ?: आजादी के बाद पहले दो चुनावों में देश की प्रत्येक पांच संसदीय सीटों में से एक में से दो सांसदों को चुनना होता था. 1951-52 में भारत का पहला आम चुनाव 26 राज्यों में हुआ. 400 निर्वाचन क्षेत्रों के लिए चुनाव हुए.इसमें से 314 निर्वाचन क्षेत्रों में एक सांसद चुना गया.जबकि 86 लोकसभा सीटों में सामान्य और आरक्षित वर्ग के सांसद चुने गए. ये बहुसीट निर्वाचन क्षेत्र वंचित वर्गों, दलितों और आदिवासी समुदायों के लिए आरक्षित किए गए थे. ऐसी व्यवस्था किसी भी बड़े लोकतंत्र में राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए पहली थी. 1957 तक ये सिलसिला चला.लेकिन 1962 में परिसीमन के बाद नए सीट अस्तित्व में आएं.इसके साथ ही एक सीट पर एक ही प्रत्याशी को चुनने का निर्णय हुआ.
1977 में कांग्रेस से छीनी गई सीट : बाबूनाथ सिंह सरगुजा लोकसभा सीट से लगातार 5 बार सासंद चुने गए. 1952 से 1971 तक बाबूनाथ सिंह लगातार जीते. सरगुजा सीट पर शुरु से कांग्रेस का वर्चस्व रहा. लेकिन 1977 में पहली बार लरंग साय ने बाबूनाथ सिंह का विजयी रथ रोका. लरंग साय 1977 में भारतीय लोक दल की टिकट पर चुनाव लड़े और बाबूनाथ सिंह को चुनाव हराया था.