नई दिल्ली: देश में अपराध और जांच के तरीके 45 साल से भी ज्यादा समय से तक लगभग अपरिवर्तित रहे हैं. सुदीप चक्रवर्ती द्वारा लिखित और एलेफ बुक कंपनी द्वारा पब्लिक किताब फॉलन सिटी में 1978 में राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में अपराधियों रंगा और बिल्ला द्वारा किए गए रेप और हत्या के मामले पर चर्चा की गई है.
लेखक ने इस मामले के बारे में ईटीवी भारत के सौरभ शुक्ला से बात की और इसकी तुलना कोलकाता में हाल ही में हुए रेप-हत्या मामले से की. उन्होंने कहा कि कुछ भी नहीं बदला है. पुलिस तब तक मामलों को गंभीरता से नहीं लेती जब तक कि राष्ट्रीय आक्रोश न हो.
सुदीप चक्रवर्ती से पूछा गया अगर हम फॉलन सिटी को लें, तो आप तब और अब की जांच में क्या अंतर देखते हैं, खासकर अगर रंगा, बिल्ला के अपराध की तुलना निर्भया या हाल के आरजी कर जैसे मामलों से करें?
इस पर उन्होंने कहा कि पुलिस के पास अब बेहतर तकनीक है और ज्यादा एडवांस इक्विपमेंट और ट्रेनिंग है. ऐसा प्रतीत होता है कि दशकों बाद भी पुलिस का रवैया नहीं बदला है. भारतभर में पुलिस बल पर अत्यधिक बोझ है. तथाकथित वीआईपी और वीवीआईपी पुलिस की तैनाती को अपनी सुरक्षा के लिए रखते हैं, जबकि पुलिस को बड़े पैमाने पर सभी नागरिकों की सुरक्षा के लिए होना चाहिए.
गीता और संजय की हत्या, बिल्ला और रंगा द्वारा चोपड़ा बच्चों की हत्या, और बाद में निर्भया कांड और अब आरजी कर अस्पताल का मामला पुलिस व्यवस्था की अक्षमता, दिखावे के राजनीतिक हस्तक्षेप और कोई भी चीज, जांच या न्याय, तब तक तेजी से आगे नहीं बढ़ती जब तक कि जनता का आक्रोश गति नहीं पकड़ लेता.
रंगा और बिल्ला कौन थे? कृपया इस मामले में उनकी संलिप्तता के बारे में बताएं और पुलिस ने उन्हें कैसे पकड़ा?
बिल्ला और रंगा दो छोटे-मोटे अपराधी थे, जो बंबई में मिले थे और बाद में जब उन्हें लगा कि पुलिस का जाल बंबई में उन पर मंडरा रहा है तो उन्होंने बेहतर अवसरों के लिए दिल्ली जाने का फैसला किया. उन पर गीता और संजय चोपड़ा की हत्या का आरोप लगा और बाद में हत्याओं के लिए उन्हें फांसी पर लटका दिया गया. पुलिस उन्हें पकड़ नहीं पाई. आगरा में यमुना ब्रिज के पास जब कालका मेल धीमी हुई तो वे सैनिकों से भरी एक रेलगाड़ी में घुस गए. सैनिकों ने उन्हें हिरासत में लिया और दिल्ली जंक्शन (पुरानी दिल्ली स्टेशन) पहुंचने पर उन्हें पुलिस के हवाले कर दिया.
दोनों ने अपनी गिरफ़्तारी पर कैसी प्रतिक्रिया दी?
बिल्ला और रंगा ने गीता और संजय चोपड़ा के अपहरण में अपनी भूमिका से कभी इनकार नहीं किया, लेकिन उन्होंने गीता की हत्या और रेप के लिए एक-दूसरे शख्स को दोषी ठहराया. इन मामलों में निष्कर्ष या फैसले तक पहुचने में कितना समय लगा? ख़ास तौर पर 1978 के मामले को ध्यान में रखते हुए, जिस पर आपने गहन शोध किया है, मीडिया को इस मामले की रिपोर्टिंग करने में कितना समय लगा?
जांच शुरू होने से लेकर निष्कर्ष तक समय लगता है. न्याय उसके बाद ही हो सकता है. बिल्ला और रंगा के खिलाफ मामले में, उन्हें एक साल के भीतर मौत की सजा सुनाई गई, लेकिन मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदलने के लिए कई अपीलें की गईं. सितंबर 1978 में उनकी गिरफ्तारी से लेकर जनवरी 1982 में उनकी फांसी तक का मामला साढ़े तीन साल तक चला. उस समय के मानकों के हिसाब से यह बहुत जल्दी हुआ.
मीडिया कवरेज के मामले में आप दोनों मामलों की तुलना कैसे करेंगे? क्या खबर पहले अपने मूल रूप में सामने आई थी, या पूरी सच्चाई सामने आने से पहले अटकलें, खंडन और अधूरी जानकारी थी?
चूंकि 26 अगस्त 1978 को चोपड़ा चिल्ड्रेन की हत्या और 9 सितंबर 1978 को उनके संदिग्ध हत्यारों की गिरफ्तारी के बीच काफी समय अंतराल था, इसलिए बीच का समय अटकलों और अधूरी जानकारी से भरा था. पुलिस ने मीडिया को जानकारी टुकड़ों में दी. मीडिया को उस समय जो भी पता लगा वे अपने रीडर्स को दिया. पूरी सच्चाई सामने आने में कई महीने लग गए, जैसा कि मैंने अपनी किताब, फॉलन सिटी में विस्तार से बताया है.
उनके अपहरण और फिर हत्या के पीछे क्या मकसद था?
हत्याओं के पीछे मकसद साफ था. पैसे के लिए अपहरण, जो तब बहुत गलत साबित हुआ जब बिल्ला और रंगा को एहसास हुआ कि वे अमीर नहीं हैं, बल्कि एक नौसेना कैप्टन के बच्चे हैं. मेरा माननाहै कि हिंसा इसलिए बढ़ गई क्योंकि गीता और संजय चोपड़ा लगातार विरोध करते रहे, लड़ते रहे. बच्चों को कृपाण और तलवार से काटा गया था.
उस समय इस क्रूर हत्या पर जनता की क्या प्रतिक्रिया थी?
दिल्ली में मानो सन्नाटा छा गया. स्कूलों और कॉलेजों के कई हजार छात्रों ने न्याय और सार्वजनिक सुरक्षा की मांग करते हुए बोट क्लब तक मार्च निकाला. जन आक्रोश ने संसद को अपराध पर चर्चा करने और नतीजों पर जोर देने के लिए मजबूर किया. जांच कई हफ्तों तक पहले पन्ने की खबर बनी रही.
जन आक्रोश ने यह भी सुनिश्चित किया कि न्यायिक प्रक्रिया अपेक्षाकृत तेज हो और देश के सर्वोच्च कानून अधिकारी, वकील और न्यायाधीश, मामले पर बहस करें और मामले का फैसला सुनाएं. उस समय दिल्ली में डर का माहौल भी था. लोगों ने कुछ समय के लिए पार्कों में जाना बंद कर दिया. उन्होंने लिफ्ट लेना बंद कर दिया. बिल्ला-रंगा बहुत बड़ी बुराई का प्रतीक बन गए.
चूंकि उनके पिता एक सेवारत रक्षा अधिकारी थे, इसलिए सरकार और अन्य अधिकारी सक्रिय रूप से मामले को आगे बढ़ा रहे थे. आपको क्या लगता है कि जांच में देरी का कारण क्या था? क्या अपराधी पुलिस से काफी आगे थे?
इस मामले को सिर्फ इसलिए सक्रिय रूप से आगे नहीं बढ़ाया गया क्योंकि गीता और संजय के पिता एक रक्षा अधिकारी थे, बल्कि इसलिए भी क्योंकि अपराध की प्रकृति और लोगों में आक्रोश था. अपराध और गिरफ़्तारी के बीच दस दिन की देरी हुई.
अपराधियों के पुलिस से आगे निकलने का पहला कारण यह था कि एक पुलिस नियंत्रण कक्ष से दूसरे तक महत्वपूर्ण सूचना समय पर नहीं पहुंचाई गई, जबकि आस-पास के लोगों ने पुलिस से शिकायत की थी कि दो युवाओं को उनकी इच्छा के विरुद्ध एक कार में ले जाया जा रहा है. बच्चों ने मदद के लिए चिल्लाया था. फिर, शवों को खोजने में लगभग तीन दिन और लग गए। इससे बिल्ला और रंगा को बढ़त मिल गई.
यह मामला अन्य राजनीतिक दलों के लिए सरकार की आलोचना करने का अवसर कैसे बन गया?
आमतौर पर, राजनीतिक दल अन्य राजनीतिक दलों की कमजोरियों और गलतियों का फायदा उठाने की कोशिश करते हैं. यह मामला भी अलग नहीं था.
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