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SPECIAL: सुल्ताना से खत्म हो रहा है धीरे-धीरे लोहे का रिश्ता, कभी हामड की आवाज से उठता था गांव - झुंझुनू की स्पेशल खबर

वर्तमान में पूरा देश कोरोना की चपेट में हैं. काम धंधे सब पूरी तरह से चौपट हो गए हैं. ऐसे में झुंझुनू के सुल्ताना कस्बे में पुरखों के जमाने से चला आ रहा लोहे का काम भी बंद होने की कगार पर है. यहां के लोहे से बनी कड़ाही और देग की मांग हरियाणा समेत कई राज्यों में है, लेकिन कोरोना की वजह से कारीगरों के हाथ से यह रोजगार भी छिनता जा रहा है.

सुल्ताना कस्बे में लोहे का व्यापार, Iron trade in sultana town
हाथों से छिन रहा रोजगार

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Published : Aug 23, 2020, 3:58 PM IST

झुंझुनू. जिला मुख्यालय से चिड़ावा की ओर बढ़ने पर आता है सुल्ताना कस्बा. इस कस्बे का लोहे से बड़ा पुराना रिश्ता है. जी हां इस कस्बे के बड़ी संख्या में लोग लोहे के काम से जुड़े हुए हैं और यहां बनने वाली कड़ाही और देग देश के लगभग सभी हिस्सों में यहां से मंगाए जाते हैं. इसका कारण यह है कि यहां की कड़ाही में नीचे से लेकर ऊपर तक एक ही तरह की मोटाई का तला होता है. इसकी वजह से इसमें बनने वाले खाने और मिठाई का टेस्ट शानदार होता है और इसलिए देश के जाने माने हलवाई भी यहीं से कड़ाही मंगवाते हैं.

सुल्ताना से खत्म हो रहा है लोहे का रिश्ता

बड़े-बड़े देग भी भेजे जाते हैं देश में

सुल्ताना के कारीगरों की माने तो अजमेर दरगाह सहित देश के बड़ी-बड़ी जगह पर जो देग काम में लिये जाते हैं, वह सुल्ताना कस्बे से ही भेजे हुए हैं. इसके अलावा अलग-अलग पात की जोड़कर कड़ाही भी बनाने की कला सुल्ताना कस्बे में है. जो किसी दूसरे जगह पर नहीं पाई जाती. इसलिए निकटवर्ती हरियाणा कस्बे में यहां से लोहे का बड़ा माल जाता है. इसके अलावा देश के अन्य हिस्सों में भी यहां से कड़ाहियां भेजी जाती हैं.

लोहे की कड़ाहियां

कोरोना ने कर दी हालात खराब

वहीं, हर धंधे की तरह कोरोना ने यहां पर भी अपना असर छोड़ा है. यहां के मजदूरों और अन्य मिस्त्रियों के पास हिसार या हरियाणा के अन्य हिस्सों से कच्चा माल मंगवाने तक के पैसे नहीं हैं. यहां के कारीगरों ने सरकार पर भी आरोप लगाते हुए कहा कि महज 20,000 रुपए की सहायता दी गई है. इतने में कैसे कोई कारखाना चल सकता है.

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इसके अलावा लॉकडाउन की वजह से सीमाएं भी बंद है, इसलिए ना तो कच्चा माल आ रहा है और ना ही तैयार माल जा पा रहा है. ऐसे में इस धंधे में काम करने वाले लोगों के पास फाकाकशी की नौबत आने वाली है.

कभी गांव उठता था हामड की आवाज से

भले ही इस कस्बे की कड़ाही और देग पूरे देश में प्रसिद्ध हो लेकिन मशीनीकरण की वजह से यहां का बड़ा काम प्रभावित हुआ है. जहां पहले कस्बे के 500 परिवार इस धंधे से जुड़े हुए थे वहीं, अब बमुश्किल 20 परिवार ही यह काम कर रहे हैं.

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जब इतनी संख्या में ज्यादा लोग जुड़े हुए थे तो सुबह 4 बजे ही लोहा कूटने के एक विशेष प्रकार की मशीननुमा यंत्र (हामड) की आवाज से गांव की फिजा गूंज उठती थी. गांव के लोग भी इस आवाज से उठ जाया करते थे. ऐसे में पहले मशीनीकरण की वजह से यह कला लुप्त करने की कगार पर थी तो अब कोरोना वायरस से तो लगता है कि इस धंधे पर अंतिम कील ठोकने का काम कर दिया है.

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