भोपालगढ़ (जोधपुर).राजस्थान देश के उन चुनिंदा राज्यों में से एक है जो अपनी कला और संस्कृति को सहेजने में कामयाब रहा है. लेकिन अब जाकर ऐसा लगने लगा है कि इंटरनेट और खासकर सोशल मीडिया के युग में विभिन्न कलाओं को सहेज पाना मुश्किल हो जाएगा.
अब बहरूपियों को नहीं मिलता उचित सम्मान राजस्थान की प्रसिद्ध परंपरागत कलाओं में से एक है बहरूपिया कला. लेकिन, अब यह कला अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है. हो सकता है शायद अगली दो-तीन पीढ़ी बाद यह कला पूरी तरह से विलुप्त ही हो जाए.
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ईटीवी ने जब इन कलाकारों से बात की तो उन्होंने भीगी आंखों के साथ लड़खड़ाती ज़ुबान में कहा, "साहब इस काम में अब न इज्जत है, और न पैसा." बहरूपिया कलाकारों पर अब रोजी-रोटी का संकट मंडराने लगा है. राजे-रजवाड़ो के समय इन्हें उचित मान-सम्मान मिलता था. लेकिन, अब स्थिति ये है कि लोग इन्हें भिखारी तक कह देते हैं. लोगों का तंज होता है, "मेहनत मजदूरी करके कुछ कमाओ, ऐसे भीख मांगने से कुछ नहीं होगा."
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धार्मिक सौहार्द के प्रतीक होते हैं बहरूपिये...
एक बहरूपिया अपनी कला के जरिए समाज में सौहार्द का भी संदेश देता है. इन कलाकारों में हिंदू और मुसलमान दोनों हैं. मगर वे कला को मजहब की बुनियाद पर विभाजित नहीं करते. एक मुसलमान बहरूपिया कलाकार हिंदू देवी-देवताओं का रूप धारण करने में संकोच नहीं करता तो हिंदू भी पीर, फकीर या बादशाह बनने में गुरेज नहीं करते.