जयपुर. सालों पहले लोगों के पास घड़ियां नहीं हुआ करती थीं. बमुश्किल किसी के पास घड़ियां हुआ करती थीं. जयपुर में भी घड़ियां आम आदमी की पहुंच से दूर रहती थी. जंतर-मंतर पर धूप-छांव से समय का अंदाजा लगाने के साथ ही जयपुर में मौजूद सभी दरवाजों पर लगे घंटों के टंकार ही समय सूचकांक हुआ करते थे. हालांकि 1912 में इंग्लैंड के नॉटिंघम से 3 घड़ियां लाकर जयपुर के अजमेरी गेट पर बने किंग एडवर्ड मेमोरियल (यादगार), चांदपोल स्थित सेंट एंड्रयूज चर्च और सिटी पैलेस में लगाई गई थी जो जयपुर के इतिहास का हिस्सा बन गई है. हालांकि इनमें से यादगार की सालों से बंद पड़ी घड़ी जयपुर की साख पर बट्टा लगा रही है.
आधुनिक भारत में घड़ी होना एक आम बात है. दीवार घड़ी, रिस्ट वॉच हर घर में देखी जा सकती है. हालांकि अब तो स्मार्ट वॉच का जमाना आ गया है, लेकिन पहले घड़ी स्टेटस सिंबल हुआ करती थी. दहेज में दी जाने वाली दीवार घड़ी को भी अन्य सामान के साथ ठेले पर सजा कर बैंड-बाजे के साथ घुमाया जाता था. अंग्रेजों की पॉकेट वॉच भी किसी अजूबे से कम नहीं थी. जयपुर में भी घड़ियां सिर्फ रसूखदारों की हवेलियों की शोभा बढ़ाती थी. आम आदमी तो महज जयपुर के दरवाजों पर घंटों की टंकार से ही अपनी दिनचर्या निर्धारित करता था.
जब जयपुर में अजमेरी गेट पर किंग एडवर्ड मेमोरियल यादगार (Historical clock of King Edward Memorial 'Yadargaar') की इमारत बनी तो यहां सार्वजनिक घड़ी लगाने के लिए पश्चिम दिशा में मीनार बनाकर इंग्लैंड के नॉटिंघम से लाई गई घड़ी को यहां लगाया गया. ऐसे ही दो अन्य घड़ियों को चांदपोल के सेंट एंड्रयूज चर्च और सिटी पैलेस में भी लगाया गया. बताया जाता है कि यादगार किंग एडवर्ड की याद में बनाया गया था और शुरुआत में ये विदेशी पावणों के ठहरने की जगह थी. ऐसे में यहां पर एक घड़ी लगाई गई चूंकि अंग्रेज क्रिश्चियन थे और चांदपोल के बाहर बनाई गई चर्च में ही प्रार्थना करते थे. ऐसे में यहां घड़ी लगाने को प्राथमिकता दी गई. जब इन दो स्थानों पर घड़ी लगी तो जयपुर राज परिवार के निवास स्थान सिटी पैलेस में भी घड़ी लगना जरूरी समझा गया. ऐसे में तीसरी घड़ी के लिए सिटी पैलेस स्थान को चुना गया.