अजमेर. सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह से कव्वाली का गहरा नाता रहा है. ख्वाजा गरीब नवाज को भी कव्वाली पसंद थी. यही वजह है कि दरगाह में सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी शाही कव्वाल कव्वालियां पेश करते आए हैं. खासकर उर्स के मौके पर दीवान की सदारत में होने वाली महफिल में परंपरागत कव्वालियां होती है.
कव्वालियों का सिलसिला ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह से शुरू हुआ है. जानकार लोग मानते है कि अपने मौला की तारीफ में पढ़े गए कलाम ने धीरे-धीरे कव्वाली की शक्ल ले ली. दरगाह के खादिम हाजी पीर सैयद फकर काजमी बताते है कि ख्वाजा गरीब नवाज जब अजमेर आए तब हर खुशी के मौके पर राजस्थान में गाने बजाने का दौर था. उस वक्त मौला की तारीफ में पढ़े जाने वाले कलाम को भी वाद्य यंत्रों की धुनों के साथ गाया जाने लगा, तब से कव्वालियों का सिलसिला आगे बढ़ा.
पढ़ें-अजमेर: भारी सुरक्षा के बीच ख्वाजा की नगरी पहुंचा 212 पाक जायरीनों का जत्था
काजमी ने बताया कि तीन प्रकार से कव्वाली गाई जाती है, जिसमें हमद में खुदा की तारीफ होती है, नात में मोहम्मद रसूल अल्लाह की तारीफ होती है और कौल में मौला कायनात की तारीफ होती है. उन्होंने बताया कि कव्वाली में गाए जाने वाले कलामों को सुनकर सुनने वाला अपने खुदा की मोहब्बत में इतना डूब जाता है कि उसे खुदा के अलावा कुछ याद नहीं रहता. कव्वाली इबादत का जरिया है जो खुदा से जोड़ता है.