मंडला। जिले कि आदिवासी महिलाओं द्वारा किए जाने वाला पारम्परिक नृत्य 'रीना' अब अपने अस्तित्व के आखिरी पड़ाव पर है. नई पीढ़ी अब इससे काफी दूर जा चुकी है. केवल वो बुजुर्ग महिलाएं ही इसका दामन थामे हुए हैं, जो टेलीविजन और इंटरनेट की दुनिया के लिहाज से पिछड़ी मानी जाती हैं.
विलुप्त हो रहा आदिवासी महिलाओं का पारम्परिक नृत्य 'रीना', सिर्फ बुजुर्ग महिलाओं तक सीमित
मंडला जिले के आदिवासी अंचल की पहचान रहा पारम्परिक नृत्य 'रीना' लगभग विलुप्त होता जा रहा है.नई पीढ़ी अब इससे काफी दूर जा चुकी है. केवल बुजुर्ग महिलाएं ही इसका दामन थामे हुए हैं.
एक दौर वो भी था जब गांव के किसी भी परिवार में खुशियों का कोई भी मौका होता तो एक तरफ जहां पुरुष 'कर्मा' और 'सैला' की धुन पर नाचते थे, तो वहीं महिलाएं पारम्परिक परिधान और लाल रंग के लिबाज में सांझ से लेकर भोर का तारा उगने तक 'रीना' की मधुर तान छेड़ते और तालियों की ताल संग नृत्य करती थी.रीना के गीतों में धार्मिक कहानियों, खेत बाड़ी की बातें, जंगल से जुड़े अनुभव होते हैं. वहीं महिलाएं बताती हैं कि उन्होंने किसी से सीखा तो नहीं, लेकिन पुराने दौर में महिलाओं के मनोरंजन का बस यहीं एक साधन हुआ करता था. खासकर जब पुरुष फसल को जंगली जानवरों से बचाने रात में खेतों की रखवाली करने जाते थे.
आदिवासियों की इस समाप्त हो रही परम्परा को बचाने के लिए, जिले के मोहगांव विकास खंड में प्रभारी बीओ के पद पर कार्यरत रूप सिंह भगत अपने स्तर पर प्रयास कर रहे हैं. वहीं आदिवासियों के लिए आरक्षित मंडला जिले के जनप्रतिनिधियों और शासन-प्रशासन को भी इसके लिए आगे आना होगा, नहीं तो ये सदियों की परंपरा महज सरकारी कार्यक्रमों में नुमाइस का साधन बन कर रह जाएगी.