चिंतपूर्णी:दस महाविद्याओं में मां छिन्नमस्तिका माता छठी महाविद्या कहलाती हैं. मां छिन्नमस्तिका देवी को मां चिंतपूर्णी के नाम से भी जाना जाता है. मार्कंडेय पुराण व शिव पुराण आदि में देवी के इस रूप का वर्णन किया गया है. इनके अनुसार जब देवी ने चंडी का रूप धरकर राक्षसों का संहार किया और देवों को विजय दिलवाई तो चारों ओर उनका जय घोष होने लगा, लेकिन देवी की सहायक योगिनियां अजया और विजया की रक्त पिपासा शांत नहीं हो पाई थी.
इस पर उनकी रक्त पिपासा को शांत करने के लिए मां ने अपना मस्तक काटकर अपने रक्त से उनकी रक्त प्यास बुझाई. जिस कारण माता को छिन्नमस्तिका नाम से पुकारा जाने लगा. माना जाता है की जहां भी देवी छिन्नमस्तिका का निवास हो वहां पर चारों ओर भगवान शिव का स्थान भी होना चाहिए. यहां पर भी मां के स्थान के चारों ओर भगवान शिव का स्थान है, यहां पर कालेश्वर महादेव व मुच्कुंड महादेव और शिववाड़ी जैसे शिव मंदिर स्थापित हैं.
मां छिन्नमस्तिका की एक कथा इस प्रकार है...
भगवती भवानी अपनी दो सहचरियों के संग मन्दाकिनी नदी में स्नान कर रही थी. स्नान करने के बाद दोनों सहचरियों को बहुत तेज भूख लगने लगी. भूख की पीडा की वजह से उनका रंग काला हो गया तब सहचरियों ने भोजन के लिये भवानी से कहा.
भवानी ने सहचरियों से कुछ देर प्रतीक्षा करने के लिये कहा, लेकिन वह बार-बार भोजन के लिए हठ करने लगी. सहचरियों ने नम्रतापूर्वक अनुरोध किया “मां तो भूखे शिशु को अविलम्ब भोजन प्रदान करती है” ऐसा वचन सुनते ही भवानी ने अपने खडग से अपना ही सिर काट दिया. कटा हुआ सिर उनके बायें हाथ में आ गिरा और तीन रक्तधाराएं बह निकलीं.