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हिमाचल में 2 दिन रहती है डगयाली, श्मशान से घर तक रहता है डायनों का साया!

छोटी डगयाली और उसके अगले दिन अमावस्या को बड़ी डगयाली या उवांस डुवांस भी कहते हैं. इसे अघोरा चतुर्दर्शी के नाम से भी जाना जाता है. डगयाली भाद्रपद कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी पर आती है. मान्यता है कि इन दो रातों को काली शक्तियों का प्रभाव ज्यादा रहता है. इन दो रातों में लोग खौफ के साएं में जीते हैं. इस दिन तांत्रिक काली शक्तियों को जगाने के लिए साधना करते हैं..

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Published : Aug 28, 2020, 9:01 PM IST

Updated : Aug 28, 2020, 9:11 PM IST

सोलन: हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में रक्षाबंधन के 14 दिनों बाद भद्रपद कृष्ण पक्ष चतुर्दशी पर डगयाली मनाई जाती है. इसे कई क्षेत्रों उवांस-डुवांस या अलग-अलग नामों से जाना जाता है. छोटी डगयाली और उसके अगले दिन अमावस्या को बड़ी डगयाली कहते हैं.

इसे शास्त्रों में कुशाग्रहणी अमावस्या भी कहा जाता है. इस दिन शिव के गणों, डाकनी, शाकनी, चुडैल, भूत-प्रेतों को खुली स्वतंत्रता होती है. कहते हैं कि इस दिन डायनों का नृत्य भी होता है. भगवान ब्रह्मा, विष्णु महेश भी इस दिन रक्षा नहीं करते. इस चतुर्दशी को अघोरा चतुर्दशी भी कहा जाता है.

वीडियो.

सायंकाल में काटा जाता है डायन का नाक

छोटी डगयाली के दिन लोग अरबी के पत्तों के पतीड़, जिसे स्थानीय भाषा में धींधड़े भी कहते हैं वह बनाए जाते हैं. उसे बनाकर उसके एक पीस को दरवाजे पर बैठकर काटा जाता है. इसे काटने को डायन का नाक काटना कहते हैं और इस काटने वाला बोलता है डगाये-डगाये तेरा नाक काटूं.

डगयाली पर भूत प्रेत का मुखौटा पहन डायनों का नृत्य करते लोग

इसके बाद माना जाता है कि डायन उनके घर का कुछ नहीं बिगाड़ सकती और घर पर किसी नकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव नहीं होता. हिमाचल के अलावा उत्तराखंड, असम, सिक्किम और नेपाल में भी कुशाग्रहणी अमावस्या यानि डगयाली को अलग-अलग नामों से जाना जाता है. हमारे शास्त्रों में कुशा को वनस्पति तंत्र में मुख्य जड़ी माना जाता है. इस दिन इस जड़ी को धरती से उखाड़कर एकत्रित करने का शुभ-दिन माना जाता है.

उवांस डुवांस

हिमाचल प्रदेश में रक्षा बंधन को ही डगैली से बचाव के लिए विद्वान पंडित सरसों, चावल लाल कपड़े में मौली में पिरोकर रक्षा मंत्र अभिमंत्रित करके रक्षा सूत्र लोगों को बांधते हैं. छोटी डगयाली को भेखले की कांटेदार टहनियां घरों के दरवाजे, खिड़कियों में लगाते हैं. इसके बाद अमावस्या की रात को तिंबर यानि तिरमिर के कांटे की टहनियां घर के बाहर टांगते हैं. कहा जाता है कि तंत्र विद्या के जानकार डायनों के नृत्य को जंगल में देखने जाते हैं.

भेखले की कांटेदार टहनी.

साहित्यकारों और स्थानीय लोगों की मान्यता है कि इन 2 रातों को बुरी शक्तियों का प्रभाव ज्यादा रहता है, जिनमें तांत्रिक साल में एक बार काली शक्तियों को जागृत करने के लिए साधना करते हैं, जिनसे बचने के लिए यहां के लोग अपने घरों के बाहर टिंबर के पत्ते लटकाते हैं. जबकि कुछ लोग कांटे वाले किसी भी पौधे के तने को दरवाजे के आसपास रखते है.

हिमाचल की प्राचीन परंपरा डग्याली

कहा यह भी जाता है की इस माह सभी देवी-देवता सृष्टि की रक्षा छोड़ असुरों के साथ युद्ध करके अपनी शक्तियों का प्रर्दशन करने अज्ञात प्रवास पर चले जाते हैं. इस माह की अमावस्या की रात को ही डगयाली या चुड़ैल की रात कहा जाता है.

घरों में कांटेदार झाड़ियां लगा करते हैं लोग बचाव

शिवगणों के प्रभाव को कम करने के लिए हिमाचल के सोलन, सिरमौर, शिमला जिलों के ग्रामीण क्षेत्रों के लोग आज भी अपने घरों के बाहर कांटेदार झाड़ियां लगाते हैं. सोलन जिला में छोटी डगैली के दिन कांटेदार झाड़ी भैखले और बड़ी डगैली के दिन तिरमिर की कांटेदार झाड़ी लगाकर लोग घर परिजनों को बुरी आत्माओं के प्रभाव से बचाते हैं.

डगयाली पर भूत प्रेत का मुखौटा पहन डायनों का नृत्य करते लोग

ऐसी मान्यता है कि इस अमावस्या की रात को जितने भी काली विद्या वाले तांत्रिक होते हैं वे काली शक्तियों को जागृत कर किसी का अहित करने के लिए तंत्र का सहारा लेते हैं. क्यूंकि ऐसा माना जाता है कि इस दौरान देवता बुरी शक्तियों से लड़ाई करने चले जाते हैं तो इस डर के कारण अपने घरों के बाहर दिये जलाकर रोशनी करते हैं और बुरी शक्तियों के प्रभाव को खत्म करने का आह्वान करते हैं.

Last Updated : Aug 28, 2020, 9:11 PM IST

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