शिमला: ईटीवी भारत की खास सीरीज 'अद्भुत हिमाचल' में हम आपको एक ऐसे मंदिर के बारे में बताएंगे जहां एक कलश की अद्भुत कहानी यहां पहुंचने वाले श्रद्धालुओं को अपनी ओर खींचती है. जुब्बल कोटखाई में मां हाटेश्वरी के प्राचीन मंदिर में ये कलश मौजूद है . यह शिमला से लगभग 110 किमी. की दूरी पर स्थित है. मान्यता है कि इस प्राचीन मंदिर का निर्माण 700-800 वर्ष पहले हुआ था.
माता हाटेश्वरी का मंदिर विशकुल्टी, राईनाला और पब्बर नदी के संगम पर सोनपुरी पहाड़ी पर स्थित है. मूलरूप से यह मंदिर शिखर आकार नागर शैली में बना हुआ था, लेकिन बाद में एक श्रद्धालु ने इसकी मरम्मत कर इसे पहाड़ी शैली के रूप में परिवर्तित कर दिया.
मां हाटकोटी के मंदिर में एक गर्भगृह है जिसमें मां की विशाल मूर्ति विद्यमान है. यह मूर्ति महिषासुर मर्दिनी की है. इतनी विशाल प्रतिमा हिमाचल में ही नहीं बल्कि भारत के प्रसिद्ध देवी मंदिरों में भी देखने को नहीं मिलती. प्रतिमा किस धातु की है इसका अनुमान लगाना मुश्किल है.
क्या है मान्यता
यहां के स्थायी पुजारी ही गर्भगृह में जाकर मां की पूजा कर सकते हैं. मंदिर के बाहर प्रवेश द्वार के बाईं ओर एक ताम्र कलश लोहे की जंजीर से बंधा है जिसे स्थानीय भाषा में चरू कहा जाता है. चरू के गले में लोहे की जंजीर बंधी है. कहा जाता है कि इस जंजीर का दूसरा सिरा मां के पैरों से बंधा है.
मान्यता है कि सावन भादों में जब पब्बर नदी में अत्यधिक बाढ़ आती है तब हाटेश्वरी मां का यह चरू सीटियों की आवाज निकालता है और भागने का प्रयास करता है. इसलिए चरू को मां के चरणों के साथ बांधा गया है. लोककथाओं के मुताबिक मंदिर के बाहर दो चरू थे, लेकिन दूसरी ओर बंधा चरू नदी की ओर भाग गया था.पहले चरू को मंदिर पुजारी ने पकड़ लिया था.
बता दें कि चरू पहाड़ी मंदिरों में कई जगह देखने को मिलते हैं. इनमें यज्ञ के दौरान ब्रह्मा भोज के लिए बनाया गया हलवा रखा जाता है. कहा जाता है कि हाटकोटी मंदिर की परीधि के ग्रामों में जब कोई विशाल उत्सव, यज्ञ, शादी का आयोजन किया जाता था तो हाटकोटी से चरू लाकर उसमें भोजन रखा जाता था. कितना भी बांटने के बाद चरू से भोजन खत्म नहीं होता था.
यह है लोक गाथा
एक लोकगाथा के अनुसार देवी के संबंध में मान्यता है कि कई दशक पहले एक ब्राह्माण परिवार में दो सगी बहनें थीं. उन्होंने अल्प आयु में ही सन्यास ले लिया और घर से भ्रमण के लिए निकल पड़ी. उन्होंने संकल्प लिया कि वे गांव-गांव जाकर लोगों के दुख दर्द सुनेंगी और उसके निवारण के लिए उपाय बताएंगी. दूसरी बहन हाटकोटी गांव पहुंची जहां मंदिर स्थित है. उसने यहां एक खेत में आसन लगाकर ध्यान किया और ध्यान करते हुए वह लुप्त हो गई.
जिस स्थान पर वह बैठी थी वहां एक पत्थर की प्रतिमा निकल पड़ी. इस आलौकिक चमत्कार से लोगों की उस कन्या के प्रति श्रद्धा बढ़ी और उन्होंने इस घटना की पूरी जानकारी तत्कालीन जुब्बबल रियासत के राजा को दी. राजा ने इस घटना को सुना तो वह तत्काल पैदल चलकर यहां पहुंचे और इच्छा प्रकट करते हुए कहा कि वह प्रतिमा के चरणों में सोना चढ़ाएगा जैसे ही सोने के लिए प्रतिमा के आगे कुछ खुदाई की तो वह दूध से भर गया. उसके बाद से राजा ने यहां पर मंदिर बनाने का निर्णय किया और लोगों ने उस कन्या को देवी रूप माना और गांव के नाम से इसे 'हाटेश्वरी देवी' कहा जाने लगा.