शिमला:हिमाचल कीराजधानी शिमला के रिज मैदान पर लगा क्राफ्ट मेला स्थानीय लोगों को ही नहीं, सैलानियों को भी अपनी ओर आकर्षित कर रहा है. यहां हाथ से बनी वस्तुएं सबको पसंद आ रही हैं. कुल्लू-किन्नौरी शॉल से लेकर चंबा रूमाल तक यहां मौजूद हैं. लेकिन चंबा रूमाल पर लोगों की सबसे ज्यादा नजर है. रेशम के धागों से कॉटन और खादी के रूमाल पर की गई कारीगरी को देख हर कोई चकित हो रहा है. चंबा के एक रूमाल की कीमत 250 से लेकर 50 हजार रुपये या उससे ऊपर भी चली जाती है.
रूमाल को बनाने वाली इंदु शर्मा और सुनीता ठाकुर बताती हैं कि एक रूमाल को बनाने में 6 महीने तक का समय लग जाता है. चंबा रूमाल की कारीगर इंदु शर्मा ने बताया कि रूमाल पर चंबा के एतिहासिक मणिमहेश यात्रा दर्शाया गया है. इसके अलावा कपड़े पर बारीकी से महाभारत, रामायण, कृष्ण लीला व हिमाचल की संस्कृति को भी दर्शाया जाता है. चंबा रूमाल की कीमत लाखों में होती है, लेकिन रिज मैदान पर लगे चंबा के एक रूमाल की कीमत 250 रुपये से लेकर 50 हजार रुपये तक है. उन्होंने कहा कि चंबा जिले की महिलाएं आज भी इस कला को जिंदा रखे हुए हैं. इस कला को तारीफ तो बहुत मिलती है लेकिन खरीदार कम हैं.
विश्वभर में है चंबा रूमाल की पहचान:चंबा रूमाल की लोकप्रियता दिन-प्रतिदिन बढ़ती चली जा रही है. आज चंबा रूमाल किसी पहचान का मोहताज नहीं रह गया है. बड़े-बड़े अवसर और अंतरराष्ट्रीय कार्यकर्मों में चंबा रूमाल भेंट दिए जाने से इसकी लोकप्रियता का अंदाजा लगाया जा सकता है. चंबा रूमाल की खासियत होती है कि इसके दोनों तरफ एक तरह का ही चित्र देखने को मिलता है. चंबा रूमाल में आम रूमाल की तरह उल्टी और सीधी तरफ नहीं होती. इसमें इस्तेमाल होने वाले धागे को भी विशेष रूप से अमृतसर से मंगाया जाता है. चंबा रूमाल तैयार करने में दिनों का नहीं बल्कि महीनों का वक्त लग जाता है. ऐतिहासिक शैली को संजोए हुए कारीगरों को चंबा रूमाल बनाने में काफी मेहनत करनी पड़ती है.
लंदन के म्यूजियम में रखा गया है चंबारूमाल: लंडन के विक्टोरिया अल्बर्ट म्यूजियम में भी चंबा रूमाल रखा गया है, जो 1883 में राजा गोपाल सिंह द्वारा अंग्रेजों को उपहार में दिया गया था. इस रूमाल में महाकाव्य महाभारत के कुरुक्षेत्र युद्ध का एक कशीदाकारी दृश्य बनाया गया है. 17वीं शताब्दी से शाही परिवार के सदस्य व तत्कालीन रियासत की महिलाएं ही शादी के तोहफे या दहेज के रूप में देने के लिए चंबा रूमालों की कढ़ाई करती थीं. इस रूमाल का सबसे पुराना रूप 16 वीं शताब्दी में गुरु नानक की बहन बेबे नानकी द्वारा बनाया गया था, जो अब होशियारपुर के गुरुद्वारे में संरक्षित है. लेकिन ये कला 18वीं व 19वीं में काफी फली फूली.
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