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आजादी से पहले भी हिमाचल में था राजनीतिक चेतना का विस्तार, बापू और नेहरू तक पहुंची थी धामी गोलीकांड की गूंज - शिमला खबर

16 जुलाई 1939 को शिमाल के धामी गोलीकांड को आज 80 साल पूरे हो गए हैं. ये गोलीकांड राजसत्ता के खिलाफ था. कहा जा सकता है कि आजादी की लड़ाई में हिमाचल के दो जनांदोलनों का प्रमुखता से जिक्र किया जा सकता है.पहला सिरमौर का पझौता आन्दोलन और दूसरा शिमला का धामी गोली कांड.

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Published : Jul 16, 2019, 11:13 PM IST

शिमला: पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश बेशक 15 अप्रैल 1948 को अस्तित्व में आया, लेकिन यहां राजनीतिक चेतना का विस्तार रियासती समय से ही था. रियासतों के दौर में कुछ आंदोलन अहम स्थान रखते हैं. उन्हीं में से एक है धामी गोलीकांड,अस्सी साल पहले आज ही के दिन यानी 16 जुलाई को धामी में एक गोलीकांड हुआ था.

ये गोलीकांड राजसत्ता के खिलाफ था. कहा जा सकता है कि आजादी की लड़ाई में हिमाचल के दो जनांदोलनों का प्रमुखता से जिक्र किया जा सकता है.पहला सिरमौर का पझौता आन्दोलन और दूसरा शिमला का धामी गोली कांड. समय के उस दौर में धामी रियासत के राणा की दमनकारी नीतियों के खिलाफ प्रेम प्रचारिणी सभा, जो बाद में प्रजामंडल में रूपायित हो चुकी थी के मुखिया पंडित सीताराम ने राणा के समक्ष तीन मांगें रखीं.

ये मांगे थीं, बेगार प्रथा की समाप्ति, करों में 50% की कमी करना और रियासती प्रजामंडल धामी की पुनर्स्थापना. धामी के राणा दलीप सिंह से इन्हीं मांगों को मनवाने के लिए 1939 में 16 जुलाई के दिन करीब 1500 आन्दोलनकारियों के एक समूह ने भाग मल सोहटा के नेतृत्व में शिमला से धामी की ओर पैदल कूच किया.

आंदोलनकारियों की इस भीड़ के धामी पहुंचने पर बौखलाए राजा ने निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोली चलाने का आदेश दे दिया. रियासती पुलिस की गोलीबारी में दो आंदोलनकारियों उमा दत्त और दुर्गा दास शहीद हो गए और अनेक घायल हुए.

जायज हकों के लिए संघर्ष कर रही प्रजा पर इस गोलीकांड से हर तरफ सनसनी फैला गई बाद में प्रजामंडल और स्वतंत्रता आंदोलन और भी भड़क गया. महात्मा गांधी व नेहरू ने भी इसका कड़ा संज्ञान लिया. इस तरह धामी गोलीकांड ने साधारण प्रजा के असाधारण साहस की इबारत लिखी. आज भी धामी गोलीकांड को हिमाचल में स्मरण किया जाता है.

धामी गोलीकांड को लेकर कुछ लोग राष्ट्रीय स्तर पर महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू से मिले. बाद में सीताराम, भास्करानंद और राजकुमारी अमृत कौर के के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल गांधी और नेहरू से मिला.

कांग्रेस ने इस घटना की जांच के लिए दुनीचंद नामक वकील को नियुक्त किया था. राणा दलीप सिंह व अंग्रेज सरकार ने मिलकर प्रजामंडल के कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारियां, उनके सामान की कुर्की और देश निकाला जैसे आदेश पारित कर आंदोलन को कुचलने की कोशिश की थी.

इस तरह के फैसले से पूरी रियासत में राजा के खिलाफ लोगों का गुस्सा और ज्यादा बढ़ गया था. ये देखते हुए तत्कालीन राजा ने ब्रिटिश आर्मी की एक टुकड़ी को रियासत के मुख्यालय धामी में बुला लिया और प्रजामंडल व स्वराजियों के घरों आदि को सील करवा दिया था.

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