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देव महाकुंभ की रौनक को लगी कोरोना की नजर! खो गई कुल्लू दशहरा उत्सव की अद्वितीय पहचान - हिमाचल की परंपराएं

हिमाचल ने अपनी समृद्ध संस्कृति व सभ्यता की अनमोल थाती को बखूबी संजोए रखा है, जिसका उदाहरण हमें प्रदेश में सदियों से आयोजित होने वाले विभिन्न मेलों व उत्सवों में देखने को मिलता है. प्रदेश में ग्रामीण स्तर से राष्ट्रीय स्तर पर मनाए जाने वाले उत्सवों में कुल्लू दशहरा उत्सव ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित की है, मगर इस बार दशहरा पर्व का अस्तित्व कोरोना की भेंट चढ़ गया.

kullu dussehra festival 2020
डिजाइन फोटो.

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Published : Oct 28, 2020, 7:52 PM IST

कुल्लू: अंतर्राष्ट्रीय कुल्लू दशहरा हिमाचल प्रदेश के उत्सवों का सिरमौर माना जाता है. हर साल धूमधाम से मनाया जाने वाला विश्व प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय कुल्लू दशहरा इस बार कोरोना की भेंट चढ़ गया. देवभूमि में मंडी की शिवरात्रि, चंबा में मिंजर मेला, सुजानपुर टिहरा की होली, शिमला का समर फेस्टिवल,रामपुर की लवी, सोलन का शूलिनी मेला भी कम प्रसिद्ध नहीं है, लेकिन देवताओं की गोद में बसा कुल्लू अपनी अनूठी देव संस्कृति के लिहाज से उत्सवों के फलक पर प्रसिद्ध है.

ख्याति का लबादा दशहरा ने अपनी देव परंपरा से ही पहना है. हर साल सैकड़ों देवी-देवता ढालपुर मैदान में पहुंचते थे, लेकिन इस बार सिमित देवी-देवता ही दशहरा उत्सव में शामिल हो पाए हैं. कुल्लू दशहरा में आयोजित होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम इस कदर मशहूर है कि यहां आयोजित होने वाले कार्यक्रमों ने कई बार गिनिज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में अपना नाम दर्ज करवाया है. कुल्लू दशहरा में हजारों महिलाएं एक साथ कुल्लवी नाटी करती है. कुल्लवी नाटी अंतर्राष्ट्रीय दशहरा के मुख्य आकर्षण का केंद्र रहती है.

वीडियो.

कारोबार पर प्रतिबंध व्यापारी नाखुश

कुल्लू दशहरा में आस-पास के जिलों और राज्यों के साथ-साथ विदेश से भी व्यापारी पहुंचते थे. स्थानीय उत्पाद विशेष रूप से कुल्लू की शॉल, टोपियां और सर्दी के मौसम में प्रयोग होने वाले गर्म वस्त्र खरीदने का अवसर भी प्राप्त होता था, लेकिन इस बार व्यापार पर पूरी तरह से प्रतिबंध है. इन दिनों का माहौल बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक स्थानीय लोगों से लेकर विदेशियों तक के लिए खुशगवार होता था. छोटे बच्चों के मनोरंजन के लिए जहां ढेरों आकर्षण होते थे.

वहीं, महिलाओं को खरीदारी करने हेतु एक विशेष अवसर प्राप्त होता रहा है, जिसमें अहम बात ये रहती है कि कम से कम मूल्य से लेकर अधिक से अधिक कीमत तक की वस्तुएं उपलब्ध होती थी. कोरोना के मद्देनजन जारी नियमों के चलते इस बार न तो व्यपार न ही मनोरंजन और न ही पर्यटन को पंख लग सके. कोरोना के चलते जारी नियमों की वजह से कारोबारी भी नाखुश हैं.

ऐतिहासिक ढालपुर मैदान में सात दिनों तक मनाए जाने वाले अंतरराष्ट्रीय लोकनृत्य उत्सव कुल्लू दशहरा की धार्मिक मान्यताओं, आरंभिक परंपराओं, सांस्कृतिक कार्यक्रमों, पर्यटन, व्यापार व मनोरंजन की दृष्टि से अद्वितीय पहचान है, लेकिन इस बार दशहरा कमेटी इस धरोहर की सारी परंपराओं को निभाने में असफल रही.

तीन भागों में आयोजित होता है दशहरा

दशहरा उत्सव स्थानीय लोगों में विजयदशमी के नाम से प्रचलित है. दशहरा उत्सव के मुख्यत: तीन भाग ठाकुर निकालना, मोहल्ला और लंका दहन है. दशहरे के आरंभ में सर्वप्रथम राजाओं के वंशजों द्वारा देवी हिडिंब्बा की पूजा-अर्चना की जाती है और राजमहल से रघुनाथ जी की सवारी रथ मैदान ढालपुर की ओर निकल पड़ती है.

राजमहल से रथ मैदान तक की शोभा यात्रा का दृश्य अनुपम व मनमोहक होता है. ढालपुर रथ मैदान में रघुनाथ जी की प्रतिमा को सुसज्जित रथ में रखा जाता है. इस स्थान पर सैकड़ों देवी-देवता भी शामिल होते हैं, जिला के विभिन्न भागों से आए देवी-देवता एकत्रित होते हैं.

प्रत्येक देवी-देवता की पालकी के साथ देवलू पारंपरिक वाद्य यंत्रों सहित उपस्थित होते हैं. इन वाद्य यंत्रों की लयबद्ध ध्वनि व जयघोष से वातावरण में रघुनाथ की प्रतिमा वाले रथ को विशाल जनसमूह द्वारा खींचकर ढालपुर मैदान के मध्य तक लाया जाता है, जहां पहले से स्थापित शिविर में रघुनाथ जी की प्रतिमा रखी जाती है. इस बार शानौ-शौकत से निभाई जाने वाली इस परंपरा का ही निर्वाह सीमित तौर पर किया गया.

रघुनाथ जी की रथयात्रा को ठाकुर निकालना कहते हैं. रथयात्रा के साथ कुल्लवी परंपराओं, मान्यताओं, देवसंस्कृति, पारंपरिक वेशभूषा, वाद्य यंत्रों की धुनों, देवी-देवताओं में आस्था, श्रद्धा व उल्लास का एक अनूठा संगम होता है. मोहल्ले के नाम से प्रख्यात दशहरे के छठे दिन सभी देवी-देवता रघुनाथ जी के शिविर में शीश नवाकर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं.

इस दौरान देवी-देवताओं का मिलन मानव जाति को आपसी प्रेम का संदेश देता हैं. इस भक्तिमय और मनोरम दृश्य को देखने के लिए हजारों की संख्या में एकत्रित हुए लोगों में देश-प्रदेश ही नहीं अपितु विदेशी पर्यटक भी शामिल होते हैं, लेकिन इस बार समाजिक दूरी के साथ सीमित लोग व सीमित देवी-देवता ही भाग ले पाएंगे. मोहल्ले के अवसर पर रात्रि में रघुनाथ शिविर के सामने शक्ति पूजन किया जाता है.

दशहरा उत्सव के अंतिम दिन शिविर में से रघुनाथ जी की मूर्ति निकालकर रथ में रखा जाती है और इस रथ को खींचकर मैदान के अंतिम छोर तक लाया जाता है. दशहरे में उपस्थित देवी-देवता इस यात्रा में शरीक होते हैं. देवी-देवताओं की पालकियों के साथ देवलू और ग्रामीण वाद्य यंत्र बजाते हुए चलते हैं.

इस तरह लंका दहन की समाप्ति हो जाती है और रघुनाथ जी की पालकी को वापिस मंदिर में लाया जाता है. इसके बाद देवी-देवता भी अपने-अपने गांव के लिए प्रस्थान करते हैं. ठाकुर निकलने से लंका दहन तक की अवधि में पर्यटकों के लिए एक विशेष आकर्षण रहता था जो अब कोरोना की जकड़ में हैं.

देवी पालकियां होती हैं मुख्य आकर्षण

ढालपुर के प्रदर्शनी मैदान में विभिन्न विभागों, गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा आयोजित प्रदर्शनियां अपने आप में दशहरा उत्सव का एक विशेष आकर्षण होता था. यह प्रदर्शिनयां जहां बड़ों को संतुष्ट करती थी.

वहीं, मासूम बच्चों के लिए आश्चर्य से भरे कई सवाल छोड़ जाती थी. इसका मुख्य और सबसे आकर्षक गहना है, यहां आई असंख्य देवी-देवताओं की पालकियां जो मैदान में बने शिविरों में रखी जाती थीं. प्रात: व संध्या के समय जब देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना होती थी, तो वातावरण भक्तिभाव से भर जाता था, लेकिन इस बार इस जन्नत के दर्शन दुर्लभ है. कुल्लू के लोगों में दशहरे के सीमित स्वरूप को लेकर मलाल तो बेशक है, लेकिन लोगों को दशहरा उत्सव मनाने के लिए अगले साल बेसब्री से इंतजार है.

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