कुल्लू: हिमाचल प्रदेश के हर क्षेत्र के अपने-अपने त्यौहार और परंपराएं हैं. इन त्यौहारों और परंपराओं की रीत सदियों से चलती आ रही है. ऐसा ही एक उत्सव है फागली. ये उत्सव कुल्लू-मनाली सहित लाहौल स्पीति में मनाया जाता है.
कुल्लू-मनाली सहित लाहौल स्पीति में फागली उत्सव लोग अपने तौर तरीके से मनाते हैं. मतलब त्यौहार एक है, लेकिन उसको अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग तरीके से मनाया जाता है. गढ़सा, बंजार, पल्दी घाटी के लोग अलग-अलग तरीके से फागली मनाते हैं.
फाल्गुन संक्रांति पर तीन और पांच दिन तक मनाया जाने वाला फागली उत्सव विष्णु-नारायण भगवान के दस अवतारों की लीलाओं का प्रतीक है. उत्सव में देवता के गण परंपरागत तरीके से ढोल, नगाड़े, करनाह्ली, शहनाई, डफला, भाणा, कांसा और काहुली की कलरव ध्वनि के साथ गाना गाते है. साथ ही देवता विष्णु-नारायण की पालकी के साथ देवक्रीड़ा में भी भाग लेते है.
फाल्गुन माह से ही इसका नाम फागली पड़ा है. लोगों का मानना है कि माघ माह में देवता स्वर्ग प्रवास पर जाते हैं. फाल्गुन माह की सक्रांति के बाद देवता स्वर्ग प्रवास से लौटना शुरू करते हैं. स्वर्ग प्रवास से लौटने के बाद देवता आने वाले साल के लिए भविष्यवाणी करते हैं, जिसे बरसोआ कहा जाता है यानि बार्षिक फल. बरसोआ के दौरान होने बाला मुखौटा नृत्य आकर्षण का केंद्र रहता है. इस दौरान कुछ लोग राक्षसों को खुश करने के लिए मुंह पर मुखौटा और शरीर पर शरूली नाम की घास पहनकर नृत्य किया जाता है. नृत्य देखने के लिए पूरे गांव के लोग इक्ट्ठे होते हैं. इस दौरान अश्लील गालियां भी दी जाती हैं.
सुबह के समय पूरा गांव हाथ में मसाल लिए और राक्षसों के मुखोटे लिए इक्ट्ठा होता है. इस दौरान मुखौटा पहने लोग राक्षसों और बुरी शक्तियों को गालियां देकर गांव से बाहर खदेड़ देते हैं. देवता के कार कारिंदों के अनुसार यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है. इसके साथ लोग आग जलाकर नृत्य करते हैं. देवता के कार कारिंदों के अनुसार यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है.