धर्मशाला: प्रदेश में कला को संजोने में कांगड़ा पेंटिंग का अहम योगदान है. कांगड़ा पेंटिंग्स एक अलग तरह की चित्रकला है. इस अनूठी कला को सदियों बाद भी संजोया गया है. इस खास तरह की पेंटिंग में पत्थरों और पेड़ों के रंग और गिलहरी के बालों का बना ब्रश इस्तेमाल किए जाते हैं. बता दें कि कांगड़ा पेंटिंग्स दुनिया में अपनी अलग पहचान के लिए जानी जाती है.
इस चित्रकला शैली का जन्म कांगड़ा के गुलेर नामक स्थान में हुआ था. इस कला का विकास 18वीं सदी में हुआ था. मुगल चित्रकला शैली के कलाकार कश्मीर के परिवार को राजा दलीप सिंह ने अपने राज्य गुलेर (1695-1741) में शरण दी और गुलेर चित्रकला विकसित होना शुरू हुई. उस समय इन चित्रों में चित्रकार अपने मालिक के पोट्रेट और उनके प्रेम प्रसंग के दृश्य और राधा-कृष्ण के प्रेम-प्रसंग के दृश्य जैसे विषय लेते थे.
वहीं, 17वीं और 19वीं शताब्दी में यहां के राजपूत शासकों ने इस कला के विकास पर काम किया. वहीं,18वीं शताब्दी के मध्य में जब बसोहली चित्रकला समाप्त होने लगी तब यहां इतने प्रकार के चित्र बने कि पहाड़ी चित्रकला को कांगड़ा चित्रकला के नाम से जाना जाने लगा. वैसे कांगड़ा कलम का नाम कांगड़ा रियासत के नाम पर पड़ा और यहां इसे पुष्पित-पल्लवित होने के लिए उचित परिवेश मिला. वैसे तो कांगड़ा चित्रकला के मुख्य स्थान गुलेर, बसोहली, चम्बा, नूरपुर, बिलासपुर और कांगड़ा है, लेकिन बाद में यह शैली मंडी, सुकेत, कुल्लू, अर्की, नालागढ़ और गढ़वाल में भी अपनाई गई.गढ़वाल में कांगड़ा कलम के क्षेत्र में मोलाराम ने अविस्मरणीय कार्य किया. वर्तमान में यह पहाड़ी चित्रकला के नाम से विख्यात है. कांगड़ा स्कूल ऑफ पेंटिंग पहाड़ी चित्रकला के उत्थान और नवीनीकरण में सक्रिय रहा है.
गुलेर से शुरू हुई कांगड़ा पेंटिंग
इस कला का जन्म गुलेर नामक स्थान में हुआ. मुगल चित्रकला शैली के कलाकार कश्मीरी के परिवार को राजा दलीप सिंह ने अपने राज्य गुलेर (1695-1741) में शरण दी और गुलेर चित्रकला विकसित होना शुरू हुई. इन चित्रों में चित्रकार अपने मालिक के फ्लैट पोट्रेट और उनके प्रेम प्रसंग के दृश्य, राधाकृष्ण के प्रेम-प्रसंग के दृश्य जैसे विषय लेते थे. कलाकार प्राकृतिक एवं ताजे रंगों का प्रयोग करते थे.